राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर टिकट वितरण का दौर जल्द शुरू होने वाला है। इसको लेकर दोनों ही प्रमुख दलों में जयपुर से लेकर दिल्ली तक मैराथन बैठकों का दौर चल रहा है। दूसरी तरफ तीसरे दल के रूप में दम ठोक रहे हनुमान बेनवीाल की टीम पर टिकट बांटने की रणनीति में जुटी हुई है। कुछ महीनों पहले सीएम अशोक गहलोत ने इंदिरा गांधी पंचायती राज संस्थान में एक कार्यक्रम के दौरान अपने नेताओं का पक्ष लेते हुए कहा था कि कम से कम 100 टिकट आचार संहिता से एक महीने पहले तय हो जाने चाहिए, ताकि दावेदारों को जयपुर से दिल्ली तक चक्कर नहीं काटने पड़े और वो अपने क्षेत्र में प्रचार कर सकें। इसके अलावा पिछले दिनों सचिन पायलट ने नए नेताओं पर तंज कसते हुए कहा था कि डेढ़ बीघा जमीन बेचकर स्कॉर्पियों खरीद लेते हैं और फिर टिकट के लिए जयपुर से दिल्ली तक दौड़ लगाते रहते हैं। पायलट ने उन युवा नेताओं के लिए यह बात कही थी और नेतागिरी के चक्कर में अपनी छोटी सी जमीन को बेच देते हैं, बाद में उनको राजनीति में सफलता मिले तो आगे बढ़ जाते हैं, अन्यथा इस देखादेखी की राजनीति में अपनी पुस्तैनी संपत्ति को भी गवां देते हैं।
बयान चाहे गहलोत का हो या पायलट का, लेकिन आज की राजनीति का केवल यही सच नहीं है। आप देख रहे होंगे कि बीते करीब 10 साल से राजनीति में युवाओं के आगे आने की ऐसी होड़ मची है कि हर कोई जल्द से जल्द आगे बढ़ना चाहता है। वैसे देखा जाए तो यह सही भी है कि लोकतंत्र के इस पर्व में हर युवा चुनाव लड़कर अपनी सक्रिय भागीदारी निभाना चाहता है, लेकिन इसके पीछे के सच को जानना और इसकी जमीनी सच्चाई को गहराई से समझना भी हर किसी के लिए जरूरी है। हर पार्टी कहती है कि इस बार चुनाव में अधिक से अधिक युवाओं और महिलाओं को अवसर दिया जाएगा, लेकिन जब टिकट सूची सामने आती है तो हजारों युवाओं और महिलाओं के सपने टूट जाते हैं, जो टिकट पाने के लिए बरसों से दिनरात मेहनत करते हैं।
हालाकि, हाल ही में केंद्र सरकार ने महिला आरक्षण का 33 फीसदी वाला बिल पास किया है, जो 2029 में लागू हो जाएगा। यानी 2029 से संसद और विधानसभाओं में 100 में से 33 सीटें केवल महिलाओं के लिए होंगी। किंतु युवाओं के लिए किसी तरह का कोई रिजर्वेशन नहीं है। भाजपा ने हाल ही में तय किया है कि गुजरात मॉडल पर चुनाव लड़ा जाएगा, यानी अधिक से अधिक युवाओं को अवसर दिया जाएगा, लेकिन इसमें कितना सच है, यह टिकट वितरण की सूची सामने आने के बाद ही स्पष्ट हो पाएगा। किंतु जिस तरह से सैकड़ों युवा पूरे पांच साल तक अथक परिश्रम करने के बाद भी टिकट से महरुम रह जाते हैं, उसके बाद उनका मनोबल टूट जाता है। यह बात सही है कि टिकट देने की सीमा होती है, सभी को टिकट नहीं दिया जा सकता है।
वैसे आपको शायद पता नहीं होगा कि युवाओं को टिकट पाने के लिए क्या क्या जुगाड़ करना पडता है? कहने को तो राजनीति की पहली सीढ़ी छात्रसंघ चुनाव को माना जाता है, लेकिन इस बार सरकार ने छात्रसंघ चुनाव पर रोक ही लगा दी है। प्रदेश के बेरोजागारों को बेरोजगारी भत्ता, सरकारी नौकरी जैसे बड़े बड़े वादे कर सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी से प्रदेश के युवा खासे नाराज हैं। प्रदेश में युवाओं को ना बेरोजगारी भत्ता मिला, ना वादे के मुताबिक सरकारी नौकरी और उपर से 17 से अधिक भर्ती परीक्षाओं के पेपर लीक होने के बाद युवा जबरदस्त नाराज हैं। संभवत: यही कारण है कि छात्रसंघ चुनाव पर रोक लगा दी गई है। सरकार नहीं चाहती है कि विधानसभा चुनाव से पहले एनएसयूआई की हार हो और सरकार के खिलाफ माहौल बन जाए।
छात्रसंघ चुनाव की बात की जाए तो आज राजनीति में बड़े पदों पर नेता छात्र राजनीति से निकले हुए ही हैं। खुद अशोक गहलोत ने छात्रसंघ चुनाव लड़ा था। इसके साथ ही नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ राजस्थान विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं। उपनेता प्रतिपक्ष डॉ. सतीश पूनियां ने छात्रसंघ चुनाव लड़ा है। इसी तरह से तीसरे मोर्चे के नेता हनुमान बेनीवाल राजस्थान विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे हैं। विधायक रघु शर्मा, कालीचरण सराफ, अशोक लाहोटी, रामलाल शर्मा, राजकुमार शर्मा, मुकेश भाकर, रामनिवास गावड़िया, राजकुमार रोत, सरकार में मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास, महेश जोशी, महेंद्र चौधरी और केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे कई नाम हैं, जो छात्र राजनीति से यहां तक पहुंचे हैं।
ऐसा नहीं है कि छात्रसंघ चुनाव जीतकर सीधे ही विधायक या सांसद का टिकट मिल जाता है और सदन पहुंच जाते हैं। राजनीति की पहली सीढ़ी पार करने के बाद भी कई नेता आज भी विधायक या सांसद नहीं बन पाए हैं। इनमें यदि राजस्थान विवि की ही बात करें तो सोमेंद्र शर्मा, जितेंद्र श्रीमाली, श्याम शर्मा, जितेंद्र मीणा, पुष्पेंद्र भारद्वाज, मनीष यादव, प्रभा चौधरी, राजेश मीणा, कानाराम जाट, अंकित धायल, पवन यादव, अनिल चौपड़ा, सतवीर चौधरी, पूजा वर्मा जैसे कई नाम हैं, जिनको या तो टिकट मिला ही नहीं है, या फिर जीत नहीं पाए हैं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर क्या वजह है जो राज्य के सबसे पुराने और सबसे बड़े विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष भी टिकट हासिल नहीं कर पाते हैं?
आज के युवाओं को राजनीति करने के लिए कुछ अलिखित नियम बन चुके हैं। इनमें सबसे प्रमुख हैं कडप लगे हुए महंगे कपड़े, हाथ में महंगी घड़ी, जेब में महंगा मोबाइल फोन और आवागन के लिए कम से कम स्कॉर्पियो, फॉर्चूनर जैसी 20—30 लाख रुपये से अधिक की गाड़ी। उसके बाद होती है उनकी असली अग्नि परीक्षा, जो कईयों के लिए महीना, छह महीना, सालभर या पांच साल क्या 10 से 15 साल भी हो सकते हैं। इस दौरान युवाओं को राजनीतिक दलों में उपर बैठे बड़े नेताओं के चक्कर काटकर उनको अपने पक्ष में करने की अनिश्चतकालीन सेवा। इस दौरान भी युवाओं को एक नेता के चक्कर नहीं काटना पड़ता, बल्कि अध्यक्ष, महासचिव, सचिव, प्रभारी, संगठन प्रभारी, संगठन महासचिव, प्रवक्ता, विधायक, सांसद जैसे जाने कितने नेताओं को राजी रखना होता है, उनकी अनवरत सेवा करनी होती है, उनके हाथ पैर जोड़ने होते हैं।
इसके साथ ही इन युवाओं को यह भी ध्यान रखना होता है कि जिस नेता के वो खास माने जाते हैं, इसका पता दूसरे नेता को नहीं लगे, अन्यथा उसके नाराज होना करियर चौपट कर सकता है। युवा नेताओं को यदि एक जगह विनती प्राथना, विनती करनी हो तो काम हो भी जाए और उसको यह भी पता रहे कि उसको टिकट मिलेगा या नहीं, लेकिन जब टिकट देने वाले देवताओं की संख्या ही 21 करोड़ हो तो फिर कैसे माने की उसकी राजनीति सुरक्षित है या नहीं। कई बार नेता बनने के लिए पांच साल तक सेवा करने के बाद भी अंत समय में एक छोटी सी गलती पर बात बिगड़ जाती है। इसके बाद नेताओं को मनाना और साथ में दूसरे नेता की सेवा में जुट जाना। यह सिलसिला जाने कितना लंबा चलता है, इसकी कोई सीमा नहीं है।
कई बार किसी नेता का ठप्पा लगा जाता है तो दूसरे नेता उसको भाव नहीं देते हैं और अवसर मिलने पर उसके टिकट में रोड़ा भी अटका देते हैं। राजनीति में गॉड फादर रखना और उसकी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शारीरिक सेवा करनी होती है। इस सेवा का कोई अंत नहीं होता है। ये सब करने के लिए युुवा नेता के पास खुद का ऐसा कारोबार होना जरूरी है, जहां से बिना काम करे मोटा पैसा आता रहे। यदि पैसा नहीं होता है तो आज के युग में नेता बनना असंभव है। अब नेतागिरी में आगे बढ़ने के लिए मोटा पैसा होना पहली योग्यता हो गया है। विवि का छात्रसंघ चुनाव जीतने के बाद भी बिना पैसे के टिकट मिलने की गारंटी नहीं है। इसलिए युवाओं को पहले कारोबार स्थापित करना होता है, इसके लिए बड़े नेताओं के सहारे कानूनी से लेकर गैर कानूनी काम भी करने होते हैं। यानी सीधे तौर पर समझें तो राजनीति में शुरू करते ही गलत काम करने का अनुभव लेना होता है। इसके बाद यदि जनता ऐसे नेता से ईमानदारी पूर्वक सेवा करने की उम्मीद करती है तो इसमें उसकी क्या गलती है।
आजकल बड़े दलों में नेताओं के कतारें लगी हुई हैं। टिकटार्थियों को कई नेताओं को बॉयोडाटा देना होता है और उनके समय समय पर चरण स्पर्श करने होते हैं। उनके कार्यक्रमों की प्रशंसा करनी होती है, उनकी सोशल मीडिया पोस्ट्स को लाइक, शेयर, कमेंट्स करने होते हैं। बड़े नेताओं के साथ फोटो, वीडियो शेयर करने वाले युवा को सबसे मजबूत दावेदार माना जाता है। इन दिनों टिकट के लिए बड़े नेताओं के घरों के बाहर युवा नेता चक्कर काट रह हैं। इनको एक दो जगह नहीं, बल्कि कई जगह चक्कर काटने पड़ रहे हैं। सुबह से देर रात तक अथक मेहनत के बाद भी जब टिकट की आस नहीं मिलती है, उम्मीद नहीं जागती है, आश्वासन नहीं मिलता है, तब युवाओं की आशाएं टूटने लगती हैं। किंतु करें तो क्या करें, अगली सुबह फिर नई उम्मीद के साथ वापस जुट जाते हैं फिर उसी परिश्रम में, भविष्य की उम्मीद में, कि कभी तो टिकट मिलेगा।
सामान्यत: राजनीतिक दलों में नीचे से उपर तक पन्ना प्रमुख, विस्तारक, मंडल अध्यक्ष, जिला अध्यक्ष, प्रदेश अध्यक्ष, राष्ट्रीय अध्यक्ष की पदों से होते हुए गुजरना होता है। इसके साथ ही बीच में इनकी टीम होती हैं, जिनमें उपाध्यक्ष, महामंत्री, मंत्री, प्रवक्ता जैसे दर्जनों पद होते हैं, जिनको भी मनाकर रखना होता है। ये सब संगठन में होते हैं। इसके अलावा जीते हुए पार्षद, विधायक, सांसद, मंत्री और मुख्यमंत्री जैसे पद होते हैं, जिनकी पूरी खिदमत करनी होती है। यदि कोई तहसील में बैठा है, जो वहां पर आने वाले नेताओं की पूरी व्यस्था करनी होती है, उनको होटल में रखना, खाना पीने आदि के साथ ही यातायात उपलब्ध करवाना होता है। साथ ही वहां की स्थानीय व्यवस्था के लिए यदि लोगों को जुटाना है तो वो काम भी इन टिकटार्थी युवाओं को ही करना होता है। कुल मिलाकर किसी युवा को यदि राजनीति करनी है तो सैकड़ों जगह चरण दबाने के अलावा करोड़ों रुपये खर्च करने और 24 घंटे नेताओं के लिए उपलब्ध रहना होता है। उसके बाद भी यदि टिकट मिल जाए तो युवा नेता की किस्मत, अन्यथा फिर पांच साल बाद की तैयारी में लग जाते हैं।
Post a Comment