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अब फिर चलेगा पायलट-बेनीवाल का जादू



लोकसभा की 25 में से 11 सीट जीतने के बाद इंडिया अलाइंस और कांग्रेस बेहद खुश है। भाजपा 10 साल में पहली बार इतनी कम सीटें जीत पाई है। 11 में से पांच सीट सचिन पायलट और 5 सीट गोविंद डोटासरा के खाते में गई हैं। एक सीट पर अलाइंस के कारण भारत आदिवासी पार्टी भारी पड़ी है। इन 11 में से पांच सीटों पर वर्तमान विधायकों ने चुनाव लड़ा था, जिसके कारण अब ये पांच विधानसभा सीटें खाली हो गई हैं। लालसोट, देवली उनियारा, चौरासी, खींवसर और झुंझुनूं सीट पर अगले 6 महीने में उपचुनाव कराना होगा। लालसोट, देवली उनिया और झुंझुनूं सीटें पायलट समर्थक विधायकों की हैं, जहां पर टिकट से लेकर जिताने तक का जिम्मा पायलट का पास ही रहेगा। खींवसर सीट पर एक बार फिर हनुमान बेनीवाल की चलेगी। किसे टिकट देना है और किसे जिताना है, इसका फैसला बेनीवाल ही करेंगे। ठीक इसी तरह से चौरासी में सांसद बन चुके राजकुमार रोत फैसला करेंगे, जहां पर कांग्रेस गठबंधन के तहत सीट मांग सकती है, लेकिन भारत आदिवासी पार्टी किसी भी सूरत में सीट नहीं छोड़ेगी। इस वीडियो में पांचों सीटों पर टिकट से लेकर जीत हार की संभावना और किस नेता की कितनी चलने वाली है, इसको जेकर भी विस्तार से बात करुंगा।

सबसे पहले झुंझुनूं सीट की बात की जाए तो यहां पर बृजेंद्र ओला लगातार चार बार से विधायक हैं। उनके पिता शीशराम ओला के समय से ही बृजेंद्र ओला जीतते रहे हैं। इस सीट पर ओला परिवार का खास दबदबा है। भले ही बृजेंद्र ओला 72 साल के हो गए हों, लेकिन आज दिन तक उनको यहां से जीतने में कभी जोर नहीं आया। उनको पहली बार लोकसभा चुनाव में टक्कर मिली है। सचिन पायलट करीबी नेताओं में बृजेंद्र ओला भी एक हैं। बगावत से लेकर सरकार में मंत्री बनने और बाद चुनाव के दौरान भी पायलट और ओला साथ रहे हैं। लोकसभा में उन्होंने शुभकरण चौधरी को 18235 मतो से हराया। उससे पहले 2008 से अब तक लगातार विधायक रहे हैं। पिछला विधानसभा चुनाव उन्होंने 28000 मतों से जीता था। इस तरह से झुंझुूनूं में देखा जाए तो ओला परिवार की राजनीति बहुत हावी है। अब यहां पर कांग्रेस जिसको भी टिकट देगी, उसको बृजेंद्र ओला के कहने पर ही दिया जाएगा। जो भी उम्मीदवार होगा, वो ओला के चाहने पर ही जीत पाएगा। कांग्रेस के कई दावेदार अपनी संभावनाएं तलाशने लगे हैं, जबकि भाजपा के प्रत्याशी रहे निशित कुमार फिर से टिकट लेना चाहेंगे।

दूसरी सीट खींवसर है, जहां पर हनुमान बेनीवाल विधायक हैं। उन्होंने नागौर लोकसभा का चुनाव 42220 वोटों से जीत लिया है। इस कारण खींवसर फिर से सीट रिक्त हो गई है। ठीक इसी तरह से 2019 में भी खींवसर सीट खाली हो गई थी, जिसके बाद भाजपा के साथ मिलकर बेनीवाल ने अपने भाई नारायण बेनीवाल को टिकट दिया था, उन्होंने 4530 वोट से जीत हासिल की थी। इस बार भी यहां पर बेनीवाल की ही चलने वाली है। हालांकि, पिछला चुनाव उन्होंने करीब 2 हजार वोटों से जीता था, इसलिए भाजपा यहां जीत की संभावना तलाशेगी, लेकिन यह तय है कि देश—प्रदेश में भाजपा की सत्ता होने के कारण उपचुनाव में तो विपक्ष को ही फायदा होगा। वैसे भी पिछले 10 साल का अनुभव देखें तो पाएंगे कि भाजपा मुख्य चुनाव में भले अच्छा प्रदर्शन करती हो, लेकिन उपचुनाव में सामान्यत: कांग्रेस ही जीतती है। खींवसर में टिकट और जीत हार का जिम्मा हनुमान बेनीवाल के पास ही होगा। देखना यह होगा कि वो एक बार फिर से अपने भाई नारायण बेनीवाल को चुनाव लड़ाते हैं, या अपनी पत्नी कनिका बेनीवाल को मैदान में उतारते हैं। इंडिया अलाइंस का हिस्सा हनुमान को पहली दो बैठकों में दिल्ली बुलाया ही नहीं गया, जिसके कारण बेनीवाल खासे नाराज हैं, हालांकि, उन्होंने भाजपा के साथ जाने से इनकार कर दिया है, लेकिन फिर भी कांग्रेस को सपोर्ट करना काफी कठिन है। फिर भी यदि कांग्रेस के साथ अलाइंस रहा तो हनुमान के लिए खींवसर फिर से जीतना कठिन काम नहीं है।

तीसरी सीट दौसा है, जहां से विधायक मुरारीलाल मीणा दौसा लोकसभा सीट पर 2.37 लाख वोटों से सांसद चुने जा चुके हैं। इसलिए रिक्त हुई दौसा विधानसभा सीट पर उम्मीदवार कौन होगा, इसका निर्णय सचिन पायलट और मुरारीलाल मीणा को ही करना है। टिकट के बाद जिताने की गांरटी भी इन दोनों की ही रहेगी। आपको याद होगा जब लोकसभा का टिकट मिला था, तब मुरारीलाल के मंच से नरेश मीणा ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए पायलट को भी भला बुरा कहा था। बाद में पायलट नरेश मीणा को बुलाया और समझाया, तब जाकर उन्होंने मुरारीलाल का साथ दिया था। नरेश मीणा के करीबियों का कहना है कि सचिन पायलट ने लोकसभा चुनाव में मुरारीलाल का साथ देने पर विधानसभा उपचुनाव में टिकट आश्चवासन दिया है। अब यदि यह बात सच निकली तो नरेश मीणा को टिकट मिलना पक्का है और टिकट मिलने पर पायलट के मैदान में उतरने पर जीत की भी गारंटी है। इस क्षेत्र के जातिगत समीकरण भी इसी तरफ इशारा करता है कि कांग्रेस जिसको भी टिकट देगी, वो पायलट के कंधों पर सवार होकर उपचुनाव आसानी से जीत जाएगा।

पायलट के ही एक और करीबी हरीश मीणा भी टोंक—सवाईमाधोपुर लोकसभा सीट पर 64949 वोट से जीतकर सांसद चुने जा चुके हैं। ऐसे में उनकी देवली—उनियारा सीट पर भी उपचुनाव होगा। इस सीट पर गुर्जर—मीणा समाज का बाहुल्य है। इसलिए यहां पर भी पायलट और हरीश मीणा ही उम्मीदवार तय करेंगे। हालांकि, भाजपा ने विधानसभा में विजय बैंसला को लड़ाया था, लेकिन आरएलपी के विक्रम गुर्जर के चुनाव मैदान में होने से बैंसला हार गए थे। बीच में यह भी चर्चा चली थी कि विजय बैंसला ने सुखबीन जौनपुरिया को जिताने में साथ नहीं दिया। समीकरण यह था कि यदि हरीश मीणा जीतते हैं तो देवली उनियारा सीट खाली हो जाएगी और यहां उपचुनाव होगा, जिसमें विजय बैंसला को चुनाव लड़ने का अवसर मिलेगीा, इसलिए हरीश मीणा और विजय बैंसला के बीच पैक्ट हो गया था। अब यदि यह बात सही है कि भाजपा किसी दूसरे उम्मीदवार को मौका दे सकती है। ऐसा हुआ तो फिर पायलट और हरीश मीणा का समीकरण भी बदल सकता है। हालांकि, इसकी संभावना बेहद कम होने के कारण देवली उनियारा सीट कांग्रेस के लिए मुफीद लग रही है।

पांचवी सीट बांसवाड़ा की चौरासी है, जहां से विधायक राजकुमार रोत थे, लेकिन उन्होंने हालिया लोकसभा का चुनाव इसी बांसवाड़ा सीट पर राजकुमार रोत 2.47 लाख वोटों से जीत चुके हैं। माना जाता है कि इस क्षेत्र में भारत आदिवासी पार्टी ने बहुत होल्ड कर लिया है। आदिवासियों के हितों में काम करने का वादा कर यह पार्टी यहां के आदिवासी समाज को अपने पक्ष में कर चुकी है। इस वजह से आज इस पार्टी के पास दो विधायक और एक सांसद हो चुका है। चुनाव जीतने के बाद राजकुमार रोत ने एक बार फिर से भील प्रदेश की मांग की है। चौरासी सीट से राजकुमार रोत दो बार जीत चुके हैं, जबकि कांग्रेस ने यहां पूरी तरह से भारत आदिवासी पार्टी के आगे सरेंडर करके गठबंधन किया था। अब चौरासी सीट भारत आदिवासी पार्टी छोड़ना नहीं चाहेगी। इसलिए इस सीट पर एक बार फिर से बाप का उम्मीदवार उतरना तय है। जिस तरह के समीकरण बन रहे हैं और कांग्रेस ने बाप को समर्थन दे रखा है, उसके हिसाब से कांग्रेस एक बार फिर से चौरासी में बाप के प्रत्याशी को समर्थन करेगी, जिससे भाजपा के सामने कठिनाई खड़ी होगी। ऐसे में यह सीट भी भाजपा को मिलने की संभावना नहीं के बराबर है।

बीते दस साल का इतिहास को देखें तो पाएंगे कि चाहे सत्ता में भाजपा रही हो या कांग्रेस, उपचुनाव में कांग्रेस का पलड़ा ही भारी रहता है। हाल ही में सोशल मीडिया पर राजस्थान की भाजपा सरकार के खिलाफ गुस्सा देखने को मिला है, यही यही ट्रेंड चलता रहा तो 6 महीने में होने वाले उपचुनाव में भाजपा को सभी 5 सीटें गंवानी पड़ सकती हैं। हालांकि, अभी भी ये सीटें भाजपा के पास नहीं हैं। आने वाले 4—5 महीने न केवल सरकार के कामकाज के आधार पर देखे जाएंगे, बल्कि विपक्ष किस तरह का बर्ताव करता है, इसको भी जतना बारीकी से देखने वाली है। उसी के आधार पर उपचुनाव में वोट किए जाएंगे और परिणाम आएगा। 

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