मिर्धा के ड्राइवर ने बदल दी राजस्थान की राजनीति.... Mirdha in BJP



लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने भाजपा ज्वाइन कर ली। इनमें पूर्व केंद्रीय मंत्रियों से लेकर प्रधान और जिला परिषद सदस्य जैसे नेता शामिल हैं। भाजपा ने बताया है कि कांग्रेस के 1370 नेताओं ने एक साथ भाजपा ज्वाइन की है। इनमें अधिकसंख्य नेता जाट समाज से आने वाले हैं, जो पूर्व मंत्री और पूर्व विधायक भी हैं। कभी राजस्थान में कांग्रेस की धुरी रहे मिर्धा परिवार के अधिकांश सदस्य भाजपा में शामिल हो गए हैं। 

ज्योति मिर्धा ने विधानसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ज्वाइन कर ली थी, उनको भाजपा ने नागौर सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन वो हार गई थीं। अब उनको भाजपा ने ज्योति मिर्धा को नागौर लोकसभा का टिकट दे दिया है। इससे पहले ज्योति 2014 और 2019 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन चुनाव हार गई थीं। लगातार दो चुनाव हारने से पहले ज्योति मिर्धा 2009 में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत चुकी थीं।

अब ज्योति मिर्धा के काका रिछपाल मिर्धा और उनके बेटे विजयपाल मिर्धा भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। दोनों ही पूर्व विधायक हैं। विजयपाल मिर्धा दिसंबर के विधानसभा चुनाव में डेगाना से चुनाव हार गए थे। पिछली सरकार में रिछपाल मिर्धा नवगठित वीर तेजाजी बोर्ड के अध्यक्ष हुआ करते थे। 

बड़े नामों में पूर्व केंद्रीय और राजस्थान के मंत्री रहे लालचंद कटारिया भी हैं, तो गहलोत सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र यादव भी हैं। ठीक इसी तरह से पूर्व विधायक आलोक बेनीवाल, खिलाड़ीलाल बैरवा और भीलवाड़ा के कांग्रेस नेता रामपाल शर्मा शामिल हैं। ये सभी वो नेता हैं, जिनके भाजपा में शामिल होने की पूरी पटकथा लालचंद कटारिया के बंगले में लिखी गई थी।

लालचंद कटारिया ने अपने मित्रों, रिश्तेदारों और गहलोत सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे 7 नेताओं को भाजपा में शामिल होने के लिए राजी किया। भाजपा ज्वाइन करने वाला हर नेता पूर्ववर्ती गहलोत सरकार से किसी न किसी बात को लेकर नाराज था। यही कारण है कि नाराज नेताओं के लिए लालचंद कटारिया का बंगला दल—बदल की पटकथा लिखने वाला अड्डा बन गया था। यहीं से सभी नेताओं को मनाया गया, उनको आश्वासन दिया गया और भविष्य में मिलने वाली संभावित जिम्मेदारियों के लिए भी तैयार किया गया। हालांकि, दिल्ली भाजपा से इसको लेकर तमाम तरह की मध्यस्थता ज्योति मिर्धा द्वारा की गई थी। कहा जाता है कि ज्योति मिर्धा ने जब भाजपा ज्वाइन की थी, तभी इनमें से कई नेताओं के शामिल होने की चर्चा थी, लेकिन एनवक्त पर गहलोत को पता चलने और उनके द्वारा सरकार रिपीट होने का वादा करने का आश्वासन देने के कारण घटनाक्रम टाल दिया गया था। 

अब सवाल यह उठता है कि बरसों से कांग्रेस में अपनी अपनी जगह धुरी रहे ये नेता भाजपा में शामिल होने को मजबूर क्यों हुए? असल बात यह है कि नेताओं के अब कोई सिद्धांत नहीं रह गए हैं, जिनको जहां पर सत्ता का सुख भोगने का अवसर मिलता है, वो वहीं चला जाता है। राजस्थान में जहां कांग्रेस वालों ने भाजपा ज्वाइन की है, वहीं हरियाणा में भाजपा चुनाव समिति के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री बिरेंद्र सिंह के बेटे और भाजपा सांसद बृजेंद्र सिंह ने कांग्रेस ज्वाइन की है। ऐसे ही मध्य प्रदेश में भाजपा नेता सुरेश पचोरी ने कांग्रेस ज्वाइन की है। हालांकि, बीते 10 साल में कांग्रेस और दूसरे दलों ने सर्वाधिक नेताओं ने भाजपा ज्वाइन की है। 

राजस्थान में लालचंद कटारिया कृषि मंत्री थे। गहलोत सरकार ने राजस्थान में कृषि बजट अलग से बनाने की नौटंकी करी। कृषि मंत्री होने के नाते कटारिया स्वयं कृषि बजट पढ़ना चाहते थे, लेकिन गहलोत सरकार द्वारा मांग भी नहीं मानी गई। बजट में उनके कई सुझाव माने ही नहीं गए। कई कार्य ऐसे रहे थे, जो कटारिया कृषि मंत्री होते करना चाहते थे, लेकिन गहलोत सरकार द्वारा अटकाए जा रहे थे। इसके चलते कटारिया ने 2023 की विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी। उस दौरान उन्होंने गहलोत और कांग्रेस संगठन से झोटवाड़ा में किसी कार्यकर्ता को टिकट देने की मांग की थी, लेकिन टिकट झोटवाड़ा से 400 किलोमीटर दूर स्थित जोधपुर-फलोदी क्षेत्र के अभिषेक चौधरी को दिया गया।

दूसरी तरफ यह बात भी सामने आई है कि लालचंद कटारिया के कारोबार पर केंद्रीय एजेंसियों की नजर थी। इसकी जानकारी उनको तब चल गई थी, जब राजेंद्र यादव के ठिकानों पर छापेमारी हुई थी, तभी से लालचंद कटारिया भाजपा नेताओं के संपर्क में बताए जा रहे थे। जिसके परिणामस्वरुप उन्होंने भाजपा प्रत्याशी के सामने चुनाव भी नहीं लड़ा। कांग्रेस ने दावा किया है कि जांच एजेंसियों के डर से ये नेता भाजपा में गए हैं। 

दूसरे बड़े नेता राजेंद्र यादव थे, जो उच्च शिक्षामंत्री थी और गृहराज्य मंत्री भी थे, लेकिन असल बात यह है कि उनके हाथ में कुछ भी नहीं था, सबकुछ सीएमआर के अधिकारी तय कर रहे थे। यहां तक कि किसी कॉन्स्टेबल या लेक्चरर का ट्रांसफर तक उनके हाथ में नहीं था। राजेन्द्र यादव लगातार दो चुनावों से कांग्रेस के टिकट पर कोटपूतली सीट पर जीत रहे थे। यादव 2013 और 2018 में कोटपूतली से विधायक बने थे। इस बार भाजपा ने इस सीट को अपने लिए सबसे मुश्किल 19 सीटों में शामिल किया हुआ था। जहां से भाजपा ने हंसलाल गुर्जर को पहली लिस्ट में टिकट दिया था, लेकिन यहां एक निर्दलीय उम्मीदवार दुर्गालाल सैनी भी खड़े हो गए। सैनी को चुनाव नहीं लड़ने के लिए यादव ने गहलोत से अपील करी कि सैनी को चुनाव नहीं लड़ने के लिए मनाया जाए। सैनी गहलोत के माली समाज से थे, तो यादव को पूरी उम्मीद थी कि गहलोत की बात सैनी नहीं टालेंगे, लेकिन गहलोत की ओर से यादव को इस प्रकरण में कोई मदद नहीं मिली। अंतत: यादव त्रिकोणीय संघर्ष में मात्र 313 वोटों से चुनाव हार गए। 

दूसरा पक्ष यह है कि राजेंद्र यादव अशोक गहलोत के बेहद करीबियों में से एक थे। मिड डे मील घोटाले को लेकर करीब दो साल पहले यादव और उनके दोनों बेटों के खिलाफ ईडी की छापेमारी हुई थी। तब केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव के कहने पर राजेंद्र यादव चुप हो गए थे। विधानसभा चुनाव से पहले भी राजेंद्र यादव भाजपा नेताओं के संपर्क में थे। भूपेंद्र यादव के करीबी रिश्तेदार होने के कारण उनका भाजपा में लाने का मार्ग भूपेंद्र यादव ने ही बनाया है। 

खिलाड़ीलाल बैरवा कांग्रेस में सचिन पायलट कैंप से आते हैं। पांच साल उन्होंने पायलट को सीएम बनाने की मांग की। उनका कहना था कि यदि पायलट को सीएम नहीं बनाया गया तो गहलोत के होते कांग्रेस फिर से हारेगी, जो बात सही साबित हुई। इस बार कांग्रेस के विपक्ष में जाने पर पायलट को न तो नेता प्रतिपक्ष बनाया गया और न ही पार्टी अध्यक्ष, जिसके कारण खिलाडीलाल नाराज हो गए। खिलाड़ीलाल बैरवा पूर्व में कांग्रेस के धौलपुर—करौली से सांसद रहे हैं और बसेड़ी से विधायक थे। जबकि पिछली सरकार में अनुसूचित आयोग के अध्यक्ष थे। 25 सितंबर 2022 को उन्होंने गहलोत के समर्थन में इस्तीफा नहीं दिया तो इस बार उनका टिकट काट दिया गया था। उन्होंने साफ कहा कि कांग्रेस में दलित वर्ग का शोषण हो रहा है, गहलोत के होते कांग्रेस में उनकी सुनवाई नहीं हो सकती है। खिलाड़ी बैरवा ने कांग्रेस लीडरशिप पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। 

आरसीए के कोषाध्यक्ष रामपाल शर्मा भीलवाड़ा से कांग्रेस के टिकट पर 2019 में सांसद और मांडल से 2013 में विधायक का चुनाव लड़ चुके थे। कहा जाता है कि कांग्रेस की गुटबाजी के चलते रामलाल शर्मा चुनाव हार गए थे। इसके बाद भीलवाड़ा क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बनाए गए, जिसमें सीपी जोशी ने उनकी मदद की और वहां से वे आरसीए के कोषाध्यक्ष भी बने। हाल ही आरसीए चेयरमैन पद से वैभव गहलोत के इस्तीफा देने के बाद सरकार ने वैभव गहलोत के कार्यकाल की जांच भी शुरू कर दी। ऐसे में शर्मा ने लालचंद कटारिया की सलाह पर राजनीतिक करियर को ध्यान में रखते हुए भाजपा में चले गए।

डेगाना से चार बार विधायक रहे रिछपाल मिर्धा और एक बार विधायक रहे उनके बेटे विजयपाल मिर्धा की विधानसभा चुनावों से पहले स्थानीय भाजपा विधायक अजय सिंह किलक के साथ जबरदस्त बयानबाजी में उलझे हुए थे। किलक को भाजपा में वसुंधरा राजे के खेमे का माना जाता है। अजय सिंह किलक वसुंधरा राजे की दूसरी सरकार में मंत्री भी रहे हैं। भजनलाल सरकार के मंत्रिमंडल गठन के दौरान किलक मंत्री पद नहीं पा सके। इससे मिर्धा पिता-पुत्र को यह विश्वास हो गया कि उनकी भाजपा में नहीं चल रही है, अन्यथा वे उन्हें भाजपा में शामिल होने से रोक सकते थे। तब रिछपाल मिर्धा और उनके पुत्र विजयपाल भी कटारिया के कहने से भाजपा में शामिल होने पर राजी हो गए।

रिछपाल मिर्धा 1990, 93, 98 और 2003 में कांग्रेस के टिकट पर डेगाना से विधायक रहे। हालांकि, 2008 और 2013 में यहां से चुनाव हार गए। तीसरी बार 2018 में फिर से टिकट चाहते थे, लेकिन उनका टिकट काटकर उनके बेटे विजयपाल मिर्धा को टिकट दिया गया। विजयपाल जीत तो गए, लेकिन टिकट रिछपाल मिर्धा को मिलता तो वे गत गहलोत सरकार में जीतने पर सबसे सीनियर विधायकों में से एक होते।

दूसरी कहानी यह है कि विजयपाल मिर्धा के विधायक रहते उनके ड्राइवर ताराचंद सैनी के गुम होने और उसकी मौत की गुत्थी उलझी हुई है। इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की जा रही थी, लेकिन गहलोत सरकार ने इसलिए सीबीआई से जांच नहीं करवाई, क्योंकि पहले मदेरणा, हरीश चौधरी और कृष्णा पूनिया की सीबीआई जांच कराने के कारण गहलोत के जाट विरोधी होने की बात पुख्ता हो चुकी है। इससे बचने के लिए गहलोत ने सीबीआई जांच नहीं करवाई। माना जा रहा था कि विजयपाल भाजपा ज्वाइन नहीं करते तो इस मामले की सीबीआई जांच होती और विजयपाल मिर्धा जेल जा सकते थे। 

ठीक इसी तरह से शाहपुरा से 2018 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में आलोक बेनीवाल विधायक बने। वे कांग्रेस की दिग्गज नेता पूर्व डिप्टी सीएम और गुजरात की पूर्व राज्यपाल रही कमला बेनीवाल के बेटे हैं। पहले वे कांग्रेस से ही टिकट मांग रहे थे, लेकिन उनको टिकट नहीं दिया गया। निर्दलीय होने के बावजूद उन्होंने पूरे पांच साल कांग्रेस सरकार का साथ निभाया। गहलोत सरकार पर जब भी संकट आया तो वे साथ खड़े रहे, लेकिन जब उन्होंने 2023 में कांग्रेस से टिकट मांगा तो नहीं दिया गया। बेनीवाल की लालचंद कटारिया से पुरानी मित्रता और पारिवारिक संबंध होने से उनके कहने पर भाजपा ज्वाइन कर ली। 

इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हाल ही के विधानसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार शाहपुरा से अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। इसके कारण भाजपा को भी यहां पर जनाधार वाले नेता की जरूरत थी। कमला बेनीवाल के नाम पर आलोक बेनीवाल को जनता ने 2018 में जिताया था। ऐसे में भाजपा ने इनको भी शामिल किया है। 

इससे पहले कुछ दिन पूर्व बांसवाड़ा के दिग्गज कांग्रेसी महेंद्रजीत सिंह मालवीय ने भी नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाने से नाराज होकर कांग्रेस छोड़ भाजपा ज्वाइन कर ली थी, उनको भाजपा ने बांसवाड़ा—डूंगरपुर से लोकसभा उम्मीदवार बनाया है। 

इस तरह से आप देखेंगे तो नेताओं के न सिद्धांत बचे हैं, न उनको वोट देने वाली जनता से मतलब है, नेता को जहां पर अपना फायदा दिखाई देता है या उसके बचने का मार्ग दिखाई देता है, वहीं चले जाते हैं। 

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