जयपुर। लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन आशानुरुप नहीं रहा। खासकर उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भाजपा को निराश किया है, जहां पर दोनों ही जगह भाजपा की सरकारें हैं। राजस्थान में हैट्रिक नहीं लगाने का यदि मोटे तौर पर आकलन किया जाए तो उम्मीदवारों के खिलाफ व्यक्तिगत रोष सबसे बड़ा कारण रहा है। इसके साथ ही पार्टी का प्रत्याशी चयन भी हार का जिम्मेदार है। जिन तीन कारणों से राजस्थान में हालात ऐसे हुए, उनको समय रहते कंट्रोल किया जा सकता था, लेकिन राज्य का संगठन केवल मोदी के नाम के सहारे ही जीवित दिखाई दे रहा है। जब पिछले साल भाजपा ने अध्यक्ष बदला था, तब पार्टी अलग मोड में थी, लेकिन उसके बाद मोदी के विराट वैभव और संगठन द्वारा की गई मेहनत के साथ ही कांग्रेस सरकार के खिलाफ रही सत्ता विरोधी लहर के कारण भाजपा राज्य की सत्ता में आ गई।
पूर्व सीएम वसुंधरा राजे और पूर्व अध्यक्ष सतीश पूनियां को जितना कम काम लिया गया, भाजपा के उम्मीदवार उतने ही कमतर साबित होते गए। ईमानदारी से यदि भाजपा के नेता इस बात का विश्लेषण करेंगे के इन 11 सीटों पर हार का मुख्य कारण क्या है, तो जातिवादी राजनीति, क्षेत्रीय संतुलन का अभाव, जनाधार वाले नेताओं को सत्ता—संगठन से दूर कर देना, प्रत्याशियों के चयन में भारी लापरवाही, पुराने सांसदों के खिलाफ के गुस्से को पार्टी समझ ही नहीं पाई। पूर्वी द्वार भरतपुर और धौलपुर को इस बार जाट आरक्षण ले डूबा, जिसे समय रहते नियंत्रित किया जा सकता था। दौसा में गुर्जर—मीणा कॉम्बिनेशन का भाजपा तोड़ नहीं ढूंढ पाई। टोंक—सवाईमाधोपुर में पार्टी प्रत्याशी चयन में मात खा गई। जयपुर ग्रामीण हारते—हारते बची, जहां पर भी प्रत्याशी चयन गलत साबित होते—होते रह गया। मोदी की लहर का असर नहीं होता तो पार्टी जयपुर ग्रामीण बुरी तरह से हार सकती थी। सीकर में डोटासरा को तोड़ नहीं मिला, यहां पर भी उम्मीदवार बदलकर रोष कम किया जा सकता था। झुंझुनूं में पार्टी को बड़े चेहरे की जरूरत थी, लेकिन ऐसा चेहरा उतार दिया, जो विधानसभा चुनाव तक हार चुका था। श्रीगंगानगर में पार्टी को बड़ी मुश्किल से प्रत्याशी मिला, जहां पर किसान आंदोलन का बड़ा असर रहा है।
चूरू एक नेता की जिद में हार गई। राहुल कस्वां को टिकट नहीं देने का तुक आज तक समझ नहीं आया। आखिर एक नेता के दबाव में पार्टी ने जीती हुई सीट क्यों गंवाई? यहां पर सतीश पूनियां जैसे बड़े कद के नेता को उतारकर हार से बचा जा सकता था। राजेंद्र राठौड़ के खिलाफ जो माहौल विधानसभा चुनाव में बना था, उसको राहुल कस्वां का टिकट काटकर सातवें आसमान पर पहुंचा दिया गया। अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, भीलवाड़ा, चित्तोडगढ़, राजसमंद, झालावाड़ा, कोटा, उदयपुर, सिरोही, पाली, जयपुर, अलवर जैसी सीटें जीतना ही था, इसमें कोई चमत्कार की बात नहीं है। इन सीटों पर यदि मोदी का नाम हटा दें तो कोई नेता ऐसा नहीं है, जो अपने दम पर जीत सकता है। नागौर सीट हनुमान को दी जा सकती थी, लेकिन जिद में नहीं दी, तो मजबूरी में हनुमान कांग्रेस के साथ चले गए। कांग्रेस से आई और दो—दो बार हारी हुईं ज्योति मिर्धा को उतारने की क्या मजबूरी थी, ये आज भी समझ से परे है। दो दलों के कॉम्बिनेशन को यदि आलाकमान नहीं समझ सकता तो फिर ईमानदारी से अपना आकलन भी नहीं किया जा सकता है। बाड़मेर सीट पर जातिवाद का बोलबाला रहा, जहां पर एक कम उम्र के विधायक ने भाजपा को हराने का काम किया। यदि सीधी टक्कर होती तो नतीजे बदल सकते थे। राजपूत वोट भाजपा को है, उसको ही निर्दलीय ले गया। जातिवाद के कारण भाजपा का वोट भी टूटकर कांग्रेस के खाते में चला गया।
बांसवाड़ा—डूंगरपुर सीट पर भाजपा ने कांग्रेस के नेता को उतारा। यह भी समझ से परे रहा है कि जहां पार्टी आराम से जीतती रही है, वहां पर कांग्रेस के नेता को लेकर उतारने की क्या मजबूरी रही। यह सीट भाजपा की गलत रणनीति और कांग्रेस के सरेंडर ने भारत आदिवासी पार्टी को दे दी। जिस पार्टी को कल तक अशोक गहलोत नक्सलवाद फैलाने वाली पार्टी कहते थे, उसको ही कांग्रेस ने समर्थन देकर जितवा दिया। भाजपा यदि खुद का उम्मीदवार भी उतारती तो जीत तय थी। ऐसा ही टोंक—सवाईमाधोपुर में किया जाता तो जीत हासिल की जा सकती थी। अब पार्टी के संगठन मुखिया सीपी जोशी को इस हार की जिम्मेदारी देकर राजनीतिक दण्ड देना अनिवार्य है। प्रदेश मुखिया भजनलाल शर्मा भले ही पांच महीने पहले सत्ता में आए हों, लेकिन उनको भी आरोपित किया जाएगा, तभी पार्टी आलाकमान को जवाब दिया जा सकेगा। अंतत: आलाकमान को भी अपने कुछ भी कर कसने वाले अहंकार से बाहर आना होगा। जनाधार वाले नेताओं को आगे करना होगा, उनको ठीक से इस्तेमाल करना होगा, पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं को सम्मान देना होगा, पार्टी का कांग्रेसीकरण होने से रोकना होगा, दागी नेताओं को दण्डित करना होगा, जो नेता आगे बढ़़कर पार्टी के लिए दिनरात मेहनत कर सकते हैं, उनको आगे करना होगा।
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