लगातार तीसरी बार बुआ-भतीजा में होगा वॉर: Nagaur Loksabha chunav 2024



राजस्थान का अमर इतिहास जग जाहिर है। इस धरा पर अनेक वीर पैदा हुए हैं जो अपनी वीरता से अनेकाें लड़ाईयां लड़ कर इतिहास में अमर हो गए। इसी धरा पर एक लड़ाई ऐसी हुई जो दुनिया में कहीं पर नहीं हुई। यह लड़ाई पश्चिमी राजस्थान में दो रियासतों के बीच एक तरबूज के लिए लड़ी गई। कहा जाता है कि इस लड़ाई में हजारों सिपाही शहीद हुए। यह लड़ाई दुनिया की एक मात्र ऐसी लड़ाई है जो केवल एक फल के लिए लड़ी गई और इतिहास में इसे 'मतीरे की राड़', यानी 'मतीरे की लड़ाई' के नाम से जाना जाता है। 

कहानी सन् 1644 ईस्वी की है। बीकानेर रियासत का सीलवा गांव और नागौर रियासत का जाखणियां गांव जो कि एक—दूसरे सटे हुए हैं। यहां नागौर और बीकानेर रियासत की अंतिम सीमा थी। एक मतीरे की बेल बीकानेर रियासत की सीमा में उगी, किन्तु नागौर की सीमा में फ़ैल गयी। उस पर एक मतीरा यानि तरबूज लग गया। एक पक्ष का दावा था कि बेल हमारे इधर लगी है, दूसरे का दावा था कि फल तो हमारी ज़मीन पर पड़ा है। बीकानेर के शासक राजा करणसिंह थे जो मुगलों के लिए दक्षिण अभियान पर गये हुए थे, जबकि नागौर के शासक राव अमरसिंह थे। 

अमरसिंह भी मुग़ल साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर चुके थे। इसलिए राव अमरसिंह ने आगरा लौटते ही बादशाह को इसकी शिकायत की तो राजा करणसिंह ने सलावत खां को पत्र लिखा और बीकानेर की पैरवी करने को कहा था, लेकिन मामला मुगल दरबार में चलता उससे पहले ही दोनों रियासतों के मध्य ‘मतीरे’ को लेकर युद्ध हो गया। इस युद्ध में नागौर की सेना का नेतृत्व सुखमल सिंघवी ने किया, जबकि बीकानेर की सेना का नेतृत्व रामचंद्र मुखिया ने किया था। युद्ध में नागौर की हार हुई।

यही नागौर देश में पंचायती राज लागू करने की धरती के तौर पर जाना जाता है, जहां से निकले सियासी सूरमा एक समय राजस्थान कांग्रेस की रीड़ हुआ करते थे। इसी धरती से निकला पंचायती राज का तंत्र देश के आम व्यक्ति के जीवन में कई बड़े परिवर्तन ला रहा है। यह धरती कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे बलदेव राम मिर्धा, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, हरेंद्र मिर्धा, रिछपाल मिर्धा जैसे नेताओं की कर्मभूमि रही है, तो इसी धरती से ज्योति मिर्धा, विजयपाल मिर्धा सरीखे नई पीढ़ी के नेताओं ने राजनीति का ककहरा सीखा है। 

किंतु बीते दो दशक से यह धरती इन सबके बीच हनुमान बेनीवाल जैसे अलग धारा की राजनीति करते हुए आगे बढ़ने वाले नेता की जमीन के तौर पर जानी पहचानी जानी लगी है। उससे पहले हनुमान के पिता रामदेव बेनीवाल भले 2 बार विधायक बने, लेकिन उनके बजाए हनुमान का नाम ज्यादा चर्चा में रहा है। बेनीवाल और मिर्धा परिवार की राजनीतिक लड़ाई 45 सालों से चली आ रही है, क्योंकि 1980 में मूंडवा सीट से बेनीवाल के पिता रामदेव को हरेंद्र मिर्धा ने हराया था, जबकि 1985 में रामदेव ने हरेंद्र मिर्धा को हराया। मूंडवा व नागौर से ही 2008 में खींवसर सीट बनी थी, जहां से हनुमान चौथी बार विधायक हैं।

बीते तीस साल से नागौर लोकसभा सीट की अपनी अलग तासीर है। यह सीट हर बार या तो जीतने वाली पार्टी बदल देती है या फिर यहां प्रत्याशी बदल जाता है। पिछले लोकसभा चुनावों में इस सीट से आरएलपी सांसद हनुमान बेनीवाल सांसद चुने गए थे। पांच साल पहले बीजेपी—आरएलपी के संयुक्त उम्मीदवार बने हनुमान बेनीवाल नागौर के सांसद बने थे। इस बार बेनीवाल को इंडिया गठबंधन के तहत आरएलपी ने उम्मीदवार बनाया है, जिसके कारण नागौर लोकसभा सीट पर लड़ाई भी बड़ी हो गई है। पिछले चुनावों के पैटर्न को देखते हुए बड़ा सवाल तो यही है कि कांग्रेस द्वारा आरएलपी के लिए छोड़ी गई इस सीट को हनुमान बेनीवाल बचा पाएंगे या यह सीट अपनी परंपरा कायम रखेगी।

नागवंश की राजधानी रह चुके नागौर का वर्णन कई पौराणिक प्रसंगों में भी मिलता है। खासतौर पर महाभारत और कई अनुश्रुतियों में नागौर और नागवंश की कथाएं देखने को मिलती हैं। महाभारत काल में नागौर का नाम जांगलदेश हुआ करता था, कालांतर में इसे अहिछत्रपुर कहा गया। देखा जाए तो इतने वर्षों बाद भी इस क्षेत्र के तेवरों में कोई बदलाव नजर नहीं आया है। आजाद भारत में यहीं से लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी, जब 2 अक्टूबर 1959 को महात्मा गांधी की 90वीं जयंती पर 7 दिन पूर्व जीते देश के पहले जिला प्रमुख लिखमाराम चौधरी को खुद पीएम जवाहर लाल नेहरू ने कार्यभार सौंपा। 

देश की आजादी के साथ अस्तित्व में आई इस सीट पर पहला चुनाव 1952 में हुआ। उस पहले चुनाव में यहां से स्वतंत्र उम्मीदवार जीडी गोस्वामी जीते थे। पांच साल बाद 1957 में दूसरे चुनाव में यह सीट कांग्रेस के मथुरादास माथुर ने हथिया ली। फिर 62 में चुनाव हुए तो कांग्रेस ने सीटिंग सांसद मथुरादास के बजाय एसके डे मैदान में उतरा दिया। 1967 में चुनाव में नागौर ने कांग्रेस को नकार दिया और एक बार फिर से स्वतंत्र पार्टी के एनके सोमानी को सांसद चुन लिया। 1971 से 80 तक हुए तीन चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस के नाथूराम मिर्धा जीतते रहे। फिर 84 में चुनाव हुए तो यह सीट तो कांग्रेस के पास ही रही, लेकिन एक बार फिर प्रत्याशी बदला और यहां से रामनिवास मिर्धा सांसद चुने गए।

1989 के चुनाव में नाथूराम मिर्धा ने पार्टी बदल दी और जनता दल के टिकट पर यहां से जीत गए। 1991 में वह वापस कांग्रेस में चले गए और फिर 91 व 96 का चुनाव जीते। इस सीट पर पहली बार बीजेपी ने 1997 के चुनाव में खाता खोला और भानु प्रकाश मिर्धा को सांसद बनाया। फिर अगले दो चुनाव, यानी 98,99 में कांग्रेस के टिकट पर राम रघुनाथ चौधरी जीते। नागौर लोकसभा सीट पर सबसे अधिक 6 बार पूर्व केंद्रीय मंत्री नाथूराम मिर्धा जीते हैं। 

फिर 2004 में यहां से बीजेपी के टिकट पर भंवर सिंह डांगावास सांसद चुने गए। 2009 में इस सीट पर कांग्रेस के ज्योति मिर्धा, लेकिन 2014 में बीजेपी के सीआर चौधरी सांसद बने। 2019 के चुनाव में भाजपा—आरएलपी के संयुक्त उम्मीदवार हनुमान बेनीवाल सांसद बने। इस लोकसभा सीट में आने वाली 8 में से चार विधानसभा सीटों पर इस समय कांग्रेस के विधायक हैं। एक सीट पर निर्दलीय तो एक सीट पर आरएलपी का कब्जा है, जबकि शेष दो सीटों पर बीजेपी काबिज है।

नागौर लोकसभा सीट पर सबसे अधिक 25 प्रतिशत जाट समाज के मतदाता हैं। इसके बाद करीब 21 फीसदी एससी—एसटी के वोटर हैं। तीसरे नंबर पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 14.3 फीसदी बताई जाती है। इस लोकसभा क्षेत्र के 80 फीसदी वोटर गांवों में रहते हैं, जबकि 20 फीसदी वोटर शहरी हैं। इस सीट पर मतदाताओं की कुल संख्या 1920735 है। 2019 के चुनावों में यहां कुल 61.9 फीसदी मतदान हुआ था।

पिछले चुनाव में जब हनुमान बेनीवाल भाजपा—आरएलपी के उम्मीदवार थे। उन्होंने इसके कारण पश्चिमी राजस्थान की करीब 10 सीटों पर प्रचार किया और भाजपा के उम्मीदवारों को इसका लाभ मिला, इसलिए यह भी चुनौती होगी कि क्या बेनीवाल इस बार भी वही सफलता दोहरा पाएंगे? पांच साल पहले सभाओं में बेनीवाल कहते थे कि 2014 का चुनाव हार चुकीं बुआजी ज्योति मिर्धा को इस बार परमानेंट विदा करके हरियाणा भेजना है। 

तब ज्योति मिर्धा हार गईं थीं, लेकिन तीन महीने पहले विधानसभा के लिए ज्योति ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा है। हालांकि, चुनाव हार गईं, किंतु भाजपा ने तीन महीने बाद फिर से उनको लोकसभा का टिकट देकर मैदान में उतार दिया है। ऐसे में कहें कि नागौर में इस बार फिर से बुआ—भतीजे के बीच कड़ा और बड़ा रोचक मुकाबला होगा तो कतई गलत नहीं होगा। 

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