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संघ—भाजपा में जंग क्यों?



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व के चलते केंद्र में भाजपा की लगातार तीसरी बार सरकार बन गई। हालांकि, तीसरी जीत उतनी बड़ी नहीं मिली, जितनी उम्मीद थी​, किंतु सरकार फिर भी एनडीए की ही बनी है। वर्ष 1989 से शुरू हुआ गठबंधन का दौर 2014 तक चल रहा था। उसके बाद भी अलाइंस रहा, लेकिन भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के कारण गठबंधन का बंधन नहीं था। इस बार फिर से वही बंधन हो गया है। 

भाजपा की इस अर्द जीत के मायने अपने—अपने अनुसार निकाले जा रहे हैं, लेकिन मोटे तौर पर यही सामने आया है कि लीडरशिप द्वारा कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गई, मोदी के चेहरे पर अति आत्मविश्वास किया गया,  उम्मीदवारों का चयन ठीक से नहीं हुआ, यूपी जैसे राज्य में प्रशासन ने पार्टी कार्यकर्ताओं को पीछे धकेल दिया, किसान आंदोलन, महिला पहलवान आंदोलन और अग्निवीर योजना के कुप्रभाव का ठीक से आकलन नहीं किया गया। यदि समय रहते इन तीनों घटनाओं को काबू में किया होता तो चार राज्यों तस्वीर अलग होती। यूपी, राजस्थान में जातिवाद चरम पर रहा। आरक्षण खत्म करने का दावा, 400 पार होने पर मोदी सरकार द्वारा मुसलमानों के प्रति अत्यधिक कुठाराघात की अफवाह और कांग्रेस का गारंटी कार्ड भाजपा की राह में रोड़ा बना। 

जनप्रतिनिधि अधिनियम 1951 की धारा 8 के तहत विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने, रिश्वतखोरी, चुनाव से संबंधित अपराध आदि से संबंधित कुछ अपराधों के लिए छह महीने या उससे अधिक की सजा हो सकती है। भ्रष्ट आचरण के लिए दोषसिद्धि (धारा 8ए) यदि किसी व्यक्ति को न्यायालय के आदेश द्वारा भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया जाता है तो उसे दोषसिद्धि की तारीख से छह साल के लिए अयोग्य घोषित किया जा सकता है। इस हिसाब से कांग्रेस का गारंटी कार्ड भ्रष्ट आचरण की श्रेणी में आना चाहिए। 

चुनाव में यदि कोई प्रत्याशी किसी को प्रलोभन देता है, झूठा वादा करता है या धर्म के आधार पर वोट मांगता है तो उसकी सदस्यता रद्द हो सकती है। कांग्रेस के गारंटी कार्ड में राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे की फोटा और हस्ताक्षर के साथ चार गारंटी दी गई थी। क्या प्रलोभन की श्रेणी में नहीं आता? चुनाव परिणाम के बाद महिलाएं कांग्रेस कार्यालय पहुंच गईं। वास्तव में देखा जाए तो यह गारंटी कार्ड प्रलोभन की श्रेणी में ही आता है, और यदि इसको लेकर कोई व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में चला जाए तो कांग्रेस सांसदों की मुश्किल हो सकती है। 

दूसरी तरफ भाजपा 370 और 400 पार के नारे के साथ अति आत्मविश्वास में उतरी, लेकिन 300 तक भी नहीं पहुंच पाई। पार्टी 240 पर ही ठहर गई। सरकार भले ही बन गई, लेकिन इस बार सरकार तीन टांग पर रहेगी। जिस तरह के कठोर फैसलों के लिए मोदी जाने जाते हैं, वैसे निर्णय करना बेहद कठिन है। असली जंग तो अब सामने आई है, जब आरएसएस ने पहली बार सीधे भाजपा पर हमला बोला है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मणिपुर हिंसा पर मोदी सरकार को आइना दिखाया तो इंद्रेश कुमार ने अहंकारी तक कह दिया। 

हालांकि, विपक्ष को रामद्रोही कहा, पर विपक्ष के बयानों से लगता है कि उनको रामद्रोही कहना खास बुरा नहीं लगा है, लेकिन उनको मजा इसमें आया है कि संघ ने पहली बार परोक्ष रुप से मोदी को अहंकारी कहा है। चुनाव में भाजपा की गारंटी, केंद्र सरकार की गारंटी या प्रधानमंत्री की गारंटी की जगह मोदी की गारंटी का नारा दिया गया। पहले तो कमल के फूल को ही पीछे छोड़ दिया गया था, बाद में मोदी समेत दूसरे नेताओं ने हाथ में उठाया, लेकिन विपक्षी दलों को मोदी की गारंटी ने चिढ़ा दिया। 

अब सवाल यह उठता है कि क्या वास्तव में भाजपा या मोदी अहंकारी हो गए हैं? देखा जाए तो यह बयान ठीक ही जान पड़ता है। विरोधी दलों के नेताओं को वॉशिंग मशीन में धोकर चुनाव लड़ा देना, किसी भी जमे हुए नेता की जगह किसी नए नेता को उम्मीदवार बना देना, जो टॉप लीडरशिप से थोड़ा भी अधिकारों की बात करे, उसका टिकट काट देना, बेवजह किसी को अध्यक्ष पद से हटा देना और जिसको मर्जी आए, उसको सीएम तक बना देना। ये तमाम कदम अहंकार की श्रेणी में ही आते हैं। लोकतंत्र में लोकतंत्र केवल देश के चुनाव में ही नहीं होता, अपितु राजनीतिक दलों में भी होना चाहिए। 

पार्टी को बड़े निर्णय हमेशा सर्वसम्मति से लेने चाहिए। अलोकतांत्रिक तरीके से निर्णय करके विपक्ष को बैठे—बिठाए ऐसे मुद्दे दे दिए, जो चुनाव में हार के जिम्मेदार बन गए। राजस्थान में आधे से अधिक टिकट इसी अहंकार में बांटे गए। राम मंदिर, धारा 370, सीएए जैसे कानून और मोदी का चेहरा नहीं होता तो भाजपा को 14 सीट पर नहीं मिलती। आप बताओ, राजस्थान में भाजपा के कितने उम्मीदवार अपने दम पर चुनाव जीतने का दम रखते हैं? शायद दो या तीन से अधिक नहीं मिलेंगे। जनता से जुड़े नेताओं को घर बिठा देना और जिनको कोई जानता तक नहीं, उनको चुनाव में थोप देना, ये कतई लोकतांत्रिक नहीं हो सकते। 

ऐसा नहीं है कि संघ ने इन सबके लिए भाजपा को चुनाव से पहले इशारा नहीं किया होगा। वैसे भी संघ हमेशा भाजपा को इशारों में ही सब समझाता है, कभी सीधे नहीं कहता है। ऐसा पहली बार हुआ कि संघ को सीधे बोलना पड़ा है। इसका मतलब यह है कि पार्टी अहंकार के शिखर पर चढ़कर चुनाव लड़ रही थी। यूपी, राजस्थान में सबसे अधिक नुकसान प्रत्याशी चयन, कार्यकर्ताओं की अनदेखी, बाहरी नेताओं को लेकर चुनाव लड़ाना जैसे मुद्दों के कारण हुआ। 

संघ ने अपनी बात कह दी, अब निर्णय भाजपा को करना है। यदि संघ की भावना को समझी तो अपने पूर्व निर्णयों पर विचार करेगी, उनकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, और यदि नहीं सुना गया तो संघ के बिना भाजपा जीत भी नहीं पाएगी। संघ का कार्यकर्ता बहुत वफादार होता है। इस बार हमारे घर मतदान से पहले पर्ची नहीं आई, तो आश्यर्च हुआ। संघ के बयानों के बाद अब पता चला मतदान के पहले आने वाली पर्ची हमारे घर तक क्यों नहीं पहुंची। 

नड्डा जैसे नेताओं को यह समझना होगा कि बेटी चाहे कितनी भी बड़ी हो जाए, लेकिन मां से बड़ी नहीं हो सकती। जैसे मां कभी अपनी बेटी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहती, ठीक वैसे ही संघ कभी भाजपा को हारता नहीं देखना चाहता। यह बात भाजपा नेताओं को अहंकार त्यागकर समझनी होगी। अगले चुनाव से पहले मोदी सरकार को उस जन भावना के अनुसार काम करना होगा, जिसके दम पर भाजपा यहां तक पहुंची है, तब तो अगली बार बहुमत मिल जाएगा, यदि इन पांच सालों की तरह ही 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' ही करते रहे तो सबका साथ भी नहीं मिलेगा और उपर से हमेशा के लिए अपनों का साथ भी छूट जाएगा।

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