कांग्रेस भारत की सबसे पुरानी पार्टी बताई जाती है, जिसका गठन एक अंग्रेज द्वारा किया गया था। बाद में यह पार्टी आजादी की जंग लड़ने में जुटी। हालांकि, आजादी के बाद महात्मा गांधी ने इच्छा जताई थी कि अब कांग्रेस को खत्म कर देना चाहिए। आजादी के बाद इसी पार्टी को नेहरू से लेकर इंदिरा तक राजनीतिक पार्टी के तौर पर काम लिया गया। हालांकि, इंदिरा गांधी के समय पार्टी टूटी, और इंडियन नेशनल कांग्रेस अस्तित्व में आई, जो आज दिखाई देती है। जिस कांग्रेस का नाम लेकर कांग्रेस नेता आजादी दिलाने का दावा करते हैं, वो कांग्रेस कहीं पर गुम हो गई है।
आजादी से पहले कांग्रेस से कभी सुभाष चंद्र बोस, सरकार पटेल, भीमराव अंबेडकर सरीखे नेता जुड़े हुए थे, लेकिन आजादी के बाद इस दल को धीरे धीरे एक परिवार की बपौती बना दिया गया। जब इंदिरा गांधी पीएम बनीं, उसके बाद तो कांग्रेस पूरी तरह से गांधी परिवार की दुकान बनकर रह गई, जहां पर इच्छा व्यक्त करने वालों का दमन किया गया, और जो नेता गांधी परिवार की भक्ति में तल्लीन हो गए, उनको कभी पीएम बनाया तो कभी राष्ट्रपति और जाने कितने राज्यों के, कितने बार सीएम बनाया गया। मंत्री बनाने की तो कहानी ही अनकही हो चुकी है। जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई हो जनता ने भावनाओं में उनके बेटे राजीव गांधी को सिर माथे पर बिठाया, बाद में वह भी सत्ता से बाहर हो गए। इसके बाद जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो उनकी पत्नी सोनिया गांधी को राजनीति में लाने का खूब प्रयास हुआ, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। इसके चलते नरसिंम्हा राव सरीखे पुराने कांग्रेस को पीएम बनने का अवसर मिला, लेकिन उसके बाद जब देश की राजनीति एक संक्रमण के दौर से गुजर रही थी, तब सोनिया गांधी की एंट्री हुई और उन्होंने करीब 22 साल तक पार्टी की कमान संभाली। बीच में उनके बेटे राहुल गांधी को भी कमान मिली, लेकिन वह संभाल नहीं पाए। आज पार्टी के अध्यक्ष तो मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, लेकिन हकिकत में वो सिर्फ रबर स्टांप हैं, असली काम आज भी गांधी परिवार ही देख रहा है। यानी मोटे तौर पर देखा जाए तो आजादी के बाद आजतक कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की बपौती है। फिर भी लोग इसपर आजादी के नाम पर और गांधी परिवार के नाम पर वोट करते हैं, अन्यथा कई दल हैं, जो आज भी राष्ट्रीय पार्टी बनने का सपना ही पाले बैठे हैं। हालांकि, आज देखेंगे तो पाएंगे कि भाजपा को छोड़कर कोई भी दल एक परिवार से बाहर नहीं निकल पाया है।
दूसरी तरफ भाजपा है, जिसका गठन 1980 में, यानी 42 साल पहले किया गया, लेकिन इन 42 साल में जाने कितने अध्यक्ष बदले, जाने कितने आलाकमान बदले और पार्टी अलग अलग समय अलग अलग नेताओं के कारण आगे बढ़ती रही, कोई भी नेता पार्टी को अपने नाम से नहीं चला पाया, कोई भी परिवार भाजपा को अपनी बपौती नहीं बना पाया। यही वजह है कि इतने कम समय में भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने का गौरव हासिल किया है। कभी श्यामा प्रयाद मुखर्जी और पं दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेता थे। बाद में अटल आडवाणी का दौर आया और आज मोदी शाह ने पार्टी को नई उंचाइयां दी हैं। आने वाले समय में कोई और होगा, जो भाजपा को आगे बढ़ाने का काम करेगा। इनमें से कोई भी नेता अपने बेटे—बेटियों को स्थापित नहीं कर पाया है।
यही वजह है कि इतने कम समय में पार्टी देश के करीब करीब हर राज्य में सरकार बना चुकी है। गुजरात जैसे कुछ राज्य तो ऐसे हैं, जहां पर भाजपा अजेय बन चुकी है, जहां पर बीते 27 साल से कोई पार्टी सेंधमारी ही नहीं कर पा रही है। पार्टी में राज परिवारों से आने वाले लोग भी उच्च पदों पर रहे हैं, तो गरीब किसान परिवार से आने वाले भी नेता बनकर देश की सेवा कर रहे हैं।
राजस्थान में चुनाव चल रहे हैं, इसलिए यहां के बारे में बात की जाए तो कई अभी दो लोकसभा सीटें हैं, और जिले में 19 विधानसभा सीटें हैं। यहां पर लोकसभा सीट हुआ करती थी, तब भी भाजपा हावी रही है, तो आज दो सीट हैं, तब भी भाजपा हावी है। विधानसभा सीटों की बात की जाए तो आज 19 में से 10 सीट कांग्रेस, 6 भाजपा और 3 निर्दलीयों के पास हैं, जबकि 2013 में भाजपा के पास 17 और 2 सीटों पर निर्दलीय थे, कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी। आज सरकार होने के बाद भी कांग्रेस केवल आधी सीटों तक सीमित है, जबकि भाजपा सरकार थी, तब कांग्रेस का सूपड़ा साफ था। साल 1989 के बाद 2009 तक जयपुर की सीट भाजपा के पास रही, जबकि उपचुनाव में कुछ समय के लिए कांग्रेस जीती। उसके बाद 2014 और 2019 में फिर भाजपा जीत गई। इसी तरह से जयपुर ग्रामीण की बात की जाए तो गठन के बाद दो बार कांग्रेस के पास रही है, उसके बाद से भाजपा जीत रही है, जबकि जयपुर की लोकसभा सीट 1952 के बाद केवल दो बार जीत पाई है, एक बार उपचुनाव जीता था भाजपा यहां पर अब तक 8 बार जीत चुकी है, जबकि दो बार जनता पार्टी, तीन बार स्वतंत्र पार्टी और एक बार दूसरा चुनाव 1957 में निर्दलीय ने चुनाव जीता। जयपुर राजधानी है और सबसे अधिक जनसंख्या के कारण सर्वाधिक सीटें भी यहीं पर है, लेकिन क्या कारण है कि सबसे पुरानी पार्टी यहां पर कमजोर ही है।
अब यह समझना जरूरी है कि आखिर किस वजह से कांग्रेस पार्टी ने जयपुर की सीटों पर कम ही जीत हासिल की है। दरअसल, जनसंघ के समय से ही भाजपा शहरों की पार्टी मानी जाती रही है। शहरों में संघ का प्रभाव अधिक रहता है, वहीं पर संघ की शाखाएं लगती हैं, जिसके कारण शहरी मतदाता पर भाजपा की पकड़ रही है। दूसरा कारण यह है कि काफी पहले से यह मान्यता रही है कि भाजपा ब्राह्मण बणियों की पार्टी है, जो अधिकांश शहरों में रहते हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में किसान, पशुपालक वर्ग निवास करता है, जहां पर कांग्रेस को प्रभाव रहा है, लेकिन जब से ये वर्ग भी शहरों में पलायन करने लगा है, तब से ग्रामीण क्षेत्रों में भी भाजपा हावी होती चली है। आज राजस्थान में स्थिति यह है कि 1998 के बाद कांग्रेस कभी भी 100 सीट तक नहीं पहुंच पाई। जबकि भाजपा ने दो बार 120 और 163 सीटें जीतीं। इसके अलावा जब विपक्ष में रही, तब भी उसको 78 और 72 सीटों का सम्मानजनक विपक्ष मिला है।
राजस्थान विधानसभा के पहले चुनाव में 1952 के समय 160 में से 82 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। दूसरे चुनाव में 176 सीटों में से 119 सीटों पर कांग्रेस जीतकर सरकार बनाने में सफल रही। तीसरे चुनाव में 1960 में कांग्रेस को 89 सीटें मिलीं, जबकि विपक्ष में रही स्वतंत्र पार्टी के गठबंधन को 87 सीट मिलीं। चौथे चुनाव के दौरान कांग्रेस को 184 में से 103 सीट मिली तो पांचवी बार के चुनाव के समय सीटों की संख्या बढ़कर 145 हो गईं। लेकिन छठे चुनाव में 1977 के समय कांग्रेस केवल 50 ही जीत पाई। तब सीटों की संख्या 200 हो चुकी थी और जनता पार्टी के गठबंधन ने 150 सीटों के साथ पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई, जिसके मुख्यमंत्री बने भैरोंसिंह शेखावत। कुछ समय बाद उनकी सरकार को बर्खासत कर दिया गया और 1980 के चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस 133 सीटों पर पहुंच गई। इस चुनाव में पहली बार भाजपा भी चुनाव लड़ रही थी, जिसमें पूरे विपक्ष को 67 सीटों मिलीं। पांच साल बाद 1985 के चुनाव में कांग्रेस फिर 113 सीटों के साथ सत्ता में रिपीट हुई तो विपक्ष में भाजपा समेत अन्य दलों को 87 सीटों पर जीत मिली, लेकिन 1990 के चुनाव में भाजपा को 84 और सहयोगी पार्टी जनता दल को 54 सीट मिली। दोनों ने मिलकर सरकार बनाई, जिसमें भैरोंसिंह शेखावत सीएम बने। लेकिन 33 महीने बाद फिर से राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके उपरांत 1993 के चुनाव हुए, जिसमें भाजपा और सहयोगी दलों ने 124 सीट जीतकर तीसरी बार सरकार बनाई। पांच साल बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने किसान मुख्यमंत्री का नारा दिया और परसराम मदेरणा के नाम पर चुनाव लड़ा, जिसमें अब तक की सबसे अधिक 152 सीटें जीतीं, लेकिन उनको सीएम नहीं बनाया गया और इसके साथ ही कांग्रेस में गहलोत राज शुरू हुआ, जो आज तक चल रहा है।
अशोक गहलोत अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर रहे हैं और तीनों ही बार दूसरे नेताओं की मेहनत पर सीएम बने। पहले परसराम मदेरणा, फिर सीपी जोशी, शीशराम ओला, मिर्धा जैसे नेताओं के कारण और वर्तमान कार्यकाल उनको सचिन पायलट की मेहनत से मिला है। वास्तव में देखा जाए तो गहलोत ने अपने दम पर सत्ता गंवाई ही है, पाई कभी नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि जब से अशोक गहलोत ने कांग्रेस की सत्ता संभाली है, तब से पार्टी कमजोर होती जा रही है। भले ही 1998 के बाद कांग्रेस ने दो बार सत्ता प्राप्त कर ली हो, लेकिन पार्टी कभी 100 सीटों तक नहीं पहुंच पाई। अशोक गहलोत की चतुराई से परसराम मदेरणा को साइडलाइन करने के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर ही हो रही है। बीते 20 साल में कांग्रेस 2003 में 56 सीट, 2008 में 96, 2013 में 21 और 2018 में 99 सीटों तक ही पहुंच पाई है। यानी कांग्रेस ने 1998 के बाद किसान सीएम नहीं बनाकर अपना ग्रामीण जनाधार खो दिया है। दस साल पहले तो अशोक गहलोत की लीडरशिप में 21 सीटों पर सिमटकर पार्टी हार का इतिहास बना चुकी है, जबकि इस बार जो हालात दिखाई दे रहे हैं, वो कांग्रेस को फिर से नए इतिहास की दहलीज पर ले जा सकते हैं।
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