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​स्टार प्रचारक किस काम के?



राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा कांग्रेस ने अपने स्टार प्रचारकों की सूचियां तो जारी कर दीं, लेकिन जिनको स्टार प्रचारक बनाकर मैदान में उतरने की जिम्मेदारी दी, वो केवल अपनी सीट बचाने की जुगत तक सीमित हैं। राज्य में सीएम बनने का सपना तो कई देख रहे हैं और इसी आस में चुनाव भी लड़ रहे हैं, लेकिन जब प्रचार की बारी आती है, तो अपनी विधानसभा सीट से बाहर भी नहीं निकल पा रहे हैं। आज मैं आपको भाजपा कांग्रेस के स्टार प्रचारकों के हाल बताने वाला हूं। साथ ही यह भी बताउंगा कि किस वजह से इनका यह हाल हुआ है?


सबसे पहले बात राज्य के सीएम अशोक गहलोत करें तो उन्होंने अभी भी अपने पद के मुताबिक प्रचार नहीं किया है। असल बात तो यह है कि डिजाइन वाले बॉक्स ने उनको जो कुछ कहा है, वही अब तक किया है। यानी उनको चलाने वाला डिजाइन वाला बॉक्स है। सीएम गहलोत कई जगह पर रैलियां कर रहे हैं, लेकिन उनकी सभाओं में भीड़ देखकर कतई नहीं लगता है कि वो किसी भी एंगल से स्टार प्रचारक हैं। जितने लोग सीएम गहलोत की सभाओं में आ रहे हैं, उससे कहीं अधिक तो प्रत्याशी अपने दम पर खींच ले रहे हैं। हालांकि, गहलोत ने सभाएं कई जगह की हैं, लेकिन बिना लोगों के सभा करना और स्टार प्रचारक बन जाना कतई उचित नहीं है।


दूसरा नंबर है पूर्व सीएम वसुंधरा राजे का, जो दो बार सीएम रहने के कारण राजस्थान में भाजपा की तरफ से सबसे बड़ी स्टार प्रचारक होनी चाहिए थीं, लेकिन हाल वसुंधरा के भी ठीक नहीं हैं। पार्टी पहले ही उनको दरकिनार कर चुकी है। टिकट वितरण में मात खाने के बाद वसुंधरा बैमन से अपने कहे जाने वाले नेताओं की सभाओं में जा रही हैं, लेकिन भीड़ नहीं होने का दर्द उनको भी अखर रहा है। यानी हाल वसुंधरा का भी कमोबेश वही है, जो गहलोत का है। आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं, कि जो दो जने बीते 25 साल से राजस्थान में राज कर रहे हैं, उनकी सभाओं में 2 हजार लोगों की भीड़ नहीं मिल रही है। ऊपर से उनको गली गली में प्रचार करना पड़ रहा है।


वसुंधरा को भाजपा ने सीएम फेस नहीं बनाया, इसलिए भीड़ कम होने का एक्सक्यूज दिया जा सकता है, किंतु अशोक गहलोत चौथी बार सीएम बनने का नारा दे रहे हैं, उनकी रैलियां में भीड़ नहीं होना इस बात का प्रतीक है कि राज्य की जनता अब इन दोनों से उब चुकी है, इनको पसंद नहीं करती है। हालांकि, यह बात तो जनता 2003 और 2008 में ही कह चुकी थी, जब 2003 में गहलोत के चेहरे पर कांग्रेस का सफाया हुआ था। बाद में 2008 के दौरान वसुंधरा को हराकर भी जनता ने दलों को संदेश दिया कि उनको ये सीएम पसंद नहीं हैं, लेकिन फिर भी सियासी दलों ने इनको थोप दिया। इस बार भाजपा ने संदेश जरूर दिया है कि वसुंधरा सीएम नहीं होंगी, तो जनता में भी उम्मीद जागी है, लेकिन गहलोत मे उबाऊ और बासी चेहरे को लेकर मैदान में उतरी कांग्रेस को भीड़ नहीं मिलना सीधा संदेश है।


तीसरा बड़ा नाम है नेता प्रतिपक्ष होने के कारण राजेंद्र राठौड़ का, जिनको भी भाजपा ने स्टार प्रचारक बनाया है, लेकिन हालात इस कदर खराब हैं कि राठौड़ अपने क्षेत्र से बाहर निकलकर जयपुर तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। राठौड़ ने सीट बदलकर तारानगर चुना, लेकिन फिर भी उनको कांग्रेस के नरेंद्र बुढ़ानिया ने सांसद नहीं लेने दी है। बुढ़ानिया के साथ राठौड़ का सीधा मुकाबला ऐसा है कि राठौड़ जरा से भी हिल नहीं पा रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि भाजपा के स्टार प्रचारक और संवैधानिक तौर पर विपक्ष के सबसे बड़े नेता अपनी ही सीट तक सिमट गए हैं।


उपनेता प्रतिपक्ष का पद हालांकि, संवैधानिक नहीं होता है, लेकिन फिर भी नेता प्रतिपक्ष के बाद उनका ही नंबर आता है। खासतौर पर जब पार्टी के पूर्व अध्यक्ष हों तो बात ही अलग है। भाजपा ने उपनेता प्रतिपक्ष सतीश पूनियां को आमेर से तीसरी बार प्रत्याशी बनाया है, साथ ही स्टार प्रचारक भी हैं। आमेर सीट पर सतीश पूनियां की मेहतन को मैंने क्षेत्र में ग्राउंड रिपोर्ट कर करीबी से देखा है। कांग्रेस ने तीसरी बार प्रशांत शर्मा को प्रत्याशी बनाया है, लेकिन मुकाबला टक्कर का नहीं है। सतीश पूनियां अपने स्टार प्रचारक का उपयोग भी किया है। उन्होंने अपनी सीट के अलावा चौमू, बगरू, दूदू, जमवारामगढ़, कोटपूतली में सभाएं करके भाजपा प्रत्याशियों के लिए वोट मांगे हैं। बड़े पद पर नहीं होने के बाद भी सतीश पूनियां की सभाओं में भीड़ उनकी लोकप्रियता को दर्शाती है। ऐसे में कहें कि सतीश पूनियां ने अपने स्टार प्रचारक होने का मतलब साकार किया है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए।


सचिन पायलट भले केवल विधायक हों, लेकिन उनको भी कांग्रेस ने स्टार प्रचारक बनाया है। पायलट के खिलाफ हालांकि, टोंक में विरोधी खेमे ने फंडिंग करके हराने के सारे हथियार चलाए हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता में कोई कम नहीं आई है। पायलट न केवल अपनी सीट पर धुआंधार प्रचार करे हैं, बल्कि कांग्रेस में उनके करीबी विधायकों की सीटों पर भी भीड़ जुटाकर साबित कर रहे हैं कि उनके स्टार प्रचारक बनाकर कांग्रेस ने कोई गलती नहीं की है। वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत से अधिक भीड़ सचिन पायलट और सतीश पूनियां की सभाओं में जुट रही है। जनता के हिसाब से इसका अपना संदेश है, जिसे पार्टी को समझना चाहिए। पायलट ने अब तक एक दर्जन से ज्यादा सीट पर प्रचार किया है। पांच साल पहले पायलट ने सभी जिलों की सभी सीटों पर प्रचार किया था, लेकिन इस बार केवल अपने खेमे के प्रत्याशियों के लिए ही वोट मांग रहे हैं।


इसी क्रम में गोविंद सिंह डोटासरा हैं, जो पीसीसी चीफ होने के कारण स्टार प्रचारक हैं, लेकिन वो भी अपनी ही सीट तक सिमट गए हैं। लक्ष्मणगढ़ से चौथी बार चुनाव लड़ रहे हैं, पिछले दिनों की ईडी की रेड के बाद उनको मजबूती मिली है, लेकिन फिर भी भाजपा के सुभाष महरिया के सामने जीत आसान नहीं है। यह भी माना जा रहा है कि हमेशा की तरह अशोक गहलोत ने उनको निपटाने की चाल चली है। इसका आभास उनको हो चुका है। इसी वजह से डोटासरा अपनी सीट नहीं छोड़ना चाहते हैं। यानी कांग्रेस के दूसरे सबसे बड़े स्टार प्रचारक भी बेदम हो चुके हैं।


पांच साल तक धरने प्रदर्शन करके सुर्खियां बटोरने वाले भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीणा को उनके समर्थक सीएम उम्मीदवार बताकर प्रचारित कर रहे हैं, लेकिन मीणा भी अपनी सीट बचाने में जुटे हैं। सवाई माधोपुर सीट पर आशा मीणा की जगह किरोड़ी प्रत्याशी बनाया गया है, लेकिन आशा मीणा ने ताल ठोककर किरोड़ी की हालात खराब कर दी है। भाजपा के स्टार प्रचारकों में किरोड़ी भी बुरी तरह से परेशान हैं, जिसके कारण वो केवल अपनी सीट और अपने भतीजे राजेंद्र मीणा की महुआ सीट तक ही पहुंच पा रहे हैं।


भाजपा अध्यक्ष होने के कारण सीपी जोशी को भी स्टार प्रचारक बनाया गया है, लेकिन खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं, वो अभी चित्तौड़गढ़ से सांसद हैं, जहां चंद्रभान आक्या ने बगावत की है। यहां पर सीपी जोशी की चंद्रभान आक्या ने एक तरह से फजीहत करवा दी है। पहले माना जा रहा था कि आक्या को जोशी मना लेंगे, लेकिन कहा जाता है कि दोनों के बीच कॉलेज के जमाने से चली आ रही खींचतान यहां भी जस की तस है। सीपी जोशी की डिमांड कहीं नहीं है। उनका काम केवल मोदी, शाह, नड्डा की सभाओं में उपस्थित रहने तक सीमित हो गया है। यानी जो अध्यक्ष पूरे राज्य में स्टार प्रचारक होना चाहिए, उसकी किसी भी सीट पर मांग नहीं है।


स्टार प्रचारकों की सूची में केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी भी हैं, लेकिन गजेंद्र सिंह शेखावत को छोड़कर किसी नेता की मांग नहीं है। शेखावत ने कई रैलियां की हैं और दम भी दिखाया है। उनकी डिमांड न केवल अपने संसदीय क्षेत्र की सीटों पर है, बल्कि मारवाड़ और शेखावाटी में भी उनको बुलाया जा रहा है।


अपनी पार्टी के दम पर दूसरी बार मैदान में उतरे हनुमान बेनीवाल न केवल स्टार प्रचारक बने हैं, बल्कि इसको सार्थक भी किया है। बेनीवाल की धुआंधार सभाएं और भीड़ ने साबित कर दिया है कि वो वास्तव में स्टार प्रचारक हैं। अपने दम पर पार्टी को कंधे पर उठाकर घूम रहे हैं, उससे पता चलता है कि स्टार प्रचारक उनसे बड़ा कौन हो सकता है। उनके साथ अलांइस में आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद भी दलित समाज के हिसाब से बड़े प्रचारक बन गए हैं। बड़ी पार्टियों के बड़े स्टार प्रचारकों से कहीं अधिक भीड़ के साथ इन दोनों नेताओं ने भीड़ जुटाकर साबित कर दिया है कि स्टार प्रचारक बनने से कुछ नहीं होता है, बल्कि नेता में दम होता है, जिसके दम पर भीड़ खींची जा सकती है।


इनके अलावा भाजपा कांग्रेस के कई स्टार प्रचारक तो ऐसे हैं, जिनकी एक भी सभा नहीं हुई है और ना ही उनको कहीं बुलाया जा रहा है। स्टार प्रचारकों की इस कदर से साफ हो गया है कि सियासी दलों को उन्हें ही स्टार प्रचारक बनाना चाहिए, जिनके दम पर भीड़ इकट्ठी होती हो और उनकी उम्मीदवार मांग करते हों। आज की तारीख में सचिन पायलट, सतीश पूनियां, वसुंधरा के अलावा केवल बेनीवाल और चंद्रशेखर की ही स्टार प्रचारक के तौर पर डिमांड है, बाकी राजेंद्र राठौड़, किरोडीलाल मीणा, गोविंद सिंह डोटासरा जैसे नेताओं की हालात पतली है।

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