मोदी के विजय रथ को रोक पाएगा किसान आंदोलन?



इस समय दुनियाभर के कई देशों में किसान आंदोलन चल रहे हैं। यूरोप के कई देशों में किसान अपनी मांगों को लेकर राजधानियों में घुस रहे हैं। फ्रांस जैसे देश की राजधानी इससे अछूती नहीं है। भारत के इतिहास का सबसे लंबा किसान आंदोलन सबको याद है, जब 2020 में दिल्ली की तीन सीमाओं पर 13 महीने तक किसान डेरा डालकर बैठ गए थे, जिसके बाद केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े थे। 

भले ही उस उस दौरान सरकार को मत हो कि कानून किसान हित में थे, लेकिन अंतत: किसानों के आगे केंद्र सरकार को ही पीछे हटना पड़ा। उस आंदोलन ने किसानों को आंदोलन का एक तरीका दिया तो केंद्र सरकार को भी बता दिया कि यदि किसान एक होकर दिल्ली आएंगे तो खाली हाथ वापस नहीं जाएंगे। 

लोकसभा चुनाव 2024 से पहले देश में एक बार फिर से किसान आंदोलन को लेकर माहौल गर्माता हुआ दिख रहा है, जिसको लेकर इन दिनों कई किसान संंगठन मोर्चाबंंदी करते हुए दिखाई दे रहे हैं तो कुछ किसान संगठन सड़कों पर किसान शक्‍ति का प्रदर्शन भी कर रहे हैं। 

पिछली बार किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरा रहे भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने 16 फरवरी से किसान आंदोलन का ऐलान कर दिया है तो एक बार फिर से पंजाब—हरियाणा से उठकर 13 फरवरी से किसान आंदोलन की शुरू हो गया है, जिसपर विराम लगाने के लिए केंद्र सरकार ने गुरुवार 8 फरवरी से ही मंत्रियों के द्वारा चंडीगढ़ में किसान नेताओं से बातचीत शुरू कर दी थी।

एक बार फिर से किसान आंदोलन तो शुरू हो रहा है, लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले किसान कई गुटों में बंटे हुए दिखाई दे रहे हैं। जिसके कारण आम किसानों के बीच कन्‍फ्यूजन की स्‍थिति बन रही है। 

साफ नहीं हो पा रहा है कि कौनसे संगठन के नेतृत्‍व में कौनसा आंदोलन चलाया जा रहा है और कौनसा संगठन किन मांगों को लेकर आंदोलन को लेकर सड़कों पर उतरने की तैयारी कर रहा है। आइए समझते हैं कि कौनसे किसान संंगठनों से आंदोलन का ऐलान किया है, कौन नेता इस आंदोलन के प्रमुख चेहरा हैं, इनकी मांगें क्‍या हैं?

बेशक किसान संगठनों की तरफ से आंदोलन की अलग-अलग अपील की वजह से आम किसानाें के बीच कन्फ्यूजन बना हुआ है, लेकिन लाेकसभा चुनाव से पहले प्रस्‍तावित किसान आंदोलन को बेहद अहम माना जा रहा है। 

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्‍ली की सीमाओं पर 13 महीने तक किसान आंदोलन का नेतृत्‍व किया था, तब SKM कई किसान संंगठनों का संयुक्‍त संगठन था। 

SKM की तरफ से 13 महीने तक चलाए गए किसान आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार को तीनों कानूनों को वापस लेना पड़ा था, जिसे किसानों की जीत के तौर पर देखा गया। ऐसे में इस किसान आंदोलन पर आम आदमी और आम किसानों की नजरें बनी हुई हैं, क्‍योंकि इसे 13 महीने तक चले सफल किसान आंदोलन का अगला संस्करण माना जा रहा है।

अराजनैतिक संयुक्त किसान मोर्चा है और किसान मजदूर मोर्चा ने 13 फरवरी को दिल्ली कूच का ऐलान किया है। दोनों ही संगठन पहले SKM का हिस्‍सा रहे हैं और अभी इसमें अधिकांश संगठन पंजाब, हरियाणा, मध्‍य प्रदेश, यूपी के हैं। नए संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा ने आंदोलन का कमांड सेंटर चंडीगढ़ को बनाया हुआ है। 

आंदोलन की अगुवाई में चंडीगढ़ से ही दिल्‍ली के जंतर-मंतर चलो का आह्वान किया गया है। आंदोलन की शुरुआत चंडीगढ़ से 13 फरवरी को प्रस्तावित है, जिसकी युद्ध स्तर पर तैयारियां चल रही हैं। 

हरियाणा में सरकार ने एक दर्जन से अधिक जिलों में इंटरनेट और मैसेज सर्विस को बंद कर दिया है, जबकि शंभु बॉर्डर, सिंघु, गाजीपुर और शाहजहांपुर बॉडर जैसे दिल्ली के राष्ट्रीय राजमार्गों पर कांटे बिछा दिए गए हैं। हजारों की संख्या में ट्रैक्टर—ट्रॉली दिल्ली के लिए निकल पड़े हैं। अगले 6 महीने का राशन लेकर निकल रहे किसानों को पेट्रोल पंप से केवल 10 लीटर डीजल दिया जा रहा है। 

इस बार आंदोलन का केंद्र पंजाब के बजाए हरियाणा में दिखाई दे रहा है। हरियाणा की खट्टर सरकार ने गांव—गांव में ऐलान करवा दिया है कि जो भी किसान इस आंदोलन में शामिल होगा, उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया जाएगा। समझने वाली बात यह है कि कितने किसान पासपोर्ट रखते हैं, पासपोर्ट  रद्द होने के दुष्प्रभाव को देखते हुए कितने किसान आंदोलन से दूर रहेंगे।

इस नए संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा की कुल 12 मांगों के साथ किसान आंदोलन की मोर्चाबंदी की गई है। इनकी मांग है कि सभी फसलें MSP पर खरीदी जाएं, MSP गारंटी कानून बनाई जाएं और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसलों के भाव तय किए जाएं। 

किसानों और मजदूरों की पूर्ण कर्ज मुक्ति की जाए। भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को पूरे देश में फिर से लागू किया जाए। भूमि अधिग्रहण से पहले किसानों की लिखित सहमति और डीएलसी रेट से 4 गुना मुआवजा देने की व्‍यवस्‍था हो। लखीमपुर खीरी नरसंहार के दोषियों को सजा और पीड़ित किसानों को न्याय मिले। 

भारत विश्व व्यापार संगठन से बाहर आए। सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगाई जाए। किसानों और खेत मजदूरों को पेंशन दी जाए। दिल्ली किसान आंदोलन में शहीद हुए 700 किसानों के परिजनों को एक लाख का मुआवजा और सरकारी नौकरी दी जाए। विद्युत संशोधन विधेयक—2020 को रद्द किया जाए। 

मनरेगा से प्रति वर्ष 100 की जगह 200 दिन का रोजगार और 700 रुपये प्रतिदिन मजदूरी भत्ता दिया जाए। मनरेगा को खेती के साथ जोड़ा जाए। नकली बीज, कीटनाशक दवाइयां, खाद बनाने वाली कंपनियों पर सख्त दंड और जुर्माने का प्रावधान हो, बीजों की गुणवत्ता में सुधार किया जाएं। 

मिर्च, हल्दी और अन्य मसालों के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया जाए। संविधान की 5 सूची को लागू किया जाए, जल, जंगल, जमीन पर आदिवासियों के अधिकार सुनिश्चित करते हुए आदिवासियों की जमीन की लूट बन्द की जाए।

इस नए संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा में जगजीत सिंह डल्लेवाल, सरवन सिंह पंधेर, अभिमन्यु कोहाड़, अमरजीत सिंह मोहड़ी, दिलबाग सिंह हरिगढ़, शिवकुमार शर्मा कक्‍काजी, राजिंदर सिंह चाहल, सुरजीत सिंह फूल, सुखजीत सिंह हरदोझंडे, गुरध्यान सिंह भटेड़ी, सुखजिंदर सिंह खोसा, गुरमनीत सिंह मांगट, रंजीत राजू, राहुल राज जैसे किसान नेता शामिल हैं।

एक तरफ जहां अराजनैतिक संयुक्त किसान मोर्चा और किसान मजदूर मोर्चा ने 13 फरवरी से आंदोलन का ऐलान किया हुआ है, तो दूसरी तरफ पुराने संयुक्‍त किसान मोर्चा ने 16 फरवरी को ग्रामीण भारत बंद और औद्योगिक बंद का ऐलान किया है। 

SKM को 13 महीने तक चले किसान आंदोलन का मूल संंगठन माना जाता है। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ सफल आंदोलन के बाद SKM में टूट हुई थी। कई किसान संगठनों ने SKM से दूरी बनाई थी। अभी जो किसान संगठन इसमें बचे हुए हैं, उन्‍होंने 16 फरवरी को ग्रामीण भारत बंद का ऐलान किया है, जिसमें SKM के साथ केंद्रीय ट्रेड यूनियन भी शामिल हैं।

SKM और केंद्रीय ट्रेड यूनियन ने अपनी मांगों को लेकर ग्रामीण भारत बंद बुलाया है। केंद्रीय ट्रेड यूनियन की मांग है कि रिक्त पदों पर भर्ती शुरू की जाए और बढ़ती महंगाई को नियंत्रित किया जाए। फसलों की गारंटीकृत खरीद और एमएसपी सी2+50 फीसदी फार्मूले से तय करने की मांग पूरी की जाए। कृषि की लागत कम की जाए, किसानों और मजदूर परिवारों के लिए व्यापक ऋण माफी की घोषणा की जाए। 

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का निजीकरण और बिक्री बंद की जाए। मजदूर विरोधी 4 श्रम संहिता रद्द किए जाए, ठेका कार्यों को खत्म किया जाए और न्यूनतम वेतन बढ़ाकर 26000 रुपये प्रतिमाह किया जाए। शिक्षा और स्वास्थ्य का निजीकरण बंद किया जाए, नई शिक्षा नीति—2020 को रद्द किया जाए। 

पुरानी पेंशन योजना को बहाल किया जाए, खुदरा व्यापार में कॉर्पोरेट प्रवेश को रोका जाए। लखीमपुर खीरी में किसानों के नरसंहार के मुख्य साजिशकर्ता केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी को बर्खास्त करने और उन पर मुकदमा चलाया जाए। भारतीय लोगों को इजराइल में रोजगार के लिए भर्ती बंद करने की भी मांग की गई है।

SKM के बड़े चेहरों की बात करें तो डॉ. दर्शनपाल सिंंह मौजूदा वक्‍त में इसके संयोजक हैं तो बीकेयू के राकेश टिकैत, जय किसान के अविक शाह, बलवीर सिंह राजेवाला, जोगेंद्र सिंह उगराहां शामिल हैं। 

इसको लेकर 8 फरवरी को नाेएडा-ग्रेटर के किसान सड़कों पर उतर आए थे। ऐसा नहीं है कि नाेएडा-ग्रेटर के किसान पहली बार सड़कों पर थे, लेकिन उस दिन नाेएडा-ग्रेटर के किसानों ने दिल्‍ली तक मार्च का ऐलान किया था। 

असल में नाेएडा-ग्रेटर के तकरीबन 149 गांवों के किसान लंबे समय से अपनी मांगों को लेकर कई जगह विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन मांगों पर सुनवाई ना होने के चलते गुरुवार को किसानों ने दिल्‍ली के जंतर-मंतर तक मार्च का ऐलान किया था। 

आधे रास्‍ते पर पुलिस ने उन्‍हें रोक दिया और आश्वासन के बाद किसानों ने अपना आंदोलन स्थगित कर लिया। इन किसानों की मांगों की बात करें तो अधिग्रहित जमीन में से 10% प्लॉट, बढ़ा हुआ मुआवजा और स्थानीय लोगों को रोजगार जैसी बातें शामिल थीं।

SKM और SKM अराजनैतिक की तरफ से बुलाए गए किसान आंदोलन के इतर भारतीय किसान संघ ने भी किसान आंदोलन का ऐलान किया है। सीफा में दक्षिण भारतीय किसान संगठनों की सक्रियता दिखाई दे रही है। 

असल में सीफा के अध्‍यक्ष महाराष्‍ट्र के किसान नेता रघुनाथ पाटिल हैं, जो बीते दिनों केसीआर की बीआरएस में शामिल हो गए थे। रघुनाथ पाटिल महाराष्ट्र में बीआरएस की राजनीति करते हैं। इसके साथ ही सीफा में तेलंगाना, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, पंजाब से किसान संगठन जुड़े हुए हैं। 

सीफा ने बीते दिनों दिल्‍ली में तीन दिवसीय बैठक कर 12 सूत्रीय मांग पत्र तैयार किया है, जिसको लेकर सीफा से जुड़े किसान संगठन 29 फरवरी को जिले स्‍तर पर मार्च करेंगे। इनका कहना है कि बीज, कीटनाशकों, ट्रैक्‍टर समेत सभी कृषि उपकरणों से जीएसटी को हटाया जाए। साथ ही कपास की ब्रिक्री पर जो जीएसटी लगता है, उसका बोझ किसानाें पर नहीं डाला जाए, सिर्फ व्यापारी ही जीएसटी चुकाएं। 

मनरेगा के 80 फीसदी फंड को कृषि कामों से जोड़ा जाए। सभी फसलों का MSP तय किया जाए और कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट को खत्‍म किया जाए, इसकी जगह पर एक वैधानिक निकाय बनाया जाए। कृषि उत्पादों के निर्यात पर लगे बैन को हटाया जाए। 

फसल बीमा के लिए किसानों को जिला स्‍तर पर बीमा कंपनी चुनने का अधिकार दिए जाए और नुकसान पर 30 दिन में मुआवजा देने की व्यवस्था हो। 

गन्ने का बकाया भुगतान तुरंत किया जाए, बंद पड़ी गन्ना मिलों को चालू किया जाए, चीनी को आवश्‍यक वस्‍तु अधिनियम से बाहर जाए, देश के सभी किसानों को नियमानुसार अफीम लाइसेंस देने की व्यवस्था लागू हो, देश में किसान कर्ज माफी लागू की जाए, जीएम बीजों पर लगे प्रतिबंध को हटाया जाए, जंगली जानवरों से होने वाले फसल नुकसान के आंकलन और सुरक्षा उपाय के लिए कमेटी का गठन किया जाए।

इस आंदोलन में सीफा के अध्यक्ष रघुनाथ दादा पाटिल हैं, तो इसमें तेलंगाना से सोमा शेखर राव, आंध्र प्रदेश से कोटी रेड्डी, पंजाब से सतनाम बेहरु, राजस्थान से कन्हैया लाल सिहाग, कर्नाटक से शांता कुमार शामिल हैं। 

लोकसभा चुनाव से पहले उठे इस आंदोलन के कारण लोगों को किसानों की मांगों के बजाए राजनीतिक फायदों की शंका अधिक हो रही है। असल में जब 13 महीने को किसान आंदोलन हुआ था, तब तीन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब से आंदोलन खड़ा हुआ था। 

यह आंदोलन उसकी अगली कड़ी के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें उस आंदोलन की अधूरी मांगों को पूरा कराने का दावा किया जा रहा है, लेकिन इसमें किसानों से अधिक मजदूरों और व्यापारियों के हित दिखाई दे रहे हैं। 

कहा जाता है कि जब पिछला आंदोलन हुआ था, तब उसको पीछे से सहयोग करने वाले बड़े कारोबारी आढ़तीये थे, जो किसान आंदोलन को आर्थिक सहयोग कर रहे थे। उन तीन कानूनों में से एक कानून मंड़ी में आढ़तियों की मोनोपॉली खत्म करने के लिए था, जिसके कारण आढ़तियों का एकाधिकार समाप्त हो रहा था। आढ़तियों ने किसानों को इस्तेमाल किया था, जबकि उन कानूनों से किसानों का कोई नुकसान नहीं हो रहा था। 

मांगों के आधार पर आप देख सकते हैं कि इस बार फिर से किसानों के बजाए कारोबारियों की मांगें अधिक प्रभावी हैं। असल बात यह है कि व्यापारी वर्ग सड़क पर उतरकर इतना बड़ा आंदोलन नहीं कर सकता, इसलिए अपनी मांगें मनवाने के लिए कारोबारियों द्वारा किसानों और मजदूरों को शामिल किया जाता है, ताकि कम पैसा खर्च किए आसानी से बड़े पैमाने पर मैन पावर उपलब्ध हो सके। 

किसानों के पास ट्रैक्टर हैं और इनमें लंबे समय तक सरकार से मुकाबला करने की हिम्मत होती है। इसलिए पर्दे के पीछे से व्यापारी वर्ग द्वारा किसानों को आंदोलन के लिए उकसाया जाता है, जबकि अधिसंख्य किसानों को इस बात का पता भी नहीं होता है कि आंदोलन के असल कारण क्या हैं?

पिछले आंदोलन से एक बात और साफ हो गई थी कि किसानों के नाम पर कनाड़ा, पाकिस्तान और चीन समेत कई मुस्लिम देशों द्वारा फंड देकर उसे प्रायोजित किया गया था। जिसमें कई साजिशकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे चल रहे हैं। किसान लंबे समय तक खाने के लिए भोजन की व्यवस्था कर सकता है, लेकिन आंदोलन में जिस तरह की व्यवस्थाएं की गई थीं, वो निश्चित ही कारोबारी वर्ग के द्वारा प्रायोजित किया गया था। 

इस बार में फर्क यह भी है कि तब केंद्र में सरकार को बने अधिक दिन नहीं हुए थे, लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव के साथ ही हरियाणा में भी विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं। इस वजह से इस आंदोलन की टाइमिंग को लेकर भी प्रश्न खड़े हो रहे हैं, ऊपर से आंदोलन में पर्दे के पीछे से कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और दूसरे विपक्षी दलों को साथ होना इस बात का प्रमाण है कि आंदोलन में किसानों हितों के बजाए राजनीति करने वाले अधिक हैं। 

पिछली बार जब किसान आंदोलन हुआ था, तब पंजाब में कांग्रेस की सरकार थी और अब आम आदमी पार्टी की सरकार है, जो दिल्ली की तरफ बढ़ते किसानों को रोकने का प्रयास नहीं कर रही है। पिछली बार भी यह बात साफ हो गई थी कि आंदोलन को पंजाब सरकार द्वारा प्रोत्साहित किया गया था और गतिविधियों से इस बार भी स्पष्ट है कि इस आंदोलन को आम आदमी पार्टी प्रायोजित कर रही है। 

अरविंद केजरीवाल शराब घोटाले समेत भ्रष्टाचार के मामले में ईडी के निशाने पर हैं, इस वजह से केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए किसान आंदोलन का सहारा ले रहे हैं। 

हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार जहां आंदोलन की धार को कुंद करने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपना रही है तो पंजाब में आम आदमी पार्टी की भगवंत मान सरकार ने दिल्ली की तरफ बढ़ते किसानों को रोकने के लिए किसी तरह की रुकावट नहीं डाली है। इससे जाहिर है कि आंदोलन में किसान हितों से ज्यादा राजनीतिक हितों को प्रमुखता दी जा रही है। 

आने वाले लोकसभा और हरियाणा चुनाव में साफ हो जाएगा कि किसान आंदोलन का कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को कितना फायदा मिला। किंतु इतना पक्का हो चुका है कि आम चुनाव से पहले आंदोलन शुरू कर किसानों ने केंद्र सरकार को संकट में जरूर डाल दिया है। 

यदि आंदोलन लंबा खिंचता है तो निश्चित तौर पर भाजपा को लोकसभा चुनाव और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में नुकसान होगा। यदि आंदोलन को जल्दी से समाप्त कर दिया जाता है तो इसका फायदा भाजपा को होगा, और यदि एक बार फिर से सड़क जाम कर दिल्ली को बंधक बनाया गया तो देश को फिर से अरबों रुपये का नुकसान होने वाला है। केंद्र सरकार को चाहिए कि किसान संगठनों के साथ वार्ता कर इस आंदोलन को जल्द से जल्द खत्म करे, ताकि आमजन को दुविधा नहीं हो। 

Post a Comment

Previous Post Next Post