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पायलट या डोटासरा, कौन होगा कांग्रेस का बॉस?



कांग्रेस पार्टी ने देश में दस साल बाद नेता विपक्ष का दर्जा पाने जितनी सीटें हासिल कर ली हैं। राहुल गांधी की लीडरशिप में 2014 और 2019 में 52 सीटों से उपर नहीं जाने वाली कांग्रेस मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष होते 99 सीटों पर पहुंच गई। किसी भी सदन में नेता विपक्ष का पद पाने के लिए विपक्ष के पास कुल सदस्यों का कम से कम 10 फीसदी सदस्या संख्या होने चाहिए। कांग्रेस केवल लोकसभा में ही बिना नेता विपक्ष नहीं थी, बल्कि 2013 में जब अशोक गहलोत की लीडरशिप थी, तब राजस्थान विधानसभा के चुनाव हुए, तब 21 सीटों पर सिमटकर नेता विपक्ष का पद गंवाते—गंवाते बची थी। 

उसके बाद जनवरी 2014 में सचिन पायलट को अध्यक्ष बनाया गया, तो पांच साल बाद पार्टी सत्ता में आ गई। पांच साल गहलोत और पायलट के बीच युद्ध चलता रहा, तीन टांग पर कांग्रेस की सरकार चलती रही। पायलट ने बगावत की, और उनको बदनाम करने के लिए पूरी गहलोत सरकार ने जान की बाजी लगा दी, लेकिन सरकार के पांच साल होते—होते कांग्रेस आलाकमान को समझ आ गई कि पार्टी में असली गद्दार तो अशोक गहलोत ही हैं, जिन्होंने 25 सितंबर 2022 को सोनिया गांधी से भी बगावत कर दी थी। 

उस 25 सितंबर को सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को राजस्थान भेजा था। वो चाहती थीं कि चुनाव में करीब एक साल बाकी रहा है और अशोक गहलोत के सीएम रहते कांग्रेस के सर्वे में सरकार रिपीट नहीं हो रही थी। इसलिए सोनिया गांधी ने प्रोपर प्रोसेज अपनाते हुए सचिन पायलट को सीएम बनाने का रास्ता अपनाया। तब लगा कि सीएम का चेहरा बदल जाएगा, लेकिन इसकी भनक अशोक गहलोत को लग गई। 

उसके बाद गहलोत अपने खास मंत्रियों को मोर्चा देकर खुद जैसलमेर करणी माता के दर्शन करने चले गए। पीछे से शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौड़ ने पार्टी के 92 विधायकों से गहलोत के पक्ष में इस्तीफे ले लिए। देर रात तक ड्रामा चला और बिना विधायक दल की बैठक आहूत किए ही सोनिया गांधी के दोनों दूत वापस दिल्ली लौट गए। असल में सोनिया चाहती थीं कि पायलट को राजस्थान का सीएम बना दिया जाए और गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष। किंतु गहलोत को यह मंजूर नहीं था। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस में गुटबाजी खत्म नहीं हुई और अंतत: दिसंबर 2023 को कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गई। 

उससे पहले जुलाई 2020 में जब पायलट खेमे ने गहलोत की सरकार से बगावत की थी, तब गहलोत के कहने पर ही गोविंद सिंह डोटासरा को पीसीसी अध्यक्ष बनाया गया था, जो आज दिन तक अध्यक्ष हैं। पायलट और डोटासरा के कारण विधानसभा चुनाव में पार्टी की उतनी बुरी हार तो नहीं हुई, जितनी गहलोत के कुशासन के कारण मानी जा रही थी, लेकिन पार्टी सत्ता से बाहर जरूर हो गई। 

इसके पांच महीने बाद लोकसभा चुनाव हुए, जिसमें पार्टी ने 22 जगह अपने उम्मीदवार उतारे। इनमें से तीन या चार प्रत्याशी गहलोत के कहने से उतारे गए थे, बाकी पायलट और डोटासरा के कहने से टिकट दिए गए। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस को 10 साल बाद 8 सीटों पर जीत मिल गई। कांग्रेस ने तीन सीटें अलाइंस के लिए छोड़ी, जो भी जीत गई। राम मंदिर, धारा 370 और मोदी लहर के बावजूद भाजपा केवल 14 सीटों पर सिमट गई। 

इस परिणाम ने कई सीमाएं तय कर दीं। पहली तो यह कि अब अशोक गहलोत बीते जमाने की बात हो चुके हैं। दूसरी बात यह है कि उनकी जगह पायलट के ​सामने डोटासरा नई चुनौती बनकर सामने आए हैं। तीसरी बात यह कि जिस तरह से प्रदेश स्तर की राजनीति सचिन पायलट करते हैं, उनके मुकाबले में कांग्रेस का दूसरा कोई नेता नहीं है। 

अशोक गहलोत अब राजनीति के लिहाज से बूढ़े हो चुके हैं। 25 सितंबर 2022 की घटना के बाद उनके उपर खुद गांधी परिवार को ही भरोसा नहीं है। उनमें जननेता का गुण तो पहले भी नहीं था, न ही जननायक जैसी कोई बात थी, बल्कि 2018 से पहले तक उनके खास लोगों द्वारा मीडिया के माध्यम से प्रचारित करवाया गया था। अब सबको समझ आ चुकी है कि गहलोत कोई गांधीवादी नहीं हैं, बल्कि गांधीवाद के भेष में मौकापरस्त नेता हैं, जो जरूरत पड़ने पर असभ्य भाषा का प्रयोग करने से भी नहीं चूकता है। 

ऐसे में साढ़े चार साल बाद जब विधानसभा चुनाव होंगे तब के लिए अशोक गहलोत आज ही सीएम पद की रेस से पूरी तरह से बाहर हो चुके हैं। दूसरा नाम उनके ही द्वारा आगे बढ़ाए गए गोविंद सिंह डोटासरा का है, जो इस लोकसभा चुनाव में सीकर सीट पर अपने करीबी कॉमरेड को सपोर्ट कर जिताने का दावा करते हैं। आपने देखा होगा डोटासरा जब विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रहे थे, तब भी और जब पिछले दिनों लोकसभा चुनाव का प्रचार कर रहे थे, तब भी शेखावाटी भाषा में ही भाषण दे रहे थे। 

उनका समर्थक भी यही चाहता है कि डोटासरा का जो रंग है, वही जारी रहे। स्थानीय बोली में भाषण देने का फायदा यह होता है कि स्थानीय लोग अपने नेता को ज्यादा करीब मानते हैं। इसके कारण स्थानीय स्तर पर ऐसे नेता की फैन फॉलोइंग बढ़ती है। किंतु इसके साथ ही इस तरह के बर्ताव से नुकसान भी होता है। स्थानीय बोली भाषा में भाषण देने वाला नेता अपने लोगों के साथ तो अधिक मजबूती से जुड़ता है, लेकिन अन्य लोगों से कनेक्ट नहीं हो पाता है। यही बात डोटासरा के लिए नैगेटिव साबित होती है। 

हेमराम चौधरी और हरीश चौधरी ने भी बाड़मेर सीट जीतने में पूरी रणनीति से काम किया, लेकिन हेमाराम चौधरी जहां उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं, तो हरीश चौधरी एक सीट तक सिमटे हुए हैं। वैसे भी ये दोनों नेता आज सचिन पायलट के खेमे में रहकर खुश हैं, इनको अलग से कोई चाहत बची भी नहीं है। ऐसे में सचिन पायलट को लेकर बात हो रही है। पायलट की ताकत यह है कि वो पूरे प्रदेश में एक तरह का होल्ड रखते हैं। 

उनके नाम से राजस्थान के पूर्व, पश्चिमी, उत्तर, दक्षिण में बराबर भीड़ जुट जाती है। हिंदी में धारा प्रवाह बोलने के कारण युवाओं को बेहद पसंद आते हैं। यहां तक कि विपक्षी दल भाजपा के नेता भी उनको कभी टारगेट नहीं करते, क्योंकि पायलट खुद कभी किसी नेता पर व्यक्तिगत हमला नहीं करते। मुद्दों पर बोलते हैं, जनता से जुड़े विषयों पर सरकार को निशाने पर लेते हैं, इसके कारण कोई नेता उनका व्यक्तिगत दुश्मन नहीं है। सत्ता में बने रहने के लिए अशोक गहलोत ने जितना पायलट को टारगेट किया, उतना ही समर्थन उनको राज्य में मिलता गया। 

जब कोई नेता सत्तापक्ष में होता है, तब उसकी फैन फॉलोइंस में गिरावट आती है, लेकिन ईमानदारी से कहा जाए तो सचिन पायलट की कांग्रेस की सरकार रहते हुए भी समर्थकों की संख्या बढ़ी है, जबकि जनवरी 2014 में उनको पहली बार राजस्थान कांग्रेस की कमान दी गई थी। पायलट 6 साल तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और डेढ साल तक डिप्टी सीएम, ठीक इसी तरह से डोटासरा को भी अब अध्यक्ष पद पर करीब चार साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन फिर भी डोटासरा का कद उतना नहीं बढ़ा है, जितना पायलट का बढ़ा था। 

आज डोटासरा पीसीसी चीफ हैं, तो पायलट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। ऐसे में दोनों का अपना—अपना कद है, लेकिन जन समर्थन, विधायकों की संख्या, प्रभावशाली भाषण शैली, जनता में आकर्षण जैसे मामलों में पायलट डोटासरा पर भारी पड़ते हैं। दोनों का पास चार साल का समय है, जिसमें दोनों खुद को साबित करने का प्रयास करेंगे। गहलोत के साइडलाइन होने के कारण दोनों नेताओं में 2028 के लिए अभी से अंदरखाने गुटबाजी शुरू हो चुकी है। 

डोटासरा जहां बचे हुए चार साल भी अध्यक्ष बने रहना चाहते हैं तो पायलट का मानस इस पद पर अपने किसी खास विधायक को बिठाने का है। इसके लिए प्रदेश से लेकर आलाकमाकन तक जोड़तोड़ की राजनीति शुरू होने वाली है। इस बार गहलोत खुद आगे नहीं आएंगे, बल्कि डोटासरा को आगे करके पायलट को निपटाने की योजना बनाएंगे। ऐसे में करीब साढ़े चार साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में सचिन पायलट और गोविंद सिंह डोटासरा के बीच सीएम पद को लेकर टक्कर देखने को मिलनी तय है। 

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