पॉलिटिकल पार्टीज को इलेक्टोरल बॉन्ड से मिलने वाले चंदे पर भारत की शीर्ष अदालत ने सुप्रीम हथौड़ा चला दिया है। इलेक्ट्रोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों क मिलने वाले चंदे पर रोक लगाने के लिए एडीआर द्वारा 2018 में जनहित याचिका दायर की गई थी।
15 फरवरी 2024 को रोक लगाने के साथ ही 5 जजों की बेंच ने कहा है कि यह स्कीम को पूरी तरह से असंवैधानिक और मतदाताओं के अधिकाकरों का हनन करती है। कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम में गोपनीय का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना के अधिकार कानून का भी वाइलेशन करती है।
इस स्कीम के तहत राजनीतिक दलों की फंडिंग करने वालों की पहचान गुप्त रहती है, इससे रिश्वतखोरी का मामला बढ़ रहा है। इसलिए पिछले दरवाजे से रिश्वत को कानूनी जामा पहनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। स्कीम को सत्ताधारी दल को फंडिंग के बदले में अनुचित लाभ लेने का जरिया नहीं बनने दिया जा सकता।
शीर्ष अदालत के फैसले के बाद पब्लिक को भी पता होगा कि किसने, किस पार्टी की फंडिंग की है। इस अहम फैसले के साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने पिछले 6 साल का हिसाब-किताब भी मांग लिया है। एसबीआई से डेटा लेकर निर्वाचन आयोग को बताना होगा कि पिछले पांच साल में किस पार्टी को किसने कितना चंदा दिया है। कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा है कि एसबीआई से पूरी जानकारी जुटाकर इसे अपनी वेबसाइट पर साझा करे।
शीर्ष अदालत के इस फैसले को उद्योग जगत के लिए भी बड़ा झटका माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के इस अहम निर्णय को गहराई से समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि आखिर इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है? इसके जरिए किस दल को कितना चंदा मिला? यह स्कीम संविधान की किस धारा का उल्लंघन करती है? कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को इससे क्या आपत्ति थी? इसके जरिए सत्ताधारी दल, यानी भाजपा कैसे अनैतिक लाभ ले रही थी?
इलेक्टोरल बॉन्ड एक हजार, 10 हजार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ की राशि में जारी होते हैं। चंदा देने वाले द्वारा इसे एसबीआई बैंक से खरीदा जाता है। इलेक्टोरल बॉन्ड चैक या डीडी की तरह ही कागज का एक टुकड़ा होता है, जिसपर 25 रुपये प्रिंट खर्च आता है। बैंक से खरीदने के बाद इसे अपनी मनपसंद पॉलिटिकल पार्टी को दिया जाता है, उसके बाद पार्टी अपने खाते में उसे केस करवा लेती है, लेकिन इससे यह पता नहीं चलता है कि बॉन्ड खरीदने वाला कौन था और उसके पास पैसा कहां से आया।
यानी सीधे तौर समझें तो यह पता नहीं चलता था कि जो चंदा दिया गया है, वह कालाधन था या सफेद। यहां तक कि चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग भी नहीं जानता कि चंदा किसने दिया। पहले 20 हजार से अधिक का चंदा देने वाले का पता होता था। कारण यह था कि 2000 से अधिक का चंदा केस नहीं दिया जा सकता था। कोई भी दानदाता बैंक चैक, डीडी या खाते में ट्रांसफर के माध्यम से ही दे सकता था। 20 हजार से अधिक का चंदा देने वाले को संविधान की धारा 29सी के तहत चुनाव आयोग को जानकारी देनी होती थी।
केंद्र सरकार ने 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को फाइनेंस बिल के जरिए संसद में पेश किया था। संसद द्वारा संविधान के सेक्शन 182 में संशोधन कर 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम का नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया। इस स्कीम को अगर आसान भाषा में समझें तो इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय जरिया है, जो उसके दैनिक और चुनावी खर्च के लिए काम आता है।
मान लीजिए कि अमरसिंह के द्वारा चंदा दिया जा रहा है, तो वह एक शेल कंपनी को नगद रुपये देगा, जो एसबीआई बैंक से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदेगी और फिर उसे राजनीतिक दल को देगी। पार्टी द्वारा उसे अपने खाते में केस करवा लिया जाएगा, लेकिन इसके बाद भी चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट और विधि आयोग में से किसी को यह पता नहीं चलेगा कि किस कंपनी ने कितना चंदा दिया है।
यानी अमरसिंह द्वारा अपना कालाधन सफेद करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया। बैंक से खरीदने के बाद चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिस दौरान इसका इस्तेमाल होना जरूरी है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत इस चंदे का उपयोग पंजीकृत उन राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है, जिनको लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट प्राप्त हुए हैं।
इस स्कीम पर सवाल उठाते हुए 26 मई 2017 में विधि आयोग को लिखे अपने पत्र में चुनाव आयोग ने कहा था कि इस स्कीम में पारदर्शिता नहीं है, इस गुप्त स्कीम का फायदा उठाते हुए विदेशी कंपनियां भी चाहे जितना चंदा दे सकती हैं। किसी के द्वारा शेल कंपनी बनाकर कालेधन को सफेद किया जा सकता, इससे मतदाताओं के संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा और विदेशी ताकतें भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती हैं।
मजेदार बात यह है कि इस स्कीम का फायदा सरकारी कंपनियों से चंदा लेकर भी उठाया जा रहा था। पहले कोई भी सरकार कंपनी राजनीतिक दलों को अपने नेट प्रॉफिट का अधिकतम 7.5 फीसदी चंदा ही दे सकती थीं, लेकिन इलेक्ट्रोरल बॉन्ड स्कीम लॉन्च होने के बाद कोई ऊपरी सीमा नहीं थी। इस योजना के बनने की भी रोचक कहानी है।
जब इसके लिए संविधान संशोधन की ड्राफ्टिंग चल रही थी, तब 16 मार्च 2017 को कॉरपोरेट मिनिस्ट्री और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के बीच एक अनौपचारिक बातचीत के जरिए सब कुछ तय किया गया, जबकि अक्टूबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा था कि सिविल सर्वेंट्स के बीच अनौपचारिक काम या फैसला नहीं हो सकता है।
कानून बनने के बाद रिजर्व बैंक ने भी इसको लेकर आपत्ति जताई थी। आरबीआई ने कहा था कि यह प्रक्रिया किसी बैंक से नहीं, बल्कि आरबीआई से की जानी चाहिए, क्योंकि इसके जरिए मनी लॉन्ड्रिंग होने का खतरा है। आरबीआई ने यह भी कहा है कि इसका प्रिंट खर्च सरकार पर नहीं डालना चाहिए। आरबीआई के साथ ही विधि आयोग ने कहा कि इस कानून में एक फीसदी से अधिक वोट पाने वाले दल को ही चंदा लेने का अधिकार है, जो कि संविधान की धारा 29बी का खुला उल्लंघन है। इस स्कीम के कारण 'रिप्रजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट' का भी उल्लंघन हो रहा है। जिसके बाद सरकार ने एक्ट में संशोधन कर धारा 29बी को ही बदल डाला।
विधि आयोग ने कहा कि इलेक्ट्रोरल बॉन्ड प्रिंट कराने का खर्च बैंक या सरकार नहीं उठाए, लेकिन सरकार द्वारा इस आपत्ति को अनदेखा कर दिया। बॉन्ड प्रिंटिंग के खर्चे को लेकर आरटीआई कार्यकर्ता कमोडो लोकेश बत्रा ने जानकारी मांगी तो पता चला कि बॉन्ड प्रिंट कराने के लिए अबतक 7.63 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। एक बॉन्ड की कीमत 25 रुपये होती है। अब तक राजनीतिक दलों को मिले इलेक्ट्रोरल बॉन्ड्स में सर्वाधिक 75 फीसदी चंदा एक करोड़ से अधिक के रूप में मिला है। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस स्कीम के जरिए गुप्त रूप से राजनीतिक दलों को कितना चंदा मिला होगा।
इससे पहले एक्ट में संशोधन करते समय सरकार ने कहा था कि चंदा देने वाले की पहचान बिलकुल गुप्त रखी जाएगी, लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ। गुप्त तरीके से बॉन्ड जारी करने वाले एसबीआई बैंक के जरिए सभी जानकारियां सरकार तक पहुंच रही हैं। इलेक्शन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म ने एक्ट के इस पॉइंट पर सवाल उठाते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। जिसमें बताया गया कि 2018 में कानून बनने के बाद अबतक 6 साल में भाजपा को 5271.97 करोड़ रुपये का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिला।
इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के माध्यम से चंदा लेने के मामले में 1783.93 करोड़ रुपये के साथ दूसरे नंबर पर है, जबकि तीसरे नंबर पर ममता बनर्जी गी टीएमसी पार्टी है। दरअसल, बॉन्ड में वैसे तो ऐसी कोई बात नहीं होती है, जिससे चंदा देने वाले की पहचान उजागर हो या जिस पार्टी को चंदा दिया जा रहा है, उसकी पहचान की जा सके, लेकिन बॉन्ड के एक कोने में एक गुप्त नंबर होता है, जो अल्ट्रा वायलेट रोशनी में दिखाई देता है। एक्ट में संशोधन करते समय सरकार ने संसद को इस नंबर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी।
जब एसबीआई के द्वारा बॉन्ड जारी किया जाता है, तब उस गुप्त नंबर को नोट किया जाता है। जब बॉन्ड किसी दल को मिलता है और वह अपने खाते में केस करवाता है, तब एसबीआई द्वारा रजिस्टर में उस नंबर की फिर से एंट्री की जाती है। दोनों नंबरों को मिलाकर आसानी से पता लगाया जा सकता है कि बॉन्ड किसने खरीदा और इस इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के माध्यम से किस राजनीतिक दल को चंदा दिया गया। एसबीआई सरकारी बैंक है, इसलिए केंद्र में जिस दल की सरकार होती है, बैंक उसी के अंडर में आता है। इस तरह से बैंक के द्वारा सारी जानकारी सत्ताधारी पार्टी की सरकार को दी जा सकती। इस तरह से पता चल सकता है कि कौन कारोबारी या दानदाता किस दल को, कितना चंदा दे रहा है।
इसके बाद सत्ताधारी दल चाहे तो उस कारोबारी या दानदाता को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुंचा सकता है। सरकार चाहे तो ऐसे कारोबारी के खिलाफ दूसरे तरीके से एक्शन ले सकती है या उसके कारोबार को अटकाने का काम भी कर सकती है। दानदाता के खिलाफ इनकम टैक्स या ईडी के द्वारा कार्यवाही की जा सकती है।
ऐसे में सरकार की नाराजगी से बचने के लिए कोई कारोबारी या दानदाता विपक्षी दलों को चंदा ही नहीं देगा। कारोबारियों के डर या लालच का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि बीते 6 साल में इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से 5271 करोड़ रुपये को चंदा भाजपा को मिला, जबकि विपक्ष दल कांग्रेस को केवल 1783 करोड़ रुपये का चंदा ही मिल पाया है।
पीआईएल के जरिए जब इस गुप्त नंबर की जानकारी सामने आई तब सरकार ने कोर्ट में कहा कि यह गुप्त कोड सुरक्षा की वजह से जरूरी फीचर है। सरकार ने सफाई देते हुए कहा है कि इस गुप्त नंबर से बैंक यह पहचान कर लेता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड असली है या नकली।
इस वजह से इसे जारी करने वाले एसबीआई बैंक के द्वारा रिकॉर्ड किया जाता है। जिसके बाद बैंक ओडिटिंग के समय नंबर काम आता है। असल बात यह है कि चंदा देने वाले की पहचान जानने के लिए ही सरकार इलेक्ट्रोरल बॉन्ड पर गुप्त रूप से एक नंबर अंकित करती है।
इस विषय पर सवाल उठाते हुए एडीआर ने एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाए गए थे। एक्ट में संशोधन, इलेक्टोरल बॉन्ड पर अंकित गुप्त नंबर और चंदा देने वाले, लेने वाले की पहचान सार्वजनिक नहीं करने की बात मतदाता के अधिकारों का उल्लंघन करार देते हुए ही एडीआर सहित चार अन्य लोगों ने 2018 में इस स्कीम को तुरंत प्रभाव से बंद करने के लिए शीर्ष अदालत में पीआईएल दायर की थी।
जिस पर सुनवाई करते हुए 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए स्कीम को गैर संवैधानिक करार दिया और तुरंत रोक लगा दी। साथ ही चुनाव आयोग से कहा कि 13 मार्च तक एसबीआई से इसकी पूरी जानकारी लेकर अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करें कि किसने इलेक्टोरल बॉन्ड से किस पार्टी को कितना चंदा दिया है।
Post a Comment