आचार संहिता में 7 गारंटी देकर फंसे अशोक गहलोत



विधानसभा चुनाव की आचार संहिता 9 अक्टूबर को चुनाव की घोषणा होने के साथ ही लग गई थी। उसके बाद राज्य सरकार न तो नीतिगत फैसले कर सकती है और न ही राज्य की जनता को किसी तरह की राहत दे सकती है, लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस के नेता और सीएम अशोक गहलोत ने 7 तरह की राहत गारंटी देकर चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता में फंस गए हैं। पहले दो गारंटी गहलोत ने प्रियंका वाड्रा की मौजूदगी में झुंझुनूं में दी, उसके दो दिन बाद शुक्रवार को जयपुर में पांच गारंटी और दे दी, कि आचार संहिता के तहत कोई भी सीएम इस तरह की घोषणाएं नहीं कर सकता है। किसी भी योजना, घोषणा या नोटिफिकेशन के लिए उसे चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होती है, लेकिन सीएम गहलोत ने न तो अनुमति ली और न ही इसके लिए चर्चा की।

सवाल यह उठता है कि क्या अशोक गहलोत जैसे नेता को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि ये सब आचार संहिता के अंतर्गत आता है? दरअसल, गहलोत इस बात को जानते हुए ही ये सब कर रहे हैं। कारण यह है​ कि पहली बात तो इसके कारण मीडिया की सुर्खियां बनेंगी। दूसरी बात जब चुनाव आयोग इसको आचार संहिता का उल्लंघन बताकर कार्यवाही करेगा तो फिर उसके सहारे भाजपा पर आरोप लगाने का काम किया जाएगा। तीसरा कारण यह है कि जब ये सात घोषणाएं इस विवाद के कारण मीडिया के द्वारा जनता तक जाएगी तो फिर लालच में आकर कांग्रेस की तरफ मुडने वाले वोट बढ़ने की भी संभावना है। चौथा कारण है जनता को गुमराह करना, जिसके सहारे यह साबित करने का प्रयास जारी है कि गहलोत तो जनता को देना चाहते हैं, लेकिन भाजपा ही चुनाव आयोग के सहारे इनको देने नहीं दे रही है। इसी तरह के तमाम कारणों को ध्यान में रखते हुए गहलोत ने ये सब विवादित गारंटी दी हैं।

प्रश्न यह उठता है कि पहले दी गईं 10 गारंटी पूरी नहीं हुई हैं, तो फिर इन सात गारंटी का क्या होगा? दरअसल, गहलोत ने कहा था कि सभी 1.40 करोड़ महिलाओं को मोबाइल दिया जाएगा, जिसको बाद में 40 लाख किया गया और 19 लाख को बांटकर इतिश्री कर ली गई। सभी घरेलू उपभोक्ताओं को 100 यूनिट बिजली देने का वादा भी पूरा नहीं हुआ है। जिन बुजुर्गों और दिव्यांगों को पेंशन 750 की जगह 1000 करने का दावा किया था, वो भी अधूरी पड़ी है, जिनके रजिस्ट्रेशन नहीं हुए, उनका सरकार के पास डेटा होने के बाद भी अधूरी पेंशन ही मिल रही है। जो कैंपों में नहीं गए, उनको बिजली बिल अधिक आ रहे हैं। इसी तरह से एक करोड़ फूड पैकेट का वादा भी लटक गया है। 500 रुपये में सिलेंडर का वादा भी पूरा नहीं हुआ है। जब पहले दी गई 10 गांरटी ही पूरी नहीं हुई हैं, तो फिर 7 का क्या होगा। समझना कठिन नहीं है कि इसके पीछे के कारण आर्थिक ही हैं। सरकार को जितना राजस्व मिल रहा है, उससे अधिक की फ्री घोषणाएं कर दी हैं। पिछली बार किसानों को कर्जमाफी के झूठ में उलझाया गया, बेरोजगारों को भत्ता देने का झूठा वादा किया गया, इस बार गारंटी नाम से नई नौटंकी की जा रही है।

अब इस बात को समझते हैं कि इन सात गारंटी का गणित क्या है? पहली गारंटी प्रदेश की सभी 1.04 करोड़ महिलाओं को प्रतिवर्ष 10 हजार रुपये देने का वादा किया गया है। इसका यदि वार्षिक हिसाब लगाया जाए तो यह रकम प्रतिवर्ष 10400 करोड़ रुपये होती है। विकास के मामले में काफी पिछड़ चुके राजस्थान का खजाना यह भार वहन करने की स्थिति में नहीं है। दूसरी बात यह कि यदि सरकार को देना ही था तो पांच साल तक क्यों नहीं दिया? क्यों चुनाव का इंतजार किया गया? यदि कांग्रेस विपक्ष में होकर यह वादा करती तो समझ में आता है, लेकिन सत्ता में होने के बाद भी इस स्कीम को शुरू नहीं किया गया, जो अशोक गहलोत की नीयत पर गंभीर सवाल खड़े करती है।

दूसरी गारंटी सभी महिला मुखिया को 500 रुपये में सिलेंडर देने की। उज्जवला वाली महिलाओं को अभी तक सिलेंडर नहीं मिले हैं, तो कैसे सभी महिलाओं को दिया जाएगा। सवाल यह भी उठता है​ जब दुनियाभर में सब्सिडी को खत्म करने का अभियान चल रहा है, तब सरकारें इस तरह से फ्री बांटकर प्रदेश को क्यों बर्बाद करने पर तुली हुई हैं। यदि एक सिलेंडर पर 400 रुपये भी छूट मानी जाए तो एक करोड़ सिलेंडर पर 400 करोड़ रुपये प्रतिमाह होती है, जो पहले ही सवा छह लाख करोड़ के कर्ज बोझ तले दबे राजस्थान को और बर्बाद कर देगा। हर महीने 400 करोड़ का मतलब सालभर में 4800 करोड़ का बोझ पड़ने वाला है, जबकि अभी बिना सब्सिडी के भी लोग सिलेंडर का उपयोग कर रहे हैं।

तीसरी गारंटी सभी को अंग्रेजी शिक्षा देने का वादा किया गया है। एक तरफ केंद्र सरकार हिंदी को विश्वव्यापी करने के लिए हर मंच पर इसका न केवल उपयोग कर रही है, बल्कि मध्य प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा भी हिंदी में होने लगी है। यहां तक कि यूएन में भी भारत हिंदी में ही बात करता है, हिंदी को विश्व की दूसरी वैकल्पिक भाषा बनाने में सरकार लगी हुई है, तो दूसरी ओर अशोक गहलोत अंग्रेजी को ही सब कुछ मान बैठे हैं। खुद गहलोत कहते हैं कि उनको अंग्रेजी नहीं आने के कारण वो सोनिया गांधी के साथ बातचीत ठीक से नहीं कर पाते हैं। आप सोचिये जो नेता अपनी आलाकमान को खुश करने के लिए, उससे ठीक से बात करने के लिए पूरे प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को तहस नहस करने में जुट गया है। जो दशकों की अथक मेहनत से हिंदी विद्यालय बने थे, उनके नाम बदलकर अंग्रेजी माध्यम कर दिया, जहां से हिंदी को खत्म करने की तैयारी चल रही है। सोनिया गांधी को हिंदी नहीं आती, इसलिए राजस्थान से हिंदी को खत्म करने की कितनी बड़ी साजिश अशोक गहलोत ने रची है। अंग्रेजी एक भाषा मात्र है, लेकिन अशोक गहलोत और उनके समर्थक इसको ज्ञान की भाषा मान बैठे हैं। नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा तक बच्चों को अपनी मातृभाषा में शिक्षा देने का सुझाव दिया गया है तो अशोक गहलोत और कांग्रेस पार्टी बच्चों से अपनी मातृभाषा ही छीन लेना चाहती है।

एक पार्टी की मुखिया को हिंदी नहीं आती तो उसका दंड पूरा प्रदेश क्यों भुगते, लेकिन कांग्रेस और अशोक गहलोत सोनिया गांधी को हिंदी सिखाने के बजाए राजस्थान को ही अंग्रेजी की शिक्षा की गुलामी करवा देने पर आतुर हो गए हैं। माना कि अंग्रेजी एक भाषा है और दुनिया में संवाद का जरिया है, लेकिन बूढ़ी दिखाई देने पर क्या कोई अपनी मां को अनाथालय में छोड़कर पड़ोसी की मां को अपने घर ले आता है? दरअसल, अशोक गहलोत को अंग्रेजी नहीं आने की भयानक कुंठा है, जबकि सोनिया गांधी को हिंदी नहीं आने के कारण वो पूरे देश को ही हिंदी मुक्त करने पर आमादा हैं। वैसे भी आजादी के बाद से ही भारतीय शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता को जड़ से मिटाने के लिए कांग्रेस की सरकारों और उनके चाटुकारों ने दिन रात मेहनत की है। अशोक गहलोत को भी पता है कि सोनिया गांधी को केवल अंग्रेजी पसंद है और जब वो अंग्रेजी को बढ़ावा देंगे तो ही आगे उनकी राजनीति चलने वाली है। प्रदेश की आमजन जो राजस्थानी और हिंदी में संवाद करना ही पसंद करती है, उसको अपने स्वार्थ और अपने आकाओं को खुश करने के लिए प्रदेश पर अंग्रेजी थोपने वाले अशोक गहलोत को राज्य की जनता कितना वोट देकर समर्थन करेगी, ये बात तो आने वाली 3 दिसंबर को साफ हो जाएगाी, किंतु सोचनीय बात यह किसी प्रदेश की हजारों वर्ष पुरानी भाषा को जड़ से मिटाने की साजिश करने वाले कब तक राज कर पाएंगे?

यह बात सही है कि आज अंग्रेजी भाषा की वैश्विक स्तर पर काफी जरूरत है, लेकिन किसी भी भाषा की तभी अधिक जरूरत पड़ती है, जब उसको बोलने समझने वाले अधिक हों। आज भारत की जनसंख्या 140 करोड़ से अधिक हो गई है, जो दुनिया की करीब 20 फीसदी है, यानी हिंदी दुनिया की ना केवल तीसरी सबसे बड़ी भाषा है, बल्कि हिंदी भाषी लोगों की संख्या भी तीसरे नंबर पर है। ऐसे में हिंदी को खत्म करने के दम पर अंग्रेजी अपनाना कहां तक उचित है? रही बात अंग्रेजी भाषा की, तो भारत में बरसों से एक विषय अंग्रेजी का रहा है, जहां जरूरत होती है, वहां पर अंग्रेजी सीखने के सभी संसाधन मौजूद हैं। अंग्रेजी में शिक्षा पाने से ही कोई विद्वान नहीं होता है, इसको भाषा से आगे ले जाने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन कुंठित लोगों के हाथों में जब सत्ता आती है तो वो अपनी कुंठा मिटाने के लिए इसी तरह से तुगलकी आदेश निकालते हैं।

वैसे भी हकीकत यह है कि यदि अंग्रेजी को बढ़ावा देना था तो नई स्कूलें स्थापित करते, नए संसाधन जुटाने, ना अंग्रेजी शिक्षकों की भर्ती करते, नया स्कूली ढांचा तैयार करते, लेकिन केवल हिंदी विद्यालयों का नाम अंग्रेजी करने के लिए अलावा कुछ भी नहीं किया गया है। यहां तक कि हिंदी भाषी शिक्षकों से ही अंग्रेजी पढ़ाई जा रही है। इससे साबित होता है​ कि अशोक गहलोत सरकार की हिंदी को खत्म करने की साजिश के सिवाय कुछ भी नहीं है। इनको शिक्षा को बढ़ावा नहीं देना है, बल्कि मिशनरी के इशारे पर राजस्थान के भोले भाले बच्चों पर अंग्रेजी थोपना है, ताकि भारत की शिक्षा, भाषा, सभ्यता और संस्कृति को मिटाया जा सके।

कहते हैं कि कांग्रेस के नेताओं को सोनिया गांधी के कारण केवल अंग्रेजी पसंद है, जबकि भाजपा नेता हिंदी को अधिक महत्व देते हैं। अब सवाल यह उठता है​ कि जिन 3200 हिंदी विद्यालयों को अशोक गहलोत अपने व्यक्तिगत कुंठा के कारण अंग्रेजी में बदल चुके हैं, क्या भाजपा की सरकार बनने पर उनको फिर से हिंदी किया जाएगा या फिर भाजपा भी अशोक गहलोत सरकार की करतूतों को ही पोषित करने का काम करती रहेगी? वैसे देखा जाए तो भाजपा की वसुंधरा सरकार ने अपने कार्यकाल में 20 हजार से अधिक विद्यालयों को बंद कर दिया था। जिनको फिर से शुरू करने का वादा कांग्रेस ने खूब किया था, लेकिन असल बात यह है​ कि पांच साल में केवल 350 विद्यालयों को फिर से शुरू किया गया है, और उनको भी अंग्रेजी में बदल दिया गया, यानी सरकार स्कूली शिक्षा को नष्ट—भ्रष्ट करने में वसुंधरा—गहलोत, दोनों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब यह तो भाजपा की आने वाले सरकार पर निर्भर करता है कि वो कांग्रेस की सरकार द्वारा किए गए कुकर्म को जारी रखती है या अपनी मातृभाषा हिंदी को बढ़ावा देने के लिए इन अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को पुन: हिंदी माध्यम बना पाती है। राजस्थान का मतदाता क्या कांग्रेस के इस भाषाई वादे की साजिश का शिकार हो पाएगा, यह 3 दिसंबर को परिणाम से तय हो जाएगा।

चौथी गारंटी सरकारी कॉलेजों में प्रवेश लेने वाले बच्चों को लैपटॉप या टैबलेट देने की है। पांच साल यही सरकार थी, कितनों को लैपटॉप या टैबलेट दिए? क्यों नहीं दिए, किसने हाथ पकड़ रखा था? अब चुनाव में जनता को बरगलाने के लिए ऐसा वादा किया जा रहा है, जिसे पूरा करना ही नहीं है। महिलाओं को मोबाइल देने की गारंटी हवा हो चुकी है। बजट भाषण में पत्रकारों को लैपटॉप देने का वादा किया था, लेकिन आचार संहिता लगने के दो दिन पहले प्रक्रिया शुरू कर पत्रकारों के साथ धोखा करने के अलावा सरकार ने क्या किया है? एक बार मान भी लें कि सरकार सभी नए एडमिशन लेने वाले स्टूडेंट्स को लैपटॉप देगी। एक लैपटॉप की कीमत 50 हजार भी मानी जाए और हर साल प्रवेश लेने वालों की संख्या 2 लाख भी मानी जाए तो बजट 10 अरब रुपये होता है। इतना पैसा कहां से देगी सरकार? इसलिए यह गारंटी 100 फीसदी झूठ है।

पांचवी गारंटी सभी पशुपालक किसानों से 2 रुपये किलो में गाय का गोबर खरीदने की दी जा रही है। सबसे पहला सवाल तो यही है कि इस गोबर का सरकार क्या करेगी? सरकार के पास इसको खपाने का क्या सिस्टम है? गोबर गाय का है या भैंस का, ये कौन तय करेगा? क्या इस काम में भी हर काम की तरह शिक्षकों को घर घर जानवरों के पीछे खड़ा किया जाएगा? इसके लिए किसी तरह का सिस्टम इस सरकार के पास नहीं है। कांग्रेस की ये गारंटी भी वैसी ही है, जैसी 10 तक गिनती करते करते किसानों की सम्पूर्ण कर्जमाफी की थी।

छठी गारंटी आपदा में 15 लाख का बीमा की दी है। अभी चिरंजीवी के 25 लाख का बीमा है, लेकिन लोगों को इलाज ही नहीं मिल रहा है। इसमें रजिस्ट्रेशन कराते कराते ही मरीज की मौत हो जाती है। प्राइवेट में जमकर लूट मची है, तो सरकारी अस्पतालों में पैर रखने की जगह नहीं है। ठीक ऐसे ही आपदा बीमा की गारंटी होगी, जो किसी को नहीं मिलने वाली है।

ऐसे में यह कहना कतई अनुचित नहीं होगा कि अशोक गहलोत की सातों गारंटी उतनी ही सच्ची है, जितनी आधी रात को अचानक सूर्य दर्शन हो जाना। 

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