राजस्थान की चूरू लोकसभा सीट राज्य की सबसे बड़ी हॉट सीट बन गई है। यहां पर भाजपा, कांग्रेस, बसपा समेत निर्दलीय के बीच मुकाबला होने की संभावना बनती जा रही है। भाजपा द्वारा टिकट बदलने के कारण समीकरण पूरी तरह से चेंज हो गए हैं। पार्टी लगातार तीसरी बार सभी 25 सीटें जीतने का दावा तो कर रही है, लेकिन चूरू की राजनीति जिस दिशा में जा रही है, उससे यह दावा थोड़ा फीका दिखाई देने लगा है।
चूरू जिला शेखावाटी संभाग में आता है। हरियाणा की सीमा से सटे इस क्षेत्र में तस्करी आम बात है। हरियाणा से गुजरात जाने वाली शराब इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है। राजस्थान में गैंगवार की सर्वाधिक घटनाएं इसी जिले में होती हैं। चूरू संसदीय सीट का गठन 1977 में हुआ था, तब पहली बार हुए लोकसभा चुनाव में यहां पर जनता पार्टी की जीत हुई थी।
जनता पार्टी के दौलतराम सारण यहां से पहले सांसद चुने गए थे। इसके बाद साल 1980 के चुनाव में भी दौलतराम यहां से लगातार दूसरी बार एमपी चुने गए, लेकिन इस बार वे जनता पार्टी 'सेकुलर' के उम्मीदवार थे। साल 1984 और 1985 के चुनाव में यहां कांग्रेस जीती, लेकिन 1989 के चुनाव में यहां जनता दल के टिकट पर एक बार फिर से दौलतराम सारण ही सांसद बने।
साल 1991 के चुनाव में पहली बार यहां पर भारतीय जनता पार्टी जीती और राम सिंह कस्वां सांसद चुने गए, लेकिन पांच साल बाद साल 1996 के चुनाव में यहां कांग्रेस जीत गई। दो साल बाद 1998 के मध्यावधि चुनाव में भी कांग्रेस जीती। लेकिन 1999 के चुनाव में एक बार फिर से यहां कमल खिला और राम सिंह कस्वां सांसद बने। साल 2004 में लगातार दूसरी बार रामसिंह कस्वां जीते, उन्होंने कांग्रेस के दिग्गज बलराम जाखड़ को हराया। पांच साल बाद 2009 मे भी रामसिंह कस्वां जीते, उन्होंने इस बार रफीक मंडेलिया को एक लाख से अधिक वोटों से हराया।
साल 2014 के आम चुनाव में भाजपा ने रामसिंह का टिकट काटकर उनके बेटे राहुल कस्वां को दे दिया। राहुल कास्वां अपने पहले ही चुनाव में बसपा के अभिनेश महर्षि को 294000 से अधिक वोटों से हराया, इस चुनाव में कांग्रेस के प्रताप सिंह तीसरे स्थान पर रहे। इसके बाद 2019 के आम चुनाव में भाजपा के राहुल कस्वां ने कांग्रेस के रफीक मंडेलिया को 334000 वोटों से हराया। किंतु वर्तमान सांसद राहुल कस्वां का 2024 के आम चुनाव का टिकट काट दिया गया है। टिकट कटने के बाद चूरू जिले की राजनीति पूरे राजस्थान में हाइप पर है।
सांसद राहुल कस्वां ने समर्थकों के जरिए अपनी ताकत दिखाई है और परोक्ष रूप से भाजपा के बुजुर्ग नेता राजेंद्र राठौड़ को जयचंदों के साथ बैठने वाला जयचंद तक कह दिया है। इससे पहले विधानसभा चुनाव में ही राजेंद्र राठौड़ के तारानगर से चुनाव हारने उन्होंने भी परोक्ष रूप से राहुल कस्वां को जयचंद कहा था। दोनों नेता चूरू के हैं और स्थानीय राजनीति को लेकर दोनों में खींचतान चल रही है। दरअसल, राजेंद्र राठौड़ चूरू से 7 बार विधायक बने, लेकिन अपने आखिरी चुनाव में हार गए। चूरू जिला जाट बहुल है। यहां पर अधिकांश विधानसभा सीटों पर जीत—हार जाट वोट ही करते हैं, जबकि लोकसभा में जाट वोट के बिना कोई जीत नहीं सकता है।
राजेंद्र राठौड़ ने विधानसभा चुनाव से पहले एक सभा में बड़े अभिमान से कहा था कि जाट बहुल चूरू सीट पर वो 7 बार विधायक रहे हैं। उन्होंने इसके लिए जाट समाज को धन्यवाद भी दिया, लेकिन जब तारानगर से चुनाव हारे तो जाट समाज से आने वाले राहुल कस्वां और उनके परिवार को ही जयचंद कह दिया, जिसके कारण जिले में राजनीतिक जहर घुल गया। हालांकि, इस पूरे मामले की जड़ पिछली अशोक गहलोत सरकार में हुए बेतहाशा पेपर लीक से हुई थी, तब कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा शिक्षा मंत्री थी।
बहुचर्चित आरएएस भर्ती में कथित गड़बड़ी को लेकर तब विपक्ष में बैठी भाजपा ने कांग्रेस सरकार पर खूब हमला किया था। सदन के बाहर भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां ने सरकार को सड़क पर घेरा, जबकि सदन में नेता प्रतिपक्ष रहते राजेंद्र राठौड़ ने आरपीएससी भंग करने और पेपर लीक की घटनाओं की सीबीआई जांच कराने की मांग की थी। जिस पुरजोर तरीके से राजेंद्र राठौड़ ने मुद्दा उठाया, उतनी ही ताकत से शिक्षा मंत्री डोटासरा पर व्यक्तिगत हमले किए।
कई बार राजेंद्र राठौड़ और गोविंद डोटासरा के बीच ट्विटर से लेकर सार्वजनिक सभाओं में एक दूसरे पर हमले किए गए। चुनाव के दौरान जब ईडी ने डोटासरा के ठिकानों पर छापे मारे, तब उनकी जीत तय हो गई थी। इसको भाजपा नेता समझ ही नहीं पाए कि ईडी की छापेमारी और उनपर राजेंद्र राठौड़ द्वारा किए गए व्यक्तिगत हमलों के कारण डोटासरा का राजनीतिक कद बढ़ता चला गया।
विधानसभा चुनाव में दोनों नेताओं ने एक दूसरे को खूब खरी खोटी सुनाई, तो व्यक्तिगत हमलों के कारण सोशल मीडिया पर दोनों नेताओं के समर्थकों ने एक दूजे को निशाने पर लिया। मामला यहां तक बढ़ गया कि डोटासरा ने अपने समर्थकों से तारानगर में मोरिया बुलाने की अपील कर दी।
चूंकि तारानगर में सर्वाधिक वोटर जाट समाज से आते हैं, इसलिए डोटासरा की अपील पर तारानगर की जनता ने कांग्रेस के नरेंद्र बुडानिया को वोट दिया। राजेंद्र राठौड़ द्वारा पानी की तरह पैसा बहाने के बाद भी उनको हार का मुंह देखना पड़ा। जब पेपर लीक के मामले में भाजपा गोविंद सिंह डोटासरा पर हमलावर थी, तब गहलोत सरकार ने मंत्रिमंडल फेरबदल किया और डोटासरा की जगह बीडी कल्ला को शिक्षा मंत्री बनाया।
उसके बाद भी खूब पेपर लीक हुए, लेकिन न तो भाजपा ने और न ही राजेंद्र राठौड़ बीडी कल्ला को दोषी बताया, बल्कि अंत समय तक भी डोटासरा को ही आरोपी बताया गया। इसका फायदा उठाते हुए डोटासरा ने इस मामले को व्यक्तिगत से सामाजिक बना दिया। डोटासरा ने समाज में यह नैरेटिव बनाने में सफलता पाई कि जाट शिक्षा मंत्री होने के कारण राजेंद्र राठौड़ ने आरोप लगाए, लेकिन जब बीडी कल्ला के रूप में ब्राह्मण शिक्षा मंत्री बनने के बाद तमाम पेपर लीक की घटनाओं के बाद भी उनको एक बार भी आरोपी नहीं बोला गया, बल्कि उसके बाद भी डोटासरा को ही दोषी कहा गया। यही बात कांग्रेस ने तारानगर की जनता के मन में भर दी।
जब चुनाव की बारी आई तो इसको राजेंद्र राठौड़ भांप गए और विद्याधर नगर से टिकट मांगा, लेकिन पार्टी ने उनको तारानगर से टिकट दिया। यही वो समय था, जब कांग्रेस और डोटासरा को राजेंद्र राठौड़ से बदला लेने का मौका मिल गया। चुनाव प्रचार के दौरान ही राजेंद्र राठौड़ के बेटे पराक्रम राठौड़ ने एक सभा में कहा कि उनके घर पर जितने भी लोग आते हैं, उनमें सबसे पहले राजपूत समाज के लोगों का काम करते हैं, उनके लिए चूरू के लोगों से ज्यादा राजपूत समाज ज्यादा महत्वपूर्ण है।
पराक्रम राठौड़ के इस बयान ने दूसरों समाजों में रोष भर दिया, जिसका रिफलेक्शन चुनाव में देखने को मिला। इसी तरह से अपनी आखिरी सभा में राजेंद्र राठौड़ ने मुस्लिम समाज के वोट साधने के लिए मुसलमानों की जमकर प्रशंसा कर दी, जिसके कारण भाजपा का कोर वोटर और संघ नाराज हो गया। इसका भी नुकसान उनके चुनाव में देखने को मिला।
विधानसभा चुनाव हो गया और राजेंद्र राठौड़ जो खुद को सीएम का सबसे बड़ा दावेदार साबित करने में जुटे थे, उनके सारे सपने टूट गए, लेकिन राजेंद्र राठौड़ ने बड़ी गलती चुनाव परिणाम के बाद तारानगर में धन्यवाद सभा के दौरान की, तब उन्होंने राहुल कस्वां के परिवार को जयचंद कहकर अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया। यहीं से राहुल कस्वां और राजेंद्र राठौड़ खुलकर आमने—सामने आ गए। इधर, लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने राजस्थान कोर कमेटी से तीन तीन नाम मांगें।
कोर कमेटी में राजेंद्र राठौड़ भी हैं और उन्होंने यहां पर वीटो करते हुए बाकी नेताओं से इस सीट पर चुप रहने का दबाव बनाया। कहा जाता है कि राठौड़ के अड़ जाने के कारण प्रदेश भाजपा ने राहुल कस्वां का नाम दिल्ली भेजा ही नहीं। परिणाम यह हुआ कि राहुल कस्वां की जगह पैरा ओलंपिक खिलाड़ी देवेंद्र झाझड़िया को टिकट दे दिया। वैसे तो झाझड़िया भी चूरू के ही हैं और जाट समाज से ही हैं, लेकिन यहां पर कांग्रेस ने फिर से फायदा उठाना शुरू कर दिया। कांग्रेस ने एक बार फिर से चूरू में राहुल कस्वां के टिकट काटने की घटना को जाट समाज की अस्मिता से जोड़ दिया है।
साथ ही यह बात भी सामने आ रही है कि कांग्रेस ने राहुल कस्वां को टिकट देने का प्रस्ताव भी दिया है। हालांकि, राहुल कस्वां ने 8 मार्च को अपने फार्म हाउस पर एकत्रित हुए हजारों लोगों की सभा को संबोधित करते हुए कहा कि दो दिन में वो अपना निर्णय करेंगे। अब समझने वाली बात यह है कि जब पार्टी ने उनका टिकट काट ही दिया है, तब दो दिन का समय क्यों लिया जा रहा है?
असल बात यह है कि राहुल कस्वां की पत्नी नीलू कस्वां देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ की भतीजी हैं। यानी राहुल कस्वां जगदीप धनकड़ के जवाई हैं, लेकिन फिर भी उनका टिकट काट दिया गया है, जबकि ज्योति मिर्धा से लेकर तमाम कांग्रेसी नेताओं को भाजपा से जोड़ने का काम ही जगदीप धनकड़ के माध्यम से हो रहा है। इसके कारण राहुल कस्वां का टिकट कटना जगदीप धनकड़ के लिए भी बड़ा धक्का है।
राहुल कस्वां द्वार दो दिन का समय इसलिए मांगा गया है कि या तो पार्टी देवेंद्र झाझड़िया की जगह फिर से उनको ही टिकट दे दे, या फिर उनकी पत्नी को झुंझुनूं से मैदान में उतार दे। अब सवाल यह उठता है कि क्या एक बार टिकट देने के बाद बदला जा सकता है? असल बात यह है कि हाल ही में भाजपा ने देशभर में जो पहली सूची जारी की है, उसमें 195 नेताओं का नाम था, लेकिन कई सीटों पर विवाद होने पर 6 टिकट बदले गए हैं।
उससे पहले विधानसभा चुनाव में भी कई टिकट बदले गए थे। टिकट बदल देना एक सामान्य प्रक्रिया है। इसलिए राहुल कस्वां को भी संभवत: जगदीप धनकड़ के द्वारा टिकट देने या उनकी पत्नी को टिकट देने का आश्वासन दिया है और इसलिए राहुल कस्वां ने अपना निर्णय सुनाने के लिए दो दिन का समय मांगा है।
भाजपा ने यदि सही फैसला नहीं लिया तो जैसे पार्टी ने विधानसभा चुनाव में जीतने वाली 6 सीटें खोई थीं, ठीक उसी तरह से चूरू में भी हो सकता है। आपको याद होगा भाजपा के दिग्गज नेता रहे गंगाराम चौधरी की पोती प्रियंका चौधरी बाड़मेर से टिकट मांग रही थीं, उनके पक्ष में माहौल भी था, लेकिन प्रादेशिक नेताओं की सिफारिश पर उनको टिकट नहीं दिया गया और वो निर्दलीय जीत गईं। ठीक इसी तरह से डीडवाना से यूनुस खान, शिव से रविंद्र भाटी, सांचौर से जीवाराम चौधरी, बयाना से रितु बनावत जैसे एकदम जिताउ नेताओं को टिकट नहीं मिला और इन सभी ने निर्दलीय चुनाव लड़कर भाजपा के नेताओं को जमीन सुंघा दी।
ऐसे ही 2018 में किशनगढ़ सीट से भाजपा के उम्मीदवार रहे विकास चौधरी को टिकट नहीं दिया गया, जबकि यहां पर विकास चौधरी बड़ी जीत की तरफ बढ़ रहे थे। परिणाम यह हुआ कि विकास चौधरी ने कांग्रेस ज्वाइन कर टिकट ले लिया और भाजपा प्रत्याशी भागीरथ चौधरी को करारी मात दी। कांग्रेस ने भी खण्डेला सीट पर ऐसी ही गलती कर महादेव सिंह खंडेला को टिकट दिया। यहां से जिताउ सुभाष खंडेला ने भाजपा से टिकट लेकर जीत गए।
ऐसे कई उदाहरण हैं, जब भाजपा अपने जिताउ उम्मीदवार दावेदारी, मेहनत को कुछ प्रादेशिक नेताओं के कहने पर दरकिनार कर दूसरे नेताओं को टिकट देकर सीट गंवा देती है। अब देखना यह होगा कि भाजपा अपना फैसला बदलकर राहुल कस्वां को चूरू से टिकट देती है, राहुल कस्वां की पत्नी नीलू कस्वां को झुंझुनू से टिकट देती है, या फिर राजेंद्र राठौड़ के दबाव में जाट समाज के एक युवा नेता को बगावत करने को मजबूर करती है।
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