Ram Gopal Jat
आप 6 महीने में आप बाइक, कार, साइकिल मकैनिक बन सकते हो, 6 महीने में मधुमक्खी पालन, दर्जी का काम, डेयरी फार्मिंग, हलवाई का काम, घर की इलेक्ट्रिक वायरिंग करना, प्लंबर का कार्य, मोबाइल रिपेयरिंग, जूते बनाना, दरवाजे बनाना, वेल्डिंग का काम करना, मिट्टी के बर्तन बनाना, चिनाई करना, मशरूम की खेती करना, बाल काटना, कोरियर का काम, हिंदी टाइपिंग करना भी सीख सकते हो। 6 महीने में आप बहुत से काम ऐसे सीख सकते हो, जो आपके परिवार को कभी भूखा नहीं सोने देगा। दुख की बात यह है कि भारत में आज सबसे अधिक दुखी वो लोग हैं, जो बहुत अधिक पढ़—लिखकर बेरोजगार हैं। जो एजुकेशन आपको रोजगार न दे सके, वो किस काम की? रोजगार के लिए कम पढ़ा—लिखा होना कोई मायने नहीं रखता। भारत में 90% रोजगार वे लोग कर रहे हैं, जो ज्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं, जबकि 10% से भी कम सरकारी नौकरी के लिये 90% पढ़े—लिखे बेरोजगार बनकर मारे—मारे फिर रहे हैं।
अदाणी ग्रुप के फाउंडर गौतम अदानी केवल 12वीं पास हैं। रिलायंस के फाउंटर धीरुभाई अंबानी मात्र स्कूलिंग किए हुए थे। टाटा ग्रुप के संस्थापक जमशेदजी टाटा ने केवल कॉलेज तक की पढ़ाई की थी। ऐसे ही भारत के कई प्रधानमंत्री, मंत्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल हायर एजुकेटेड नहीं थे। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजनीति विज्ञान में एमए पास हैं, लेकिन यह डिग्री भी उन्होंने दूरस्थ शिक्षा से ली है। इन तमाम हस्तियों को यूनिवर्सिटीज में कभी हायर एजुकेशन प्राप्त करने की जरूरत ही नहीं हुई। अपनी बुद्धिमत्ता के दम पर इन सभी ने उच्च शिक्षित आईएएस, आईपीएस और प्रोफेसर्स को मात दी। यानी इनके जीवन में शिक्षा का उतना ही महत्व था, जितना सलीके से कपड़े पहनने का होता था, बाकी सारे कार्य अपनी बौद्धिक प्रतिभा से किया। इन लोगों ने इतना नाम कमाया, जितना आईएएस, आईपीएस, सीजेआई, प्रोफेसर नहीं कमा पाए। दौलत इतनी कमाई कि तमाम हायर एजुकेटेड लोगों को नौकरी पर रखकर काम कराते हैं। इन लोगों ने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण 15—20 साल किताबें पढ़ने और सरकारी नौकरी की तैयार करने में बेकार नहीं किए।
संसद के काम-काज पर शोध करने वाली एजेंसी पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की रिपोर्ट कहती है कि इस बार लोकसभा में 78 प्रतिशत सदस्य स्नातक या उससे अधिक पढ़े-लिखे हैं। 22 प्रतिशत, यानी 119 सांसद ऐसे होंगे, जिनकी शिक्षा हायर सेकेंडरी या उससे कम है। पिछली लोकसभा में 27 प्रतिशत, यानी 147 सांसद ऐसे थे, जिनकी शिक्षा हायर सेकेंडरी या उससे कम थी। मोदी सरकार के नए मंत्रियों में से 99 प्रतिशत करोड़पति हैं और इनकी औसत संपत्ति 107 करोड़ रुपये है। एडीआर के अनुसार नई मंत्रिपरिषद में 11 मंत्री 12वीं पास हैं और 57 स्नातक या उससे ऊपर हैं। ये तमाम लोग मिलकर देश के नए कानूनों का ड्राफ्ट तैयार करने, उनमें संशोधन करने और उनपर संसद में बहस करने का काम करके कानून बनाने का काम करते हैं। इनके नीचे आईएएस और आईपीएस अधिकारी काम करते हैं, जबकि वो इनसे कहीं अधिक पढ़े लिखे होते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों के लिए वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के अनुसार उच्च शिक्षित होना आवश्यक नहीं है।
नीट एग्जाम में धांधली को लेकर पूरे देश में बवाल मचा हुआ है। कई छात्र फैल होने कारण सुसाइड कर चुके हैं। प्रकरण को लेकर पीड़ित सुप्रीम कोर्ट चले गए और उसके बाद सरकार कई पार्टीशिपेटर्स के एग्जाम दुबारा कराने का आश्वासन दिया है। पेपर लीक के मामले आए दिन नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। राजस्थान की पिछली कांग्रेस सरकार तो केवल इसी एक बड़े मुद्दे की वजह से सत्ता से बाहर हो गई कि उनकी कराई तमाम भर्ती परीक्षाओं के पेपर आउट हो गए। एक मोटे अनुमान के अनुसार अकेले राजस्थान में पांच साल के दौरान 14 भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हुए, जिसमें डेढ़ करोड़ अभ्यर्थी ठगे गए हैं। उससे पहले पांच साल में 12 भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हैं। यूपी में भी कई सरकारी भर्ती परीक्षाओं के पेपर आउट होने के कारण खूब पढ़े लिखे युवा खून के आंसू रो रहे हैं। आज ऐसी कोई परीक्षा नहीं है, जिसपर शक नहीं किया जाए। तमाम तकनीक के बाद भी ओफलाइन से लेकर ओनलाइन एग्जाम्स के पेपर लीक हो जाते हैं। पढ़ाई को लेकर इतना तनाव है कि बच्चे कैसे भी परीक्षा पास कर एक अदद सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं। स्कूल एजुकेशन, उसके साथ कोचिंग करके नौकरी की तैयारी बच्चों को मशीन बना देती है।
दिल्ली में मुखर्जी नगर से लेकर राजस्थान में कोटा और सीकर में कोचिंग माफिया के जाल में फंसे हुए हैं। लोग अपने बच्चों को सरकारी नौकरी की आस लिए इन कोचिंग में झोंक देते हैं, जहां पर सक्सेज नहीं होने पर हर साल दर्जनों बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं, उनके लिए किताबें पढ़कर पास करना और नौकरी करना ही जीवन का उद्देश्य बन जाता है। देश में हर साल लाखों बच्चे फैल होने या फैल होने के डर से सुसाइड कर रहे हैं। किसी को इंजिनियर बनना था, लेकिन एमबीबीएस की तैयारी में जुटा है, किसी को वकील बनना है, लेकिन आईएएस बनने के लिए दिनरात एक किए हुए है, किसी को चित्रकार बनना था, लेकिन इंजिनियर बनने की तैयारी कर रहा होता है। किसी को फोटोग्राफर बनना था, लेकिन उनको वकील बनाया जा रहा है। किसी को शिक्षक बनना था, लेकिन उससे यूपीएससी की तैयारी करवाई जा रही है। किसी को राजनेता बनने की चाहत है, लेकिन घरवालों के लिए उपरी मन से डॉक्टर बन गया है। ऐसे लाखों बच्चे हैं, जो अपने परिवार, समाज के दबाव में अपने सपनों और प्रतिभा का दमन कर देते हैं।
आपको पता है दुनिया का पहला आधुनिक स्कूल इंग्लैंड में 1811 में खुला था, किंतु आपको शायद पता नहीं कि उस समय अकेले भारत में 732000 गुरुकुल थे। अप्रैल 2022 तक भारत में लगभग 4 हजार गुरुकुल रह गए हैं। गुरुकुल में हजारों बच्चे अपनी बाल्यावस्था से युवावस्था तक चौबीसों घंटे गुरु के सानिध्य में रहकर संपूर्ण 64 विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। भारत में गुरुकुल शिक्षा को ईसा से 5000 वर्ष पूर्व माना जाता है, यानी आज से करीब 7000 वर्ष पहले शुरू हो गई थी। संपूर्ण गुरुकुल प्रणाली अनुभव शिक्षा पर आधारित होती है। खगोल विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, दर्शन शास्त्र, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, धर्म, योग, शारीरिक शिक्षा और रक्षा अध्ययन जैसे विषय पूरी तरह से प्रेक्टिकल पर आधारित थे। इन सभी विषयों की थ्योरीटिकल से अधिक इनके प्रेक्टिकल पर दिया जाता था। अध्ययन और प्रशिक्षण का औसत 20:80 का हुआ करता था। जो विषय पढ़ाया जाता था, उसका चार गुणा प्रेक्टिकल करवाया जाता था।
गुरुकुल एजुकेशन में बच्चे अपने घर से दूर गुरुकुल में रहते थे, जिससे बच्चों और गुरु के मध्य परस्पर पूर्ण विश्वास रहता था। बच्चे पूर्णता घर से दूर होने के कारण अपने गुरु की हर बात मानते थे। मुख्य विषयों के अतिरिक्त गुरुकुल में बच्चों को बुजुर्गों के प्रति सम्मान, सभ्यता—संस्कृति, शिष्टाचार का ज्ञान दिया जाता था। गुरुकुल का उद्देश्य बच्चे के भीतर छुपे हुए ज्ञान का विकास करना था। जहां उत्कृष्ट शिक्षा पर अधिक केंद्रित थे। गुरुकुल में विद्यार्थी विद्याध्ययन करते थे। तपोस्थली में सभा, सम्मेलन और प्रवचन होते थे, जबकि परिषद में विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। 24 घंटे गुरु के पास रहने वाला विद्यार्थी उनके कुल के सदस्य के समान ही रहता था और गुरु भी उससे पुत्रवत स्नेह करते थे।
गुरुकुल के बाद विवि.....
गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद विद्यार्थी उच्च शिक्षा और शौध कार्य हेतु विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेता था, जहां से आचार्य तैयार होते थे। ऐसा छात्र समाज को दिशा देने का काम करता था। इन्हीं छात्रों में से कोई राजा बनता था, कोई सेनापति, कोई शिक्षा शास्त्री, कोई विज्ञानवेत्ता, कोई धर्म शास्त्र का ज्ञाता होता था तो कोई भुगौलविद होता था। इन्हीं उच्च शिक्षण संस्थानों चाणक्य जैसे रणनीति के टॉप क्लास बुद्धिजीवी तैयार होकर राष्ट्र की सेवा में जुट जाते थे। भारत में मुगलों के आगमन से पहले उच्च शिक्षा के महान केंद्र थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय पाकिस्तान में इस्लामाबाद के पास स्थित था। इस विवि की स्थापना 7वीं सदी ईपूर्व में हुई थी, जो 460 ईसवी तक पूर्ण रूप में काम कर रहा था। इसी तरह से नालंदा विश्वविद्यालय था, जो पटना से 55 मील दक्षिण-पूर्व स्थित था। इसकी स्थापना 450 ईसवी पूर्व में हुई थी, जिसको 1193 इसवी में बख्तियार खिलजी नामक दरिंदे ने जलाकर नष्ट कर दिया था।
इस विवि में पुस्तकों का इतना विशाल भंडार था कि 11 महीने तक जलता रहा। इसी तरह से बिहार में ही उदांतपुरी विवि 550 ईपू से 1040 तक संचालित था। गुप्तकाल में शुरू हुआ अभी के बंग्लादेश में सोमपुरा हायर एजुकेशन सेंटर था, जो भारत में इस्लाम के आगमन तक सुचारू रुप से चल रहा था। जगददला विवि की स्थापना पश्चिम बंगाल में पाल राजाओं के समय हुई थी, जिसको अरबों ने नष्ट किया था। आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंडा बौद्ध पीठ थी। बिहार में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना 800 ईपू हुई थी, जिसको अरब आक्रांताओं ने 1040 में नष्ट कर दिया। गुजरात के वल्लभी, वाराणसी, कांचीपुरम, मणिखेत, शारदा पीठ और पुष्पगिरी जैसे दर्जनों हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूट थे। कालांतर में इनमें से कई काल की भेंट चढ़ गए। अधिकांश को अरब आक्रांताओं और मुगलों ने जलाकर नष्ट कर दिया। जब दुनिया में कहीं पर भी एजुकेशन इंस्टीट्यूट नहीं हुआ करते थे, तब भारत में दर्जनों यूनिवसिर्टीज अपनी फुल स्विंग में चल रही थीं।
कहां से आई वर्तमान शिक्षा व्यवस्था?....
मैकाले की शैक्षिक नीतियों को पहली बार 1835 में लागू किया गया था। उस समय मैकाले को भारत में नव स्थापित शिक्षा समिति के प्रमुख के रूप में नियुक्त कर भारत के लिए शिक्षा की एक नई प्रणाली तैयार करने का काम सौंपा गया था, जो सदियों से चली आ रही पारम्परिक शिक्षा प्रणाली को बदल सके। मैकाले ने भारत के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की और उसकी समिति ने ब्रिटिश राज को सिफारिश करी कि भारत में गुरुकुल बंद कर ब्रिटेन की तरह स्कूलें बनाई जाएं, जिनमें शिक्षा की भाषा अंग्रेजी होनी चाहिए और पाठ्यक्रम पूर्वी मूल्यों के बजाय पश्चिमी मूल्यों और विचारों पर आधारित होना चाहिए। इन सिफारिशों को लागू किया गया और अंग्रेजी जल्दी ही भारतीय स्कूलों में शिक्षा की प्रमुख भाषा बन गई। हालांकि, अभी अंग्रेजी शिक्षा केवल समृद्ध लोगों तक ही पहुंच पाई थी, लेकिन इसकी आड़ में गुरुकुल पूरी तरह से अवैध घोषित कर दिए गए।
2 फरवरी 1835 को लॉर्ड मैकाले ने अपना प्रसिद्ध reminder letter प्रस्तुत किया था। मैकाले ने इसके तहत 'अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत', यानी Downward Filtration Theory दी, जिसके तहत भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से शिक्षित करना था, ताकि एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो रंग और खून से तो भारतीय हो, लेकिन विचारों, नैतिकता तथा बुद्धिमत्ता में ब्रिटिश हो। मैकाले के सिद्धांत को सरकारी नीति का रूप प्रदान करने का मूल उद्देश्य प्रारम्भ में ऐसे व्यक्तियों को एजुकेशन देनी थी, जिनको शिक्षित करके उच्च पद देकर अंग्रेजी राज को मजबूती दी जाए। इसके लिए उच्च वर्ग की एजुकेशन ही उपयोगी हो सकती थी, लोक शिक्षा उनके किसी काम की नहीं थी। मैकाले ने ब्रिटिश हुकुमत को कहा था कि 'भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी, लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब हायर एजुकेशन लेकर यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो ब्रिटिशिर्स के लिए काम करेंगे।
मैकाले ने अपने specification sheet से ब्रिटिशर्स के वेस्टर्न कल्चर को भारत पर थोपना था, जिससे हम अपनी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को तिरस्कार की दृष्टि से देखें और हमें हीन भावना व्याप्त हो। मैकाले ने भारतीय भाषाओं को अविकसित और बेकार बताते हुए मजाक बनाया, परिणाम स्वरूप भारतीय भाषाओं का विकास पूरी तरह से रुक गया। मैकाले ने भारत के प्राचीन साहित्य की आलोचना करते हुए कहा था कि भारतीय संस्कृति और साहित्य की क्षमता यूरोप की किसी एक पुस्तकालय की एक अलमारी के बराबर है। यह मानकर मैकाले ने भारतीय संस्कृति तथा धर्म की महानता व सहिष्णुता का खुलकर अपमान किया है। मैकाले खुले तौर पर धार्मिक तटस्थता का दावा करता था, लेकिन उसकी आंतरिक नीति का खुलासा 1836 में अपने पिता को लिखे एक पत्र से होता है, जिसमें मैकाले ने लिखा, 'मेरा दृढ़ विश्वास है कि यदि हमारी शिक्षा की यह नीति सफल हो जाती है तो 30 वर्ष के अंदर बंगाल के उच्च घराने में एक भी मूर्तिपूजक नहीं बचेगा।' यानी वह भारत की शिक्षा के साथ यहां के मूल धर्म को भी समाप्त करना चाहता था, जिसमें बहुत हद तक सफल हो गया। एक बार आचार्य चाण्क्य ने कहा था, कि विदेशी आक्रांता भारत की सभ्यता—संस्कृति पर चोट करेंगे, उनको पता है कि जब तक कल्चर खत्म नहीं किया जाएगा, तब तक स्थाई तौर पर गुलाम नहीं बनाया जा सकता है, और मैकाले की सोच के अनुसार ब्रिटिशर्स ने भारत के कल्चर को खत्म करने के लिए स्कूल एजुकेशन शुरू की।
ऐसा नहीं है कि अंग्रेजी शिक्षा को श्रेष्ठ मानने का काम मैकाले या अंग्रेजों ने ही किया था। उस जमाने में मैकाले द्वारा जो शिक्षा प्रणाली लागू की गई, उसी एजुकेशन पॉलिस का असर है कि आज भारत में 'बेरोजगार काले अंग्रेज' पैदा हो रहे हैं। हमारा दुर्भाग्य देखिए, मैकाले की शिक्षा नीति को आगे बढ़ाते हुए राजस्थान के पूर्व सीएम अशोक गहलोत ने भी चार साल पहले हिंदी माध्यम विद्यालयों को नाम बदलकर इंग्लिश मीडियम करने का काम किया। आज प्रदेश के 4 हजार से अधिक सरकारी हिंदी विद्यालय स्कूल अंग्रेजी भाषा में चल रहे हैं, यानी हिंदी भाषा को समाप्त करने का षड्यंत्र आज सरकारी स्तर पर धडल्ले से किया जा रहा है। मैकाले की नीति से अंग्रेजों ने भारत की भाषा, शिक्षा, सभ्यता—संस्कृति को समाप्त करने का जो काम 1835 में शुरू किया था, उसी को 'इंग्लिश कुंठित' अशोक गहलोत जैसे लोग परवान चढ़ा रहे हैं।
इंग्लिश मीडियम स्कूलों के नाम पर मनमाफिक फीस वसूली जा रही है। आप लाखों रुपये सालाना खर्च कर अपने बच्चे का स्कूल में एडमिशन कराते हैं, फिर सबकुछ स्कूल पर छोड़ देते हैं। स्कूली शिक्षा में बच्चों को एक फिक्स सिलेबस पकड़ा दिया जाता है। ये ऐसा कोर्स शामिल होता है, जिससे बच्चे के व्यतित्व विकास में कोई योगदान नहीं होता है, बच्चों की प्रतिभा को पहचानकर उसी के अनुसार शिक्षा देने का कोई प्रावधान नहीं है। बच्चा जो किताबी कोर्स पहली कक्षा में शुरू करता है, उसी तरह से बिना प्रेक्टिकल के पीएचडी तक लेता है। इन 20—25 सालों में एक निश्चित कोर्स में पढ़ने को कहा जाता है। एग्जाम पास करने के लिए वह ऐसी किताबें रटता रहता है, जिनसे उनकी पर्सनलिटी डवलपमेंट बिलकुल भी नहीं होता। बीए, एमए करने के बाद छात्र को अचानक पता चलता है कि किताबों में भाषायी जानकारी के सिवाय असल जिंदगी में क्या होना चाहिए, इसकी एक प्रतिशत भी नॉलेज नहीं है। उसको परिवार के साथ बर्ताव, समाज के प्रति जिम्मेदारी, लोगों से व्यवहार, पर्सनलिटी डवलपमेंट के लिए नैतिक शिक्षा बिलकुल दूर रखा जाता है।
मोटी फीस देकर पढ़ाने वाले पैरेंट्स स्कूलों से कभी नहीं पूछते कि यहां पढ़ने के बाद बच्चा किस योग्य बनेगा? ना कभी बच्चों की पर्सनलिटी डवलपमेंट पर बात करते। क्योंकि पैरेंट्स को खुद पता नहीं है कि स्कूली शिक्षा से क्या लाभ होने वाला है। कोई मां—बाप अपने बच्चों को हिंदी माध्यम या सरकारी स्कूल में पढ़ाता है, तो उसको बेवकूफ, कम बुद्धि और गरीब साबित किया जाता है, उसको सोसाइटी में हैय दृष्टि से देखा जाता है। पैरेंट्स को लगता है कि बच्चा इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ जाएगा तो बहुत बड़ा आदमी बन जाएगा। स्कूल से लेकर विवि तक एजुकेशन का सारा सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि पहले 12वीं तक स्कूली एजुकेशन पूरी करे, उसके बाद भी यदि बच्चा पढ़ाई ही करता है तो तीन साल तक स्नातक शिक्षा करता है, तब तक भी कोई काम नहीं मिला है तो धक्के खाकर पीजी करने लगता है, फिर भी उसको कोई जॉब नहीं मिलती है तो पीएचडी करने लगता है।
इन 20—25 सालों में भी यदि उसे अपना बिजनेश, कहीं पर प्राइवेट नौकरी या काम धंधा नहीं मिला तो इसके बाद सरकारी नौकरी की तैयारी में लग जाता है। तब तक उसकी शादी हो चुकी होती है, बच्चे होने का प्रोसेज शुरू हो जाता है, लेकिन तब भी वह भटकता ही रहता है। और इस सबके पीछे है मैकाले द्वारा शुरू की गई हमारी घटिया एजुकेशन पॉलिसी। सारी डिग्रियां लेने के बाद युवक समाज में जाता है तो उसको रोजगार की कोई नॉलेज नहीं होती है। तब उसे पता चलता है कि इतने बरसों तक वह जो पढ़ रहा था, वह तो आम जीवन में किसी काम का था ही नहीं, केवल सरकारी नौकरी के लिए कोर्स था। अंतत: उसको बेहद कम पढ़े—लिखे योग्य व्यक्ति से हाथ के हुनर वाला काम सीखना पड़ता है। आज भारत की सरकारें, एमपी—एमएलए, नौकरशाह भी इसी तरह की एजुकेशन देना चाहते हैं, क्योंकि उनको इन पदों पर इसी अंग्रेजी मानसिकता वाली एजुकेशन ने पहुंचाया है।
एक सरकारी नौकर का अपना कोई दिमाग नहीं होता। उसके लिए पहले से बने कानून, नियम—कायदे ही सबकुछ होते हैं, उन्हीं के अनुसार वो काम करता है। सरकारी कार्यालय में अक्सर आपने देखा होगा कि अधिकारी नियमों का हवाला देकर काम नहीं करते हैं। उनको जनता के हित में काम करने का रास्ता निकालना आता ही नहीं है। आता भी है तो केवल भ्रष्टाचार करने के लिए, बाकी जनता के काम करने के लिए रास्ता बनाते अधिकारी नहीं मिलेंगे। जैसे एक चूहे को किसी प्लास्टिक पाइप में डाल दिया जाए तो वह कितना भी परेशान होता रहे, उसमें ही मीलों तक चलता जाएगा, क्योंकि उसको उससे बाहर निकलने का रास्ता पता ही नहीं है, जबकि चूहा चाहे तो पाइप को काटकर बाहर भी निकल सकता है।
20—25 साल एजुकेशन लेने के बाद सरकारी नौकर बना व्यक्ति उस घोड़े की तरह होता है, जिसकी आंखों के दोनों ओर बंधा पट्टा उसको साइड में और कुछ देखने नहीं देता, उसको केवल अपने मालिक के दिखाए रास्ते पर ही चलना होता है। सरकारी नौकर भी मालिक रुपी सरकार के बताए मार्ग पर ही चलता है, उसको समाज का नुकसान होने से कोई मतलब नहीं रहता। उसके अंदर मानवता मर चुकी होती है, व्यक्तिव विकास होता नहीं है। मॉर्डन एजुकेशन वाले सरकारी नौकर को अपनी नौकरी और परिवार ही पूरा ब्राह्मांड नजर आता है। किंतु यह उसका दोष नहीं होता है, बल्कि बीते 25 साल में उसने जो फिक्स कोर्स पढ़कर नौकरी पाई है, उसके कारण उसका मस्तिष्क विकसित ही नहीं हो पाता है। स्कूल—कॉलेजों में मोटी फीस के साथ डिग्रियां तो मिल रही हैं, लेकिन रोजगार वाली शिक्षा नहीं है, युवाओं की प्रतिभा को पहचानकर उसको विकसित करने की फुर्सत किसी को नहीं है। सरकारों के पास भी नहीं है तो सरकारों के लिए पॉलिसी बनाने वाली ब्यूरोक्रेसी भी अपनी सीमित सोच के कारण युवाओं की समस्या का स्थाई समाधान दे पा रहे हैं।
विवि से हायर एजुकेशन की डिग्री लेकर निकला युवा खुद को हाई एजुकेटेड तो समझने लगता है, लेकिन उसकी पर्सनलिटी में एक सभ्य व्यक्ति के साथ प्रतिभा की भारी कमी रह जाती है। ऐसा युवा अपने परिवार, समाज, देश के लिए पॉजिटिव सोच के साथ आगे बढ़ने के बजाए स्वार्थी बनकर रह जाता है। सरकारी नौकरी में जाकर अपना पेट पालने का काम ही कर पाता है। उसे अपनी शिक्षा में नौतिक मूल्यों की भारी कमी का सामना करना पड़ता है। लोगों के साथ व्यवहार करना नहीं आता। नौकरी में जाते ही भ्रष्टाचार को शिष्टाचार समझने लगता है। पैसे के पीछे भागता हुआ मानव मूल्यों को पूरी तरह से भूल जाता है। आप देखते होंगे मीडिया में अक्सर ऐसी खबरें प्रमुखता से दिखाई जाती हैं, जिसमें यदि कोई व्यक्ति पेड़—पौधों या जीव—जंतु के प्रति प्रेम करता देखा जाता है। इसका मतलब है कि समाज में यह भावना आम बात नहीं है, जो बच्चा स्कूलों—कॉलेजों से हायर एजुकेशन लेकर निकल रहा है, उसको देश, समाज, जीव जंतुओं के प्रति मानवीय जिम्मेदारी का पता ही नहीं है।
भारत सरकार ने 2020 में न्यू एजुकेशन पॉलिसी बनाई थी, जिसको अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है। कहा गया कि इसको बहुत रिसर्च और लाखों लोगों के सुझाव के बाद बनाया गया है, किंतु वास्तव में देखा जाए तो न्यू एजुकेशन पॉलिसी में भी लॉर्ड मैकाले की एजुकेशन पॉलिसी को ही मॉडिफाई किया गया है, उसमें अब भी भारत की रिक्वायरमेंट, यहां के कल्चर, महान विरासत की बहुत भारी कमी है। जब तक भारत की ग्रेट हिस्ट्री, समृद्ध विरासत, यहां की जरूरतों, विशाल पॉपुलेशन, भौगोलिक परिदृश्य और स्थानीय लोगों के विचार जैसी चीजों को शामिल नहीं किया जाएगा, तब तक लॉर्ड मैकाले की बनाई इस इंग्लिश एजुकेशन सिस्टम से डिग्री लेकर निकला हुआ युवा अपने 25 साल बर्बाद करने के बाद भी सरकारी नौकरी के पीछे ही भागता दिखाई देगा। ऐसा युवा परिवार, समाज या देश का भला करने की सोचने वाला हो ही नहीं सकता।
असल में होना यह चाहिए कि बच्चों को गुरुकुल प्रणाली से एजुकेशन मिलनी चाहिए। गुरुकुल में 8 से 10 के बच्चे को ही प्रवेश दिया जाता था। उससे पहले उसको अपने परिवार में खेलने—कूदने दिया जाता था, ताकि उसका बिना किसी प्रेशर के मानसिक विकास हो सके। उसके बाद उसको खेलकुद के साथ अध्ययन करवाया जाता था। गुरुकुल में ही रहना, अध्ययन करना, प्रशिक्षण प्राप्त करना होता था। गुरू के पास उतने ही बच्चे होते थे, जिनको एक एक कर संभाला और ठीक से एजुकेटेड किया जा सके। इसलिए गुरू को एक एक बच्चे की प्रतिभा पता चल जाती थी और उसी के अनुरुप बच्चों को शिक्षा दी जाती थी। जो बच्चा युद्ध कला में पारंगत होता था, उसको सेना के लिए प्रशिक्षित किया जाता था, जो विज्ञान में रुचि रखता था, उसे वैज्ञानिक बनाया जाता था, जो धर्म में ध्यान लगाता था, उसे धर्म शास्त्र में पारंगत किया जाता था। बच्चे की रुचि और नैसर्गिक प्रतिभा को निखारकर गणित, भूगौल, रसायत शास्त्र, जीव विज्ञान, भौतिक शास्त्र, वास्तु शास्त्र जैसे विषयों में विशेषज्ञ बनाया जाता था।
सभी विषयों में भौतिक प्रशिक्षण के लिए गुरुकुल में ही सुविधा होती थी, पुस्तक ज्ञान पर कम से कम ध्यान दिया जाता था, उसकी जगह प्रेक्टिल वर्क पर फोकस था, जिससे एजुकेशन के साथ सब्जेक्ट का स्पेशलिस्ट बनाया जाता था। आज स्कूलों में विज्ञान जैसे सब्जेक्ट के लिए प्रेक्टिल लेब तक नहीं होती, बाकी विषयों के लिए भूल ही जाइए। पीएचडी करने के लिए युवा कॉपी पेस्ट का इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि अपनी थिसिस ही दूसरों से पैसे देकर लिखवाई जाती है। ऐसी एजुकेशन किस काम की, जिसमें डिग्री प्राप्त करने वाला रोजगार परक विषय का अध्ययन ही नहीं करता हो। कल्पना कीजिए एक मैकेनिकल इंजिनियर ने कभी किसी गाड़ी को हाथ ही नहीं लगाया हो, किसी डॉक्टर ने मरीज को देखा ही नहीं हो, किसी वकील को किताबी शिक्षा देकर कोर्ट भेजेंगे तो क्या होगा?
ठीक इसी तरह से हमारे देश का आईएएस किसी भी विषय में परफैक्ट नहीं होता, लेकिन उसको हर सब्जेक्ट स्पेशलिस्ट के उपर थोप दिया जाता है। डॉक्टर, इंजिनियर, एडवोकेट सहित तमाम विषय विशेषज्ञों के उपर एक आईएएस अधिकारी को लगा दिया जाता है। जिन विषयों के बारे में ठीक से जानता नहीं, उसको अधिकारी बनाकर स्पेशलिस्ट के माथे पर बिठा दिया जाता है। एक आईपीएस अधिकारी यूपीएससी क्लियर करने के बाद पुलिस और कानून को समझने के लिए ट्रेनिंग लेता है। क्यों नहीं पुलिस सेवा में जाने के इच्छुक यूथ को स्कूलिंग के बाद सीधे ही कानून की पढ़ाई कराई जाए, उसे थानों में प्रशिक्षण दिया जाए, क्रिमिनल्स का माइंड समझने का समय दिया जाए और समाज में घट रही घटनाओं पर उससे गहन रिसर्च करवाया जाए।
ये तमाम तंत्र लॉर्ड मैकाले के एजुकेशन सिस्टम के द्वारा खड़ा किया गया है। 1835 में ब्रिटिशर्स ने जो एजुकेशन पॉलिसी लागू की थी, देश के आजाद होने के बाद उसमें ही थोड़ा बदलाव किया गया, लेकिन उसको पूरी तरह से खत्म नहीं किया गया, जिसके कारण आज भी हमारी एजुकेशन पॉलिसी की जड़ में मैकाले बैठा है। यह बेरोजगार डिग्रीधारी यूथ तैयार करती है, जिनको 25 साल की किताबी पढ़ाई पर लाखों रुपये खर्च कर विवि से डिग्री लेने के बाद सरकारी नौकरी चाहिए, वो भी किसी सब्जेक्ट की स्पेशल योग्यता के बिना। इस सिस्टम में उपर बैठे कुछ लोग अपने लिए नौकर तैयार करते हैं, जो खुद का दिमाग इस्तेमाल नहीं करें, उनको कुछ पैसे मिलते रहें, ताकि अपना परिवार चला सकें, बाकी इससे आगे नहीं सोच पाएं।
मैं नहीं कहता कि जंगल में पेड़ों के नीचे चलने वाले गुरुकुल हों, उसमें समय के साथ तकनीकी सुधार किए जा सकते हैं, नई टैक्निक को जोड़ा जा सकता है, भव्य भवन बनाए जा सकते हैं, प्रेक्टिकल के लिए अत्याधुनिक उपकरण काम लिए जा सकते हैं, कम्प्यूटर शिक्षा और एआई का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन जो वर्तमान एजुकेशन सिस्टम चल रहा है, उससे तो 'शिक्षित बेरोजगार' ही पैदा होते हैं, सरकारी नौकर ही तैयार होते हैं, जो अपने अपने विकास के लिए दिमाग का इस्तेमाल कर ही नहीं पाएंगे। उनको न समाज की जिम्मेदारी से मतलब है, न देश के हित का ध्यान है। इसलिए आप अपना दिमाग इस्तेमाल कीजिए। आज एक फर्स्ट ग्रेड टीचर से अधिक फ्रिज, एसी ठीक करने वाला मैकेनिक कमा लेता है जो अपनी मर्जी का मालिक है। उसको किसी समय में पाबंध नहीं किया जाता है, वो अपनी मर्जी से काम करता है।
सोने का काम करने वाला हाथ का कारीगर घर बैठे लाखों रुपये महिना कमाता है, कपड़े का कारोबारी अपनी मर्जी से दुकान चलाता है, लेकिन बड़े—बड़े अधिकारियों से ज्यादा पैसा कमा रहा है। आप अपने बच्चों को एजुकेशन जरूर दिलाएं, लेकिन नौकरी करने के लिए नहीं, बल्कि उसको योग्य नागरिक बनाने के लिए, उसकी प्रतिभा खोजकर उसका स्पेशलिस्ट बनाने के लिए। मैकाले की शिक्षा का ही कमाल था, जो मुट्टीभर अंग्रेज भारत आए थे, लेकिन यहां के हजारों लोगों को नौकर बनाकर करोड़ों लोगों पर करीब 200 साल राज किया और भारत का लूट ले गए। यदि आप अपने बच्चों को मॉर्डन एजुकेशन के भरोसे बेहतर नागरिक बनाने का सपना देख रहे हैं, तो अपनी संतान को 'काले अंग्रेजों' का नौकर बनाने की तैयारी ही कर रहे हैं।
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