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राजेंद्र राठौड़ जीते तो भी सीएम नहीं बन पाएंगे!




राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए मतदान होने के बाद सबको 3 दिसंबर को इंतजार है, जब मतगणना की जाएगी और उसके बाद परिणाम जारी होगा। मतगणना के बाद कांग्रेस नेता जहां अपनी सरकार रिपीट होने का दावा कर रहे हैं, तो सीएम अशोक गहलोत ने साफ कहा है कि वो जीत रहे हैं, लेकिन जनता जो भी परिणाम देगी, वो स्वीकार्य होगा। यानी भले ही 156 सीटें जीतने का दावा करते हुए चुनाव लड़ा होग, लेकिन हकीकत यह है कि खुद सीएम अशोक गहलोत भी आवश्वत नहीं हैं कि उनकी जीत होगा। दूसरी तरफ भाजपा के नेता 110 से लेकर 160 तक सीटों पर जीत दर्ज करने का दावा कर रहे हैं। हनुमान बेनीवाल दावा कर रहे हैं कि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहेगी, यानी बेनीवाल के अनुसार भाजपा—कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलेगा और जो सरकार बनाएगी, उसको आरएलपी का साथ चाहिए होगा। ऐसे में राजस्थान का सीएम जिस वो चाहेंगे, उसे ही बनाएंगे।


आज से लगातार परिणाम के दिन तक मैं बात करूंगा भाजपा की सरकार बनने पर कौन सीएम बन सकता है, उसके कारण क्या हैं और जो नहीं बन सकता है, उसके कारण क्या हैं? आज पहले एपिसोड में मैं आपको बताउंगा की संवैधानिक तौर पर भाजपा के सबसे बड़े नेता राजेंद्र सिंह राठौड़ के जीतने या हारने के बाद उनके सीएम बनने की कितनी संभावना है। साथ ही यह भी बताउंगा कि नहीं बनने की कितनी हैं और राठौड़ सीएम क्यों नहीं बन सकते हैं? उससे पहले राजेंद्र राठौड़ के राजनीतिक जीवन के बारे में थोड़ी जानकारी कर लेते हैं। दरअसल, राजेंद्र राठौड़ का जन्म 21 अप्रैल 1955 को हरपालसर गांव, सरदारशहर, जिला चूरू, राजस्थान में हुआ था। उनके पिता उत्तम सिंह राठौड़ आरएएस अधिकारी थे। उनकी स्कूली शिक्षा हनुमानगढ़ में हुई। इसके बाद उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से 1977 में एलएलबी, 1978 में डीएलएल और 1980 में एमए किया। इसी दौरान वर्ष 1979 में राजस्थान विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष बने।


वर्ष 1985 का विधानसभा चुनाव उन्होंने चूरू से लड़ा, लेकिन हार गए। अगले चुनाव में उन्होंने जनता दल के टिकट पर चुनाव जीता और भाजपा में शामिल हो गए। उसके बाद 1993 से 2018 तक लगातार 7 बार विधायक का चुनाव जीत चुके हैं। इस बार उनको तारानगर से टिकट मिला है, जहां पर उनका मुकाबला कांग्रेस के दिग्गज नेता नरेंद्र बुढ़ानिया से है। माना जा रहा है कि टिकट मिलने के बाद राठौड़ ने क्षेत्र में जाट वर्सेज अन्य जातियां करने का प्रयास किया, लेकिन जल्द ही उनको समझ आ गया है कि इससे उनकी जीत नहीं होगी। असल बात यह है कि चूरू या तारानगर से जब भी उन्होंने चुनाव लड़ा, तब उनको जाट जाति का ही सबसे अधिक वोट मिला, लेकिन इस बार उन्होंने उलटा दांव खेला और उसी में उलझ गए। उनके बेटे ने राजपूत समाज का काम करने की कसमें खाईं, जो अन्य जातियों को नाराज करने का कारण बना। चुनाव से कुछ समय पहले राठौड़ को समझ आ गया कि जाट समाज के बिना चुनाव नहीं जीत पाएंगे, लेकिन जब तक काफी देर हो चुकी थी। सोशल मीडिया के जमाने में जनता को हर चीज का ध्यान है। अपनी अंतिम सभा में उन्होंने मुस्लिम सम्मेलन का सहारा लिया और कुरान, खुदा, अल्लाह और अमन पसंद मुस्लिम बोलकर इस समाज को साधने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन वो भूल गए कि ये भाषण पूरी तरह से भाजपा की विचारधारा के विरूद्ध है। 


राठौड़ ये भी भूल गए कि राजस्थान चुनाव में भाजपा ने एक भी मुस्लिम को वोट नहीं देकर अपने इरादे साफ कर दिए हैं, तो भाजपा के सभी नेता पोलराइजेशन के सहारे हिंदूओं को एक करने का चुनाव लड़ रहे हैं। हालात इस कदर खराब हो गए कि खुद की सीट हारते देख राजेंद्र राठौड़ मुस्लिम सजाज की गौद में जाकर बैठ गए। यह भाषण सोशल मीडिया पर भी पड़ा है और उनके विरोधी नेताओं ने इसको ठेठ मोदी, शाह तक पहुंचा दिया है। इसका मतलब यह है कि हमेशा से आरएएस की पसंद में नहीं रहने वाले राठौड़ के खिलाफ चुनाव परिणाम से पहले ही भाजपा में माहौल बन चुका है। राठौड़ भूल जाते हैं कि भाजपा का मूल एजेंडा ही हिंदू एकता है, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े। किंतु राठौड़ ने इसके उलट किया। एक तरफ तो अपने कृत्यों से राजस्थान में हिंदूओं की सबसे बड़ी कौम जाट समाज से बैर मोल ले लिया, उपर से मुस्लिम समाज को साधने के लिए इस्लाम की शान में जमकर कसीदे गढ़ डाले। 


दरअसल, राजेंद्र राठौड़ का राजनीतिक कॅरियर जनता दल से हुआ है। वो कभी संघ की शाखाओं का हिस्सा नहीं रहे, यह बात और कि अपने फायदे के लिए संघ की प्रसंशा करते रहते हैं, किंतु इसके बाद भी संघ को उनपर तनिक भी विश्वास नहीं है। इसके तमाम राजनीतिक कारण हैं। राजेंद्र जब पहली बार जीते, तभी से सत्ता का हिस्सा बन गए। भैरोंसिंह शेखावत सरकार में राज्यमंत्री बने। इसके बाद 2003 और 2013 की वसुंधरा राजे सरकारों में पॉवरफुल कैबिनेट मंत्री रहे। राजेंद्र राठौड़ को राजस्थान की राजनीति का अजातक्षत्रु माना जाता है, यानी जिनके किसी भी दल में कोई दुश्मन नहीं हैं। यह बात संघ को भी पता है। और यही सबसे बड़ा कारण है, जो संघ को उनपर भरोसा नहीं करने देता है। राठौड़ जब सत्ता में होते हैं, तब कांग्रेस के बड़े नेताओं के काम करते हैं और जब विपक्ष में होते हैं तो कांग्रेस के मुख्यमंत्री और मंत्री उनका कोई काम नहीं रोकते हैं। इसी का परिणाम है कि राजेंद्र राठौड़ आज हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक बताए जाते हैं। भाजपा नेताओं से लेकर कांग्रेस के भी कई नेताओं के साथ उनकी कारोबारी साझेदारी किसी से छुपी नहीं है। 


विधानसभा के भीतर उनका रवैया सरकार के खिलाफ लगता है, लेकिन जब वो सदन से बाहर निकलते हैं तो कांग्रेस का उनसे बड़ा भाजपा में कोई मित्र दिखाई नहीं देता है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर गोविंद सिंह डोटासरा, प्रताप सिंह खाचरियावास से लेकर तमाम मंत्री उनके मित्र हैं। कांग्रेस के किसी भी नेताओं से उनकी दुश्मनी नहीं है। वो हनुमान बेनीवाल के भी मित्र हैं तो बड़े निर्दलीय नेताओं से भी उनकी मित्रता है। राजेंद्र राठौड़ भले ही समझते हों कि उनके कारोबार और विपक्ष में मित्रता का किसी को पता नहीं हो, लेकिन वास्तविकता यह है कि संघ के पास उनकी हर एक बात का रिकॉड है। उनके किसके साथ कितनी साझेदारी में कारोबार है और किन ठैकों से उनके पास ​कमिशन आता है, यह भी अच्छे से पता है। इस चुनाव में यह भी अरोप लगा है कि राजपूत समाज के एक संत के सहारे बजरी कारोबारी मेघराज सिंह रॉयल के द्वारा भी करोड़ों रुपये फंडिंग कर एक राजनीतिक दल बनाया गया है, ताकि भाजपा के साथ राजपूत समाज को हिस्सा बढ़ाने के लिए दबाव का गैम खेला जाए। इस बात का भी संघ के सभी पदाधिकारियों को पता है। इसकी रिपॉर्ट भी भाजपा आलाकमान तक पहुंच चुकी है। 


अब सवाल यह उठता है कि भाजपा यदि सत्ता में आती है तो वसुंधरा के बाद सबसे अनुभवी होने के कारण राजेंद्र राठौड़ सीएम बन सकते हैं। पहली बात तो यह है कि तमाम राजनीतिक सर्वे में उनकी बुढानिया के साथ कड़ा मुकाबला है। कुछ सर्वे तो राठौड़ को हारता हुआ दिखा रहे हैं। ऐसे में यह भी तय नहीं है कि वो जीत जाएंगे, लेकिन यदि जीत जाते हैं तो क्या भाजपा आलाकमान उनको सीएम का आर्शीवाद देगा। दरअसल, 2013 में जब सरकार बनी थी, तब राजेंद्र राठौड़ ही वसुंधरा राजे के नंबर एक मंत्री हुआ करते थे, लेकिन बाद में दोनों के किसी मामले को लेकर डिस्पुट हो गया और उनकी जगह यूनुस खान ने ले ली थी। उसके बाद जब डॉ. सतीश पूनियां को भाजपा ने अध्यक्ष बनाया तो राजेंद्र राठौड़ उनके करीबी हो गए, लेकिन कहा जाता है कि अंदरखाने वाले सतीश पूनियां की भी उपर कारसेवा कर रहे थे। बाद में जब सतीश पूनियां की जगह सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाया गया तो उनकी शान में कसीदे पढ़ने लगे। एक दिन पहले ही सीपी जोशी का प्रदेश में पगफेरा बोलकर जीत का श्रेय उनको देने का प्रयास किया है, जबकि पूरी भाजपा संगठन जीत का श्रेय पीएम मोदी को देने की तैयारी में जुटा हुआ है। ऐसे में यह कहा जाए कि राजेंद्र राठौड़ किसी के दुश्मन नहीं हैं तो किसी के दोस्त भी नहीं हैं। 


वर्ष 2003 से 2018 तक वसुंधरा राजे का युग था, जिसमें संघ काफी पीछे रहा। कई जगह पर हिंदू विरोधी काम भी हुए, लेकिन संघ कुछ नहीं कर पाया। किंतु 2018 के बाद संघ ने कमान संभाल रखी है। अब यदि संघ की पसंद और नापसंद के हिसाब से बात की जाए तो नेता प्रतिपक्ष होने, लगातार 8 चुनाव जीतने के बाद भी राजेंद्र राठौड़ किसी सूरत में मुख्यमंत्री नहीं बनाए जाऐंगे। और यदि फिर से सीएम बन जाते हैं, तो यह माना जाएगा कि संघ काफी कमजोर हो चुका है, जिसके दम पर भाजपा इस उंचाई तक पहुंची है।

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