सचिन पायलट ने भले ही पांच साल संघर्ष करने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान से न्याय और अशोक गहलोत से अपना हक नहीं छीन पाये हों, लेकिन राजस्थान के गुर्जर समाज ने अब सचिन पायलट को न्याय दिलाने की ठान ली है। पूरे समाज में यह मैसेज सर्कूलेट हो चुका है कि जहां पर गुर्जर समाज के उम्मीदवार हैं, उनको छोड़कर कहीं पर भी कांग्रेस को वोट नहीं देना है। राजस्थान 9 जिलों में ऐसी 40 से ज्यादा सीटें हैं, जहां पर गुर्जर समाज के वोटर 20 से लेकर 40 हजार से भी ज्यादा हैं। गौरतलब यह है कि कांग्रेस ने इस बार खुद सचिन पायलट, इंद्रराज गुर्जर, अशोक चांदना, गजराज खटाना समेत गुर्जर समाज के 7 दावेदारों को टिकट दिए हैं।
दौसा, करौली, सवाईमाधोपुर, टोंक, अलवर, भरतपुर, जयपुर ग्रामीण और झालावाड़ की सीटों पर जहां गुर्जर वोटर काफी सीटों की जीत—हार तय करते हैं, वहीं अजमेर और धौलपुर की सीटों पर भी गुर्जर मतदाता उम्मीदवार को हरा सकते हैं। पिछली बार कांग्रेस से 9 उम्मीदवारों में से 8 गुर्जर जीतकर विधायक बने थे, जबकि भाजपा ने 8 को टिकट दिया था, जो सभी हार गए थे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि भाजपा का एक भी गुर्जर उम्मीदवार नहीं जीता हो। आप इस आंकड़े से ही समझ सकते हैं कि राजस्थान के गुर्जर समाज ने किस कदर सचिन पायलट को सीएम बनाने की उम्मीद में पूरा वोट कांग्रेस को दिया था। किंतु इस बार प्रदेश में लहर अलग ही चल रही है।
माना जाता है कि राज्य में गुर्जर समाज की करीब 7 फीसदी जनसंख्या है, जो सचिन पायलट के नाम पर एक रहती है। हालांकि, कांग्रेस ने 2018 में नाम की घोषणा नहीं की थी, लेकिन जिस तरह से 1998 के समय कांग्रेस दिग्गज नेता परसराम मदेरणा के नाम पर और 2008 में, शीशराम ओला और सीपी जोशी जैसे नेताओं के नाम पर चुनाव लड़कर सत्ता की हरसत पूरी की थी। किंतु दोनों ही बार अशोक गहलोत सीएम बने। ठीक इसी तरह से 2018 में कांग्रेस ने तत्कालीन अध्यक्ष सचिन पायलट को अघोषित रूप से सीएम उम्मीदवार बनाया था। तब किसी को भी संभवत: भरोसा नहीं था कि सत्ता सचिन पायलट के नाम से पाई जाएगी और सीएम का ताज अशोक गहलोत के सिर पर रख दिया जाएगा। अशोक गहलोत इस कार्यकाल में कई बार सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं, कि उनको 3 बार सीएम सोनिया गांधी ने बनाया है। इसका मतलब जो मतदाता कांग्रेस को वोट देता है, वो सब बैकार है। बात सही भी है, क्योंकि जब भी सत्ता मिलती है तो दूसरे के नाम और जब गहलोत मुखड़ा होते हैं, तो कांग्रेस ऐतिहासिक रूप से हार जाती है।
जब दिसंबर 2018 में परिणाम आया, तो सीएम के लिए अशोक गहलोत ने जादू किया और जयपुर से दिल्ली तक सात दिन की खींचतान के बाद वो तीसरी बार सीएम बने, लेकिन उस समझौते के पीछे का सच कुछ और ही था, जिसके तहत लोकसभा चुनाव आधी से अधिक सीटें कांग्रेस को नहीं मिलने पर चेहरा बदलने को लेकर करार हुआ था। अशोक गहलोत की करामात से कांग्रेस लोकसभा की लगातार सभी 25 सीटें हारी भी, लेकिन उन्होंने सीएम पद को नहीं छोड़ा, उलटा सचिन पायलट और उनके साथियों के खिलाफ साजिश शुरू हो गई। नतीजा 11 जुलाई 2020 को मानेसर कांड सामने आया। उसके बाद फिर पायलट को प्रियंका वाड्रा द्वारा आश्चवान दिया गया, लेकिन पूरा कार्यकाल निकलने के बाद भी आज तक कुछ नहीं हुआ।
सचिन पायलट के साथ उनके लाखों समर्थकों ने भी पांच साल तक इंतजार किया, लेकिन कांग्रेस आलाकमान उनके साथ न्याय नहीं कर पाया, इसलिए पायलट समर्थकों और गुर्जर समाज ने कांग्रेस को हराकर सचिन पायलट को न्याय देने की ठान ली है। जिस प्रकार पिछली बार पायलट की वजह से गुर्जर समाज का वोट कांग्रेस के पक्ष में पड़ा था, उसी तरह से इस बार उसके खिलाफ पड़ता दिखाई दे रहा है। गुर्जर समाज की नाराजगी से यदि कांग्रेस को 40 सीटा नुकसान हुआ तो पार्टी अधिकतम 60 सीट तक ही पहुंच पायेगी। इसके उपर पेपर लीक से परेशान 70 लाख युवा, यौन अपराध से जुझती लाखों महिलाएं, दबंगों के अत्याचार से पीड़ित दलित समाज, डीजल—पेट्रोल के कारण महंगाई की मार झेलता आम उपभोक्ता और अशोक गहलोत के नाम पर चिढ़ा हुआ जाट समाज कांग्रेस की क्या गत करने वाला है, इसकी बानगी 2013 में कांग्रेस देख चुकी है।
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