राजस्थान में 9 जिले क्यों खत्म किये गये?

Ram Gopal Jat

राजस्थान की भजनलाल सरकार ने आखिर 11 महीने बाद सबसे बड़ा फैसला लेते हुए 21 महीनों पहले जल्दबाजी में बनाए गए प्रदेश के 9 जिलों और 3 संभागों को समाप्त कर दिया। तत्कालीन अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार ने 23 मार्च 2023 को राजस्थान गठन के बाद सबसे बड़ा राजस्व निर्णय लेते हुए एक झटके में 17 जिले और 3 संभाग बना दिये थे। 

इससे पहले 75 साल में कभी भी एक साथ इतने जिले बनाने का काम नहीं किया गया था। बालोतरा, नीम का थाना, विराटनगर, कोटपूतली, डीग, कामां, बयाना, शाहपुरा, सांभर, डीडवाना, कुचामन, बहरोड, खैरथल, ब्यावर, केकडी, किशनगढ़, खंडेला, श्रीमोपुर और उदयपुरवाटी जैसे 60 शहरों को जिलों बनाने की मांग उठ रही थी। यहां से चुनकर आने वाले कई विधायकों को तो अंदाजा भी नहीं था कि उनके यहां पर जिला बनाया जा सकता है, लेकिन अचानक से जिले बनाकर सौंप दिये। 

तब भाजपा ने जमकर विरोध नहीं किया, लेकिन दबी जुबान में सरकार के इस निर्णय का विरोध ही किया। एक साल पहले दिसंबर में सत्ता बदल गई। भाजपा ने चुनाव में मुद्दा बनाया कि कांग्रेस सरकार ने जो भी गलत काम किये, उनमें सुधार किया जाएगा। भाजपा सरकार बनने के बाद लोग उम्मीद लगा रहे थे कि पेपर लीक से लेकर जिले बनाने के मामले में सरकार बड़े फैसले करेगी, लेकिन पहले मई में लोकसभा चुनाव, फिर नवंबर में उपचुनाव के बाद भी कोई फैसला नहीं किया तो लोगों को लगा कि भाजपा अपने वादों को पूरा नहीं करेगी। 

एसआई भर्ती परीक्षा का मामला अभी अधर में लटका हुआ है और कृषि मंत्री किरोड़ीलाल मीणा लगातार परीक्षा रद्द करने की मांग कर रहे हैं, जबकि नये एसआई ट्रेनिंग लेकर जिलों में नियुक्ति पा रहे हैं।

सरकार ने अब सबसे बड़ा फैसला लेते हुए 17 में से 9 जिले और सभी 3 संभाग निरस्त किये हैं। सवाल यह उठता है कि क्या जिले बनाने और जिले निरस्त करने के कोई मापदंड नहीं हैं? क्या कोई भी सरकार, जब चाहे कितने भी जिले बना सकती है या जब मर्जी आए तब कितने भी जिले खत्म कर सकती है? जिले बनाने के राष्ट्रीय प्रतिमान क्या हैं और कोई सरकार नये जिले कब बना सकती है, कब जिले खत्म कर सकती है? 

साथ ही यह भी समझना जरूरी है कि प्रशासनिक, राजस्व, जनसंख्या की दृष्टि से जिले बनाने की योग्यता क्या होती है? इस वीडियो में इन तमाम सवालों के जवाब जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले जान लेते हैं कि अशोक गहलोत ने नये जिले बनाने के लिए मापदंड अपनाए थे। दरअसल, 23 मार्च 2023 को जब नये जिलों का गठन का किया गया था, उससे पहले प्रदेश में तीन—चार नये जिले बनाने की मांग की जा रही थी। बालोतरा के विधायक मदन प्रजापत ने जिला बनाने तक जूते—चप्पल पहनने छोड़ दिये थे। 

सरकार ने नये जिलों के लिए पूर्व आईएएस अधिकारी रामलुभाया की अध्यक्षता में 21 मार्च 2022 को एक कमेटी का गठन किया था। कमेटी को एक साल में अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी, जिसके आधार पर जिलों का गठन होना था, लेकिन एक साल बाद 11 मार्च 2023 तक भी जब रिपोर्ट नहीं आई तो सदन में बोलते हुए गहलोत ने कहा था कि कमेटी की रिपोर्ट नहीं आई है, जैसे रिपोर्ट आएगी, नये जिले बना दिये जाएंगे।

इसके ठीक 12 दिन बाद 23 मार्च 2023 को गहलोत सरकार ने 17 जिलों और 3 नये संभागों का गठन कर दिया। इससे पहले 14 साल पूर्व 26 जनवरी 2008 में तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार ने प्रतापगढ़ के रुप में 33वां जिला बनाया था। जिले तो बना दिये, किंतु गहलोत सरकार ने इन जिलों के लिए उस समय कोई बजट अलॉट नहीं किया था, लेकिन थोड़े समय बाद कलेक्टर और एसपी भी नियुक्त कर दिये थे, जो एसडीएम और एसीपी कार्यलय में बैठते थे। 

9 अक्टूबर 2023 को राजस्थान में विधानसभा चुनाव की आचार संहिता लगी, उससे ठीक कुछ ही घंटे पहले गहलोत सरकार ने मालपुरा, कुचामन और सुजानगढ़ के रुप में तीन जिलों की घोषणा और कर दी, लेकिन इसके लिए नोटिफिकेशन जारी नहीं किया गया। ऐसे में इन जिलों की प्रक्रिया का कुछ नहीं हुआ, केवल घोषणा बनकर रह गई। राज्य में वोटिंग के बाद 3 दिसंबर को परिणाम आया तो भाजपा बहुमत में आ गई। भाजपा की सरकार गठन के साथ ही नये जिलों पर तलवार भी लटक गई। 

बीते 12 महीनों में बार—बार दावों के बाद भी सरकार ने पिछली कांग्रेस सरकार के बनाये जिलों पर कोई फैसला नहीं किया। जिसके कारण लोगों को लगने लगा था कि सरकार किसी जिले को समाप्त नहीं करेगी, हालांकि, सरकार बनने के साथ ही तमाम जिलों के कलेक्टर और एसपी हटाए जा चुके थे। एक तरफ सरकार के मंत्री और नेता जिलों का पुनर्मूल्यांकन करने का दावा कर रहे थे तो कांग्रेस के नेता दावा करते थे कि यह सरकार अपनी जीवन में कभी भी कोई जिला खत्म नहीं कर पायेगी। 

इसके बाद 28 दिसंबर को नये बने 17 जिलों में से 9 जिले और तीनों संभाग समाप्त कर दिये। जिले खत्म करने के कारण कई जगह पर धरने, प्रदर्शन शुरू हो गये हैं तो कांग्रेस ने दावा किया है कि विधानसभा सत्र के दौरान सदन के भीतर सरकार की रैल बना देंगे, जबकि कुछ स्थानीय नेताओं को छोड़ दिया जाए तो प्रदेश स्तर पर कांग्रेस सड़कों पर नहीं उतर पाई है।

सरकार ने जिले समाप्त करने के साथ ही दावा किया कि राष्ट्रीय स्तर पर 20 लाख की आबादी पर नये जिले बनाने का प्रावधान है, फिर भी सरकार ने 10 लाख की आबादी पर भी जिलों को बनाये रखा है। यह भी दावा किया गया कि जो जिले बनाये गये थे, वो व्यवहारिक नहीं थे, इनसे फिजुलखर्ची बढ़ रही थी, सरकार पर बिना वजह का आर्थिक बोझ बढ़ रहा था और इसके लिए जनसंख्या से लेकर भौगोलिक मापकों को भी ध्यान में नहीं रखा गया था। 

मंत्री कन्हैयालाल चौधरी ने कहा कि एक नया जिला बनाने पर कम से कम 2000 करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ता है, जो कतई उचित नहीं है। हालांकि, यह भी कहा गया कि सरकार समीक्षा करेगी और यदि कोई शहर इन मापदंडों को पूरा करेगा तो उसे फिर से जिला बना दिया जाएगा।

दरअसल, किसी क्षेत्र को नया जिला तभी बनाया जाता है जब जिला मुख्यालय से वो कम से कम 50 किलोमीटर दूर हो। आबादी के मुताबिक कम से कम 2 लाख होनी चाहिए, जबकि 10 लाख की आबादी पर नया जिला बनाया जाता है। नए जिले तभी बनाए जाते हैं, जब उस क्षेत्र में कम से कम तीन से चार तहसील और इतने ही उपखंड मुख्यालय होने चाहिए। 

सरकार की एक कमेटी उस क्षेत्र का अध्ययन करती है, ताकि दिक्कतों और परेशानियों को लेकर स्थिति साफ हो सके। क्षेत्र की जनसंख्या घनत्व, भौगोलिक क्षेत्र के साथ-साथ प्रशासनिक सुविधा, संसाधनों की उपलब्धता, सामाजिक विश्लेषण जैसे कारकों पर विचार किया जाता है। इसके अलावा स्थानीय जनप्रतिनिधियों, राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों से भी बात की जाती है। 

नये जिले बनाने या पुराने जिलों को समाप्त करने का अधिकार राज्य सरकारों के पास होता है, इसलिए सरकारें अपने सुविधा के अनुसार जिलों का गठन करती हैं। सभी तरह के दावे किये जाते हैं, लेकिन सबसे अधिक ध्यान राजनीतिक रुप से फायदे का रखा जाता है।

गहलोत सरकार ने इनमें से एक भी मापदंड का ध्यान नहीं रखा, बल्कि दूदू, गंगापुर सिटी, शाहपुरा जैसे जिले तो बिना किसी मांग के ही बना दिये गये। दूदू में तो केवल एक ही तहसील है, उसे भी जिला बना दिया, जिसकी जनसंख्या केवल 3 लाख के आसपास है। इसी तरह से जयपुर और जोधपुर में इन्हीं के नाम से ग्रामीण जिले बना दिये, जो वर्तमान जिलों के चारों और थे। 

आश्चर्य की बात है कि जिलों के बीच में जिले बना दिये, जबकि ये प्रक्रिया आज दिन तक देश में कहीं पर नहीं अपनाई गई। तब सरकार ने तर्क दिया था कि राजस्थान भौगोलिक दृष्टि से काफी बड़ा है और यहां पर केवल 33 जिले हैं, जबकि राजस्थान से छोटे मध्य प्रदेश में 52 जिले हैं। अब सरकार ने जब 9 जिले और 3 संभाग समाप्त कर दिये हैं, तब प्रदेश में 41 जिले और 7 संभाग रहे गये हैं।

सरकार जल्द ही ग्राम पंचायतों, पंचायत समितियों, जिला परिषदों और नगर निगमों का भी पुनगर्ठन करने का काम करेगी। पिछली सरकार ने भी यह काम किया था, लेकिन जयपुर, जोधपुर और कोटा में तीन नये निगम बना दिये थे। 

आपको ध्यान होगा 3.30 करोड़ जनसंख्या वाली दिल्ली और करीब 18 करोड़ की आबादी वाले मुंबई जैसे बड़े शहरों में भी केवल एक—एक निगम हैं, जबकि 45 लाख से कम आबादी के जयपुर, 15 लाख से कम जनसंख्या के जोधपुर और 14 लाख से कम आबादी के कोटा में दो—दो नगर निगम बना दिये थे। भाजपा शुरू से ही इन निगमों के गठन के खिलाफ रही है। माना जा रहा है कि राजस्थान सरकार जिलों की तरह अब तीनों जिलों में बनाए गये नये नये तीनों निगम भी समाप्त कर देगी।

सवाल यह उठता है कि पिछली सरकार ने जिलों, संभागों और निगमों की भरमार क्यों की? असल बात यह है कि जब जिला, संभाग या निगम बनता है तो सत्ताधारी पार्टी को लाभ होता है। राजनीतिक और आर्थिक लाभ लेने के लिए सत्ताधारी दलों द्वारा इस तरह से कदम उठाए जाते हैं। एक उदाहरण से समझिये कि कैसे राजनीतिक दल अपने कार्यकर्ताओं को एडजस्ट करते हैं। 

जयपुर नगर निगम के टुकड़े करके दो बनाए गये, तो वार्डों की संख्या 91 से बढ़कर 250 हो गये। दो निगम बनाने जाने से पहले 91 पार्षद थे, दो निगम बनाने के बाद पार्षदों की संख्या बढ़कर 250 हो गये। इसी तरह से जोधपुर और कोटा में अब 150 पार्षद हैं। इसका फायदा यह हुआ कि इससे पहले जयपुर में सत्ताधारी पार्टी केवल 91 कार्यकर्ताओं को टिकट देकर चुनाव लड़वा सकती थी, लेकिन इसके बाद 250 को टिकट दिया गया। 

हालांकि, यही लाभ विपक्षी दल को भी हुआ, लेकिन दो नगर निगम बनाने के कारण सरकारी खजाने पर बहुत भार पड़ गया। भाजपा ने इसको मुद्दा बनाया था और विरोध भी किया था, लेकिन कांग्रेस सरकार नहीं मानी। अब जिस तरह से जिलों को बढ़ाकर 33 से 50 किया गया था, उससे भी पार्टी को फायदा होना था। इससे 50 जिलों में कलेक्टर और इतने ही एसपी लगाने का अवसर मिल रहा था। इसके साथ ही अब तक 33 जिला प्रमुख बन रहे थे, लेकिन इसके बाद 50 जिला प्रमुख बनाने का मौका मिल गया था। 

राजनीतिक रुप से इसके अलावा जहां नये जिले बने, वहां वोट बैंक बढ़ने का भी मौका था। हालांकि, कांग्रेस को इसका फायदा नहीं हुआ, क्योंकि जहां जिले बनाए गये थे, वहां की 50 सीटों में से भाजपा 29 सीटों पर जीत दर्ज की। इसके साथ ही नये जिलों की चार—पांच सीट निर्दलीय जीत गये। 

कुल मिलाकर नये जिले बनाने के बाद भी कांग्रेस को केवल 40 फीसदी सीटों पर जीत हासिल हो पाई। कांग्रेस ने सीकर, पाली और बांसवाड़ा के रुप में तीन संभाग बनाए थे, लेकिन जीत एक जगह भी नहीं मिली। सीकर में कॉमरेड जीत गये, पाली में भाजपा और बांसवाड़ा में भारत आदिवासी पार्टी जीत गई।

सीधे तौर पर भले ही दिखाई नहीं देता हो, लेकिन नये जिले बनाने से पार्टियां आर्थिक लाभ भी कमा लेती हैं। नये जिले बनने से वहां पर प्रशासनिक लवाजमे से लेकर तमाम तरह की आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ जाती हैं, जिससे नेताओं को कारोबार करने का अवसर मिल जाता है। 

राजस्थान सरकार ने जब जिलों की घोषणा की तो कई नेताओं ने जिला मुख्यालय का बहाना बनाकर जमीनों का जमकर धंधा किया। जहां सड़क बननी ही नहीं थी, वहां पर सड़क निकलने और जमीनें के भाव बढ़ने का झांसा देकर लोगों को लूटा गया। इस तरह के हजारों मामले सामने आए। इस तरह के काम में नेता, नेताओं के परिजन और उनके करीबी लोग शामिल रहे। कहीं—कहीं पर अधिकारी और कर्मचारियों ने भी जमकर चांदी कूटी।

अब जिले निरस्त करने के कारण एक बार तो सरकार के खिलाफ काफी गुस्सा दिखाई दे रहा है, लेकिन धीरे धीरे सब शांत हो जाएगा। हालांकि, इन धरने, प्रदर्शनों से भी कुछ नये नेता बनकर तैयार हो जाएंगे जो आगे टिकट लेकर चुनाव भी लड़ंगे। जिले और संभाग समाप्त करने के कारण अभी भाजपा के विरुद्ध रोष दिख रहा है, किंतु विधानसभा चुनाव में अभी 4 साल का समय बाकी है, तब तक इस मामले को सब भूल जाएंगे। 

वैसे भी कई जिले ऐसे थे, जिनको बनाने से सरकार के खिलाफ नाराजगी थी, तो जब 9 जिले समाप्त हो गये हैं, इसके कारण सांभर जैसे शहरों के लोग खुश भी हैं कि भविष्य यदि जिला बना तो उसका नंबर ही जाएगा। हालांकि, भरतपुर में से काटकर बनाये गये डीग जिले को समाप्त नहीं करने के कारण प्रदेश के लोगों में नारागजी भी है, क्योंकि भरतपुर खुद सीएम भजनलाल का गृह जिला होने के कारण सवाल खड़े हो रहे हैं। 

डीग जिला यथावत रखा गया है, लेकिन यह भी एक जिले के मापदंड पूरे नहीं करता है। कांग्रेस ने सबसे बड़ा सवाल ही इसी जिले पर उठाया है। सांचौर के नेता और पूर्व मंत्री सुखराम विश्नोई ने चेतावनी देते हुए कहा है कि यदि डीग जिला रह सकता है तो सांचौर भी जिला रहेगा।  

इसके अलावा सभी जिले यथावत रखने से राज्य सरकार को खजाने में से जिलों पर करीब 30 से 35 हजार करोड़ रुपये खर्च करने पड़ते तो उसकी भी बचत हो गई है। नये जिलों के आसपास डवलपमेंट के नाम पर पनपने वाले भूमाफिया की गतिविधियों पर भी ब्रेक लगेगा। 

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