लोकसभा चुनाव की रणभेरी बजने के साथ ही सियासी दलों ने अपने उम्मीदवार भी उतारने शुरू कर दिए हैं। यहां पर भाजपा ने पैरा ओलंपियन देवेंद्र झाझड़िया को मैदान में उतारा है तो कांग्रेस ने भाजपा के वर्तमान सांसद राहुल कस्वां को अपने पाले में लेकर टिकट दिया है। सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक दोनों ओर से शब्द बाण चल रहे हैं, तो नेताओं की बयानबाजी का चरम दौर आना बाकी है। कांग्रेस ने इस सीट को अपने लिए अवसर मानकर पूरी ताकत लगा दी है, तो भाजपा ने अभी तक केवल राजेंद्र राठौड़ जैसे स्थानीय नेताओं को ही मैदान में उतारा है, अभी भाजपा के राजस्थान से टॉप नेताओं और नरेंद्र मोदी, अमित शाह का आना बाकी है। ऐसे में यह सीट राजस्थान की सभी 25 सीटों में सबसे हॉट हो गई है।
चूरू की राजनीति का असली जयचंद कौन है?
चूरू में क्या होगा? कौन जीतेगा और कौन हारेगा? यह सब जानने से पहले यहां की जातिगत स्थिति, राहुल कस्वां और देवेंद्र झाझड़िया के व्यक्तिगत वोटबैंक की ताकत, राजेंद्र राठौड़ की राहुल कस्वां से अदावत की वजह, कांग्रेस का सीपीआई और आरएलपी से गठबंधन होने का असर और इसके साथ ही यह भी समझना जरूरी है कि आखिर भाजपा के पास 25 सीटों पर हैट्रिक लगाने के लिए इस सीट पर जीत का फॉर्मूला क्या है?
चूरू की जातिगत स्थिति चूरू विधानसभा सीट पर जाट वोट सबसे अधिक है। इसके बाद अल्पसंख्यक, ओबीसी, एससी, एसटी मतदाता निर्णायक भूमिका में होते है। इन्हीं समुदाय के वोटर्स किसी भी चुनाव में हार—जीत तय करते है। यही कारण है कि प्रत्येक पार्टी यहां जातिगत वोटबैंक को साधने के जुगाड़ में रहती है। राजनीतिक दल भी अपने प्रत्याशियों के चयन में जाति का ध्यान रखते हैं। एससी—एसटी वोटर्स मिलकर दूसरा सबसे बड़ा वोट होता है, यही वजह है कि यहां पर बसपा की रणनीति भाजपा और कांग्रेस के समीकरण बिगाड़ देती है। इसलिए विधानसभा चुनाव में अक्सर यहां त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलता है। चूरू विधानसभा सीट पर बीजेपी के नेता राजेंद्र राठौड़ लगातार 6 बार से विधायक रह चुके हैं, इसलिए कहा जाता है कि यहां पर उनकी पकड़ अच्छी है।
राहुल कस्वां की बात की जाए तो 2014 से अब तक दो बार भाजपा के टिकट पर सांसद हैं। इस सीट का गठन 1977 में हुआ था। पहली बार जनता पार्टी के दौलतराम सारण सांसद बने थे। दूसरी बार 1980 में जनता पार्टी सेक्युलर के टिकट पर दौलतराम सारण जीते। तीसरी बार 1984 में कांग्रेस के मोहर सिंह राठौड़ जीते। अगले चुनाव में 1985 के दौरान कांग्रेस नरेंद्र बुडानिया जीते तो 1989 में एक बार फिर से दौलतराम सारण जीते, लेकिन इस बार उनको जनता दल ने टिकट दिया था। 1991 के चुनाव में यहां पर पहली बार भाजपा के रामसिंह कस्वां जीते, लेकिन पांच साल बाद 1996 और 1998 के चुनाव में भी कांग्रेस के नरेंद्र बुडानिया चुनाव जीत गए। एक साल बाद 1999 में भाजपा के रामसिंह कस्वां जीत गए। इसके अगले दो चुनाव भी रामसिंह कस्वां जीते, लेकिन भाजपा ने 2014 में उनका टिकट काटकर उनके बेटे राहुल कस्वां को उम्मीदवार बनाया। तब से राहुल कस्वां भाजपा के टिकट पर चूरू के सांसद हैं।
चूरू लोकसभा सीट का गठन होने के बाद अधिकांश समय तक कस्वां परिवार की राजनीति के इर्द—गिर्द ही चली है। रामसिंह कस्वां 4 बार सांसद बने तो 2 बार राहुल कस्वां ने चुनाव जीता है। यानी मोटे तौर देखा जाए तो करीब 3 दशक तक चूरू में कस्वां परिवार ही जीतता रहा है। राजेंद्र राठौड़ चूरू विधानसभा सीट पर लगातार 6 बार विधायक बने हैं। इसलिए दोनों परिवारों एक दूसरे की खूब मदद की है। दोनों एक ही दल से आते हैं, लेकिन पिछला विधानसभा चुनाव राजेंद्र राठौड़ का पार्टी ने चूरू जिले की तारानगर सीट से मैदान में उतार दिया। चुनाव से पहले कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और राजेंद्र राठौड़ के बीच खूब शब्द बाण चले और चुनाव के दौरान दोनों का मुद्दा राजनीतिक दलों से होते हुए जातिगत आधार पर बन गया। राजेंद्र राठौड़ चुनाव हार गए और उन्होंने इसका ठीकरा राहुल कस्वां के परिवार पर फोड़ दिया। यहां तक कि चुनाव बाद राहुल कस्वां के परिवार को जयचंद और विभिषण तक कह दिया। बाद में राहुल कस्वां ने भी राजेंद्र राठौड़ को जयचंदों का जयचंद कहा। तब से लगातार दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ आरोप लगा रहे हैं।
चूरू लोकसभा के अब तक 13 चुनाव हुए हैं, जिनमें से सर्वाधिक 6 बार भाजपा और 4 बार कांग्रेस जीती है। इस हिसाब से देखा जाए तो भाजपा भारी पड़ रही है। हालांकि, इन 6 जीते हुए चुनाव में कस्वां परिवार शामिल रहा है। चार बार रामसिंह कस्वां और 2 बार उनके बेटे राहुल कस्वां जीते हैं। जबकि कांग्रेस की ओर से तीन बार नरेंद्र बुडानिया और एक बार मोहर सिंह राठौड़ जीते हैं। इसके अलावा एक—एक बार जनता पार्टी, जनता पार्टी सेक्युलर और जनता दल के प्रत्याशी जीते हैं। 2014 से पहले तक दोनों ही प्रमुख दलों के बीच कड़ा मुकाबला होता रहा है, लेकिन बीते दो चुनाव में पूरे राजस्थान की तरह चूरू भी भाजपा के लिए एक तरफा जीत वाली सीट रही है। अब सवाल यह उठता है कि राहुल कस्वां जैसे अनुभवी नेता परिवार से पहली बार मैदान में उतरे देवेंद्र झाझड़िया कैसे मुकाबला करेंगे? कांग्रेस के हो चुके राहुल कस्वां के पास 10 साल जीत का अनुभव है, जबकि देवेंद्र पैरा ओलंपिक में देश के लिए तीन बार गोल्ड मेडल जीते हैं, ऐसे में देश—दुनिया में उनका नाम है। भारत का तिरंगा कई बार विदेशों में लहराया है, जिसके कारण लोगों की नजर में उनका बहुत मान—सम्मान है। इसके अलावा राहुल कस्वां के पिता रामसिंह कस्वां का अनुभव और कांग्रेस का वोटबैंक है तो देवेंद्र के पास भाजपा के वोटबैंक और नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर का भी सहारा है।
कांग्रेस को सीपीआई ने भी अपना समर्थन दे दिया है। भादरा के पूर्व विधायक बलवान पूनिया ने सोमवार को राहुल कस्वां को खुलेआम समर्थन दिया है। चूरू जिले में सीपीआई का एक निश्चित वोटबैंक है, जिसका लाभ पक्के तौर पर कांग्रेस उम्मीदवार को मिलेगा। इसके साथ ही हनुमान बेनीवाल की आरएलपी के साथ भी कांग्रेस के अलाइंस की बात चल रही है। यदि बेनीवाल के साथ कांग्रेस का गठबंधन हुआ तो राहुल कस्वां को बड़ा फायदा मिलने की संभावना है।
ऐसे में प्रश्न यह है कि भाजपा इस समीकरण का कैसे मुकाबला करेगी? आपको याद होगा 2019 को लोकसभा चुनाव, जब 14 फरवरी को पुलवामा हमला हुआ था, जिसमें दर्जनों सैनिक बलिदान हो गए थे। उस हमले के ठीक 12 दिन बाद 26 फरवरी को भारतीय सेनाओं ने पाकिस्तान में घुसकर एयर स्ट्राइक की थी और पूरे देश में माहौल बदल गया था। तब पीएम नरेंद्र मोदी ने पहली सभा इसी चूरू जिले में की थी। बाद में चुनाव का परिणाम सबके सामने था। नरेंद्र मोदी की लहर पर सवार भाजपा ने कश्मीर से धारा 370, तीन तलाक, सीएए जैसे बड़े कानून बनाने और राम मंदिर निर्माण जैसे दशकों पुराने मुद्दे खत्म किए हैं, जिनको लेकर मोदी जब जनता के बीच मैदान पर उतरेंगे तो कांग्रेस की रणनीति ध्वस्त हो जाएगी। इसके अलावा भाजपा के पास कोई खास चमत्कार है भी नहीं।
तमाम तरह के राजनीतिक समीकरण समझने के बाद यह कहा जाए कि आज की तारीख में तो चूरू में भाजपा—कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला है, लेकिन जब ज्यों—ज्यों चुनाव नजदीक आएंगे, वैसे—वैसे समीकरण बनते—बिगड़ते चले जाएंगे। राहुल कस्वां ने कहा है कि 'चूरू में किसान बनाम सामंतवाद की लड़ाई है, जो लोग बरसों से राज कर रहे हैं, वो सोचते हैं कि वो ही राज करने करने के लिए पैदा हुए हैं तो यह नहीं चलेगा।' राहुल कस्वां और राजेंद्र राठौड़ एक दूसरे को जयचंद कह रहे हैं, लेकिन अंतत: चुनाव के बाद 4 जून को आने वाला परिणाम ही बताएगा कि चूरू की जनता ने किसे असली जयचंद की उपाधि से नवाजा है।
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