राजस्थान में पिछली बार जब कांग्रेस की सरकार थी, तब सीएम अशोक गहलोत ने राज्य में अंग्रेजी माध्यम स्कूल शुरू किए। सरकार की सोच ऐसी रही कि अंग्रेजी भाषा सिखाने के लिए हजारों हिन्दी विद्यालयों की बलि ले ली गई। गहलोत ने कई बार उल्लेख किया कि उनको अंग्रेजी नहीं आती, इसलिए उनको शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। मजेदार बात यह है कि गहलोत की व्यक्तिगत कुंठा का बोझ राजस्थान को उठाना पड़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए जहां नए विद्यालय खोलने की जरुरत थी, वहां गहलोत की व्यक्तिगत दुख ने पूर्व में संचालित हो रहे करीब 3 हजार हिन्दी विद्यालयों को बंद कर दिया।
सोनिया गांधी को हिन्दी नहीं आती, इसलिए गहलोत को कुंठित होना पड़ा और इसी फ्रस्टेशन में उन्होंने प्रदेश के हिन्दी विद्यालयों की बलि ले ली। गहलोत और उनके जैसे लाखों अंग्रेजी मानसिकता के गुलामों को लगता है कि अंग्रेजी में ज्ञान है, हिन्दी में नहीं है। असल बात यह है कि जितना ज्ञान—विज्ञान हिन्दी की जननी संस्कृत में है, उतना किसी भाषा के ग्रंथ में नहीं है। अपितु अंग्रेजी के प्राचीन ज्ञान ग्रंथ ही नहीं हैं। गहलोत जैसे लोगों को आज तक समझ नहीं आई कि अंग्रेजी मात्र एक भाषा है, जबकि हिन्दी—संस्कृत में संवाद के साथ ज्ञान का खजाना है।
संस्कृत में लिखे वेद, पुराण, हर तरह की शिक्षा जैसा अति समृद्ध ज्ञान का खाजाना किसी दूसरी भाषा में उपलब्ध नहीं है। आज भी दुनिया इस खोज में लगी है कि संस्कृत ग्रंथों का रहस्य क्या है। कहते हैं दुनिया की सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। पाश्चात आधुनिकता की धारा में बहे भारत के कुछ लोगों को लगता है कि अंग्रेजी ही विद्वता है।
बात आती है कि भारत में विज्ञान पर इतना शोध किस प्रकार होता था, तो इसके मूल में है भारतीयों की जिज्ञासा एवं तार्किक क्षमता, जो अति प्राचीन उत्कृष्ट शिक्षा तंत्र एवं अध्यात्मिक मूल्यों की देन है। 'गुरुकुल' के बारे में बहुत लोगों को यह भ्रम है कि गुरुकुल में केवल संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी, जो कि बिलकुल गलत धारणा है।
असल बात यह है कि भारत में विज्ञान की 20 से अधिक शाखाएं रही हैं, जो प्राचीन भारत के लिए खोज और आविष्कार की जनक बनीं। इसमें खगोल शास्त्र, नक्षत्र शास्त्र, बर्फ़ बनाने का विज्ञान, धातु शास्त्र, रसायन शास्त्र, स्थापत्य शास्त्र, वनस्पति विज्ञान, नौका शास्त्र, यंत्र विज्ञान आदि प्रमुख रही हैं। इसके साथ ही युद्ध की भी विभिन्न कलाएँ प्रचुरता में रही हैं। संस्कृत भाषा में मुख्यतः उपनिषद एवं वेद छात्रों में उच्चचरित्र एवं संस्कार निर्माण के लिए पढ़ाए जाते थे। दुनिया के विद्वान आज भी संस्कृत में लिखे हमारे ग्रंथों में छुपा रहस्य ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं।
थोमस मुनरो सन 1713 के आसपास मद्रास प्रांत के राज्यपाल थे, उन्होंने अपने कार्य विवरण में लिखा है, 'मद्रास प्रांत, जो कि आज का आंद्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल एवं कर्णाटक का कुछ भाग है, जिसमें 500 लोगों पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। उत्तर भारत, अर्थात आज का पूर्ण पाकिस्तान, पूर्ण पंजाब, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के सर्वेक्षण के आधार पर जी.डब्लू. लिटनेर ने सन 1722 में लिखा है कि उत्तर भारत में 200 लोगों पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। माना जाता है कि मैक्स मूलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक शोध किया है। मैक्स मूलर लिखते हैं कि 'भारत के बंगाल प्रांत, यानी बिहार, आधा उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आसाम एवं उसके ऊपर के सात प्रदेशों में 70 हज़ार से अधिक गुरुकुल हैं, जो कि कई हजार वर्षों तक निर्बाध रूप से चल रहे हैं।'
उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के आकडों के कुल पर औसत निकलने से यह ज्ञात होता है की भारत में 17वीं शताब्दी तक 300 व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल था। एक और चौकानें वाला तथ्य यह है की 17वीं शताब्दी में भारत की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ थी। इस तरह से 300 व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल मानें तो भारत में 6 लाख 32 हजार गुरुकुल संचालित होते थे।
अब रोचक बात यह भी है कि अंग्रेज प्रत्येक दस वर्ष में भारत का सर्वेक्षण करवाते थे। उसेके अनुसार 1822 के लगभग भारत में कुल गांवों की संख्या भी लगभग 7 लाख 32 हजार थी। इसका मतलब आज से करीब 300 वर्ष पहले भारत के प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल हुआ करता था। 16 से 17 वर्ष भारत में प्रवास करने वाले अंग्रेजी शिक्षाशास्त्री जॉन मैक्लम लुडलो ने भी 18वीं शताब्दी में यही लिखा की “भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं है, जिसमें गुरुकुल नहीं है और एक भी बालक ऐसा नहीं जो गुरुकुल नहीं जाता है। इसका मतलब उस समय भारत पूरी तरह से शिक्षित था। लुडलो ने लिखा है कि राजा की सहायता से नहीं, बल्कि समाज से पोषित इन्हीं गुरुकुलों के कारण 18वीं शताब्दी तक भारत में साक्षरता 97% थी।
प्रत्येक बालक के 5 वर्ष, 5 माह, 5 दिवस के होते ही उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था। प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यार्जन का क्रम 14 वर्ष तक चलता था। जब बालक सभी वर्गों के बालकों के साथ निशुल्कः 20 से अधिक विषयों का अध्ययन कर गुरुकुल से निकलता था, तब आत्मनिर्भर, देश एवं समाज सेवा के लिए सक्षम हो जाता था। इसके उपरांत युवक विशेषज्ञता, यानी पांडित्य प्राप्त करने के लिए भारत में विभिन्न विषयों वाले जैसे शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद, धातु कर्म आदि के विश्वविद्यालयों में प्रवेश करता था। नालंदा, विक्रमशिला एवं तक्षशिला तो 2000 वर्ष पहले के हैं, परंतु मात्र 150 से 170 वर्ष ईस्वीं पूर्व भी भारत में 500-525 के लगभग विश्वविद्यालय थे। थोमस बेबिंगटन मैकोले, जिसे आप और हम मैकोले के नाम से जानते हैं, जिन्हें पहले भारत ने विराम दिया था। मैकाले जब 1834 में भारत आया तो कई वर्षों भारत में यात्राएँ एवं सर्वेक्षण करने के उपरांत समझ गया कि अंग्रेजों से पहले के जितनें भी आक्रांताओं, मतलब यवनों, मुगलों आदि ने भारत के राजाओं, संपदाओं एवं धर्म का नष्ट करने की जो भूल की है, उससे भारत कभी भी नष्ट—भ्रष्ट नहीं किया जा सकेगा।
भारत की सत्यता, संस्कृति, शिक्षा को नष्ट किये बिना भारत के लोगों को गुलाम नहीं रखा जा सकता है। वर्षों तक भारत भ्रमण करने के बाद टीबी मैकाले ने अपनी एक विस्तृत रिपोर्ट ब्रिटिश महारानी को भेजी, जिसमें स्पष्ट किया गया कि जब तक भारत की गुरुकुल व्यवस्था को बंद नहीं किया जाएगा, तब तक भारत को अधिक समय तक गुलाम नहीं रखा जा सकेगा। इसलिए 'इंडियन एज्यूकेशन एक्ट' बनाकर समस्त गुरुकुल बंद करवाए गए। ब्रिटिश—भारत के शासन एवं शिक्षा तंत्र को इसी लक्ष्य से निर्मित किया गया, ताकि नकारात्मक विचार, भारतीय में अंग्रेजों के बजाए हीनता की भावना भर जाए। जो विदेशी है वही सबसे अच्छा है, अंग्रेजों से बिना तर्क किये उनकी बनाई शिक्षा पदत्ति को रटने के बीज बचपन से ही बच्चों के मन में ठूंस दिया गया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रिटिशर्स ने ऐसी किताबें तैयार करवाईं, जिससे बिना लड़ाई लड़े ही यहां की सभ्यता, संस्कृति और शिक्षा को नष्ट किया जा सके।
इसके साथ ही संस्कृति और हिंदी के बजाए अंग्रेजी भाषा में शिक्षा नीति थोपी गई। अंग्रेजी भाषा नहीं होती तो इस कुचक्र के पहले माता—पिता ही रोक लेते, परंतु गुरुकुल की जगह स्कूल बनाकर बचपन से ही इंग्लिश को श्रेष्ठ बताया गया। गुरुकुल की तरह ही भारत में कुटीर उद्योग गांव—गांव, घर—घर में इतना उत्पादन करते थे कि भारत में निर्मित माल सुदूर देशों तक जाता था। इस निर्यात और कुटरी उद्योगों की कमर तोड़ने के लिए भारत में स्वदेशी वस्तुओं पर बहुत अधिक मात्रा में टैक्स लगाया गया। साथ ही ब्रिटेन से आयात वस्तुओं को टैक्स फ्री कर दिया गया।
कृषकों पर 90% कर लगाकर पूरी फसल ही लूट लेते थे। “लैंड एक्विजिशन एक्ट” यानी भूमि अधिग्रहण के माध्यम से हजारों एकड़ भूमि किसानों से छीन ली गई। किसान के कार्यों में सबसे अधिक सहायक गौवंश और भैसों को काटने के लिए पहली बार कलकत्ता में कसाईघर चालू किया गया। भारतीयों की मानसिक गुलामी का आलम यह है कि वो सभी कसाईघर अभी भी चल रहा है।
15 अगस्त 1947 को सत्ता हस्तांतरण के बाद भी इस कुचक्र से मुक्ति नहीं मिली। भारत की पहले अंग्रेजों पर निर्भरता के लिए काले अंग्रेजों पर हो गई। इन काले अंग्रेजों के पास यह साहस ही नहीं है कि भारत को फिर से गुरुकुल पदत्ति की तरफ ले जा सकें। दुर्भाग्य यह रहा कि विदेशी मानसिकता के कुचक्र में फंसा भारत बीते 75 वर्षों में अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरुषों को लगभग भूल चुका है। इसका मूल कारण विदेशी भाषा, व्यक्ति, संस्कृति इत्यादी का प्रभाव रहा है। केवल अंग्रेजी भाषा और विकृत संस्कृति का बुरा असर ऐसा हुआ है कि अपने बारे में हीनता भावना की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त है।
आप सोच रहे होंगे जब भारत के पास सात लाख से अधिक गुरुकुल थे, तब समय अमेरिका—यूरोप की क्या स्थिति थी। सामान्य बच्चों के लिए सार्वजानिक विद्यालयों की शुरुआत सबसे पहले इंग्लेण्ड में सन 1767 में हुई थी। उसके बाद बाकी यूरोप, अमेरिका में हुई। अर्थात जब भारत में प्रत्येक गांव में एक गुरुकुल था, 97% साक्षरता थी, तब इंग्लेण्ड के बच्चों को पढ़ने का अवसर मिलना शुरू हुआ था। आप कहेंगे क्या पहले वहां विद्यालय नहीं होते थे? होते थे, परंतु महलों के भीतर। वहां ऐसी मान्यता थी कि शिक्षा केवल राजपरिवार के व्यक्तियों को ही देनी चाहिए, बाकी सब को उनकी सेवा करनी चाहिए।
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