हनुमान बेनीवाल को अशोक गहलोत सपोर्ट क्यों करते हैं?



कांग्रेस पार्टी ऐसी सुदृढ़ रणनीति बनाकर चुनाव लड़ना चाहती ​है, जिससे आने वाले विधानसभा चुनाव में फिर से सत्ता रिपीट कराई जा सके। इसके लिए स्ट्रेटेजी भी बनाई जा रही है। किंतु सोचने वाली बात यह है कि कांग्रेस ने रणनीति बनाने की जो समिति बनाई है, उसके अध्यक्ष हरीश चौधरी ने ही कांग्रेस और सीएम अशोक गहलोत की चुनावी रणनीति को सवालों के घेरे में ला दिया है। 


हरीश चौधरी ने हाल ही में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुईं ज्योति मिर्धा का पक्ष लेते हुए साफ कहा है कि उन्होंने खींवसर के उपचुनाव में ईमानदारी और सच्चाई के साथ पूरा परिश्रम किया, लेकिन खुद कांग्रेस के बड़े नेता मिलकर आरएलपी के उम्मीदवार को जिताने का काम कर रहे थे। हालांकि, हरीश चौधरी ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन माना जा रहा है कि उन्होंने अशोक गहलोत के उपर ही यह आरोप लगाया है। हरीश चौधरी लगातार आरएलपी को अशोक गहलोत की बी पार्टी कहते हैं और आरोप भी लगाते हैं कि इस पार्टी को पालने—पोषने का काम खुद अशोक गहलोत ही करते हैं। 


क्या वास्तव में अशोक गहलोत हनुमान बेनीवाल की पार्टी को आगे बढ़ाने, उसको मदद करने और कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराने का काम करते हैं? क्या हनुमान बेनीवाल के इस सरकार में सभी काम आसानी से इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि पर्दे के पीछे से खुद अशोक गहलोत उनकी मदद करते हैं? क्या ज्योति मिर्धा को नागौर से चुनाव हराने और खींवसर से आरएलपी को चुनाव जिताने का काम खुद अशोक गहलोत ने ही किया था? क्या राज्य के 7 उपचुनाव में कांग्रेस को फायदा पहुंचाने के लिए ही हनुमान बेनीवाल ने सभी जगह चुनाव लड़ा और बीजेपी को नुकसान पहुंचाने का काम किया था? इन सभी सवालों से आज इस वीडियो में मैं पर्दा उठाने का प्रयास करुंगा। 


एक दिन पहले ही हनुमान बेनीवाल ने जयपुर में छात्रसंघ चुनावों को लेकर हुंकार भरी है। दोपहर में होने वाली रैली रात तक चली। रात को बरसात में भी वहीं डटे रहे, और वही पडाव डाल दिया। इसके बाद उच्च शिक्षामंत्री राजेंद्र यादव के साथ उनकी कमिश्नरेट में दो घंटे वार्ता चली, जिसमें तय किया गया कि एक कमेटी बनेगी, जो तय करेगी कि आगे छात्रसंघ चुनाव करवाने हैं या नहीं। इसी तरह से हनुमान बेनीवाल ने इस साल कई रैलियां करके जिलों में कलेक्टर एसपी से काम करवाए हैं। बजरी माफिया के खिलाफ बेनीवाल ने पांच रैलियां की हैं, जिसके बाद संबंधित जिला कलेक्टर और एसपी को मौके पर बुलाया गया है, वहां के टोल बंद करवाए गए हैं। 


यह काम इतना आसान नहीं है, जितना दिखाई देता है। बेनीवाल के लिए रात को कलेक्टर कार्यालय भी खुले हैं, तो सोए हुए कलेक्टर एसपी रात को तीन बजे धरना स्थल पर भी पहुंचे हैं। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है, जब कोई सांसद ने धरना दिया हो और उसी रात को फैसला भी हो गया हो। अन्यथा भाजपा के राज्यसभा सांसद डॉ. किरोड़ीलाल मीणा ने भी जयपुर में कई धरने दिए हैं, लेकिन उनके लिए ना तो रात को सरकारी कार्यालय खुले और ना ही कलेक्टर एसपी आधी रात को उठकर आए। बल्कि जब पता चला कि किरोड़ीलाल धरना या अनशन कर रहे हैं, तो उनको उठाकर भगाने का ही प्रयास किया गया है। 


अब सोचने वाली बात यह है कि बेनीवाल के लिए सरकार के अधिकारी इतने मुस्तैद क्यों रहते हैं? आखिरी क्या कारण है कि कलेक्टर आधी रात को बिस्तर छोड़ देता और एसपी मुख्यालय छोड़कर बेनीवाल के धरने पर पहुंच जाता है। ऐसा केवल दो ही तरह से हो सकता है। या तो नेता इतना दमदार हो कि उसके आगे सरकार झुक जाए, या फिर उसकी सरकार के साथ सांठगांठ हो। अन्यथा कोई भी कलेक्टर एसपी इस तरह से आधी रात को उठकर नहीं पहुंचता। अब यह सच तो बेनीवाल और गहलोत ही बता सकते हैं कि नेता मजबूत है या फिर सरकार से सांठगांठ है? हालांकि, इन दिनों बेनीवाल गहलोत की जुगलबंदी की चर्चा भी खूब हो रही है। 


वैसे तो हनुमान बेनीवाल की मूल पार्टी भाजपा है, जिसके टिकट पर चुनाव लड़कर वो पहली बार 2008 में विधानसभा पहुंचे थे, लेकिन एक साल के भीतर ही उनकी वसुंधरा राजे से लड़ाई हो गई और पार्टी ने उनको बाहर ​कर दिया था। बाद में बेनीवाल 2013 में निर्दलीय जीते और दूसरी बार विधायक बने। साल 2018 में वो अपने पार्टी बनाकर मैदान में उतरे, लेकिन 57 में से केवल 3 उम्मीदवार ही जिता पाए। अब उनकी पार्टी का यह दूसरी मुख्य चुनाव है, जबकि राज्य की 9 सीटों पर हुए उपचुनाव में उन्होंने 8 जगह प्रत्याशी उतारे। केवल झुंझुनूं की मंडावा मे बीजेपी के साथ प्रत्याशी उतारा था। भाजपा इन 9 में से केवल एक जगह राजसंमद में ही जीत पाई। बाकी खींवसर में हनुमान बेनीवाल के भाई नारायण बेनीवाल जीते और अन्य 7 जगह पर कांग्रेस जीती। एक सीट पर तो बेनीवाल के कारण भाजपा चौथे स्थान पर चली गई, जबकि एक अन्य जगह तीसरे नंबर पर रही। कुल मिलाकर यही माना जाता है कि आरएलपी की वजह से ही भाजपा सभी चुनाव हारी, अन्यथा एक दो जगह जीत सकती थी। 


पिछले विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में उनका भाजपा से गठबंधन हुआ और नागौर से वह खुद प्रत्याशी बने। उस समय कांग्रेस से ज्योति मिर्धा लगातारी तीसरी बार सांसद का चुनाव लड़ रही थीं। वह एक बार सांसद रह चुकी थीं, जबकि 2014 का चुनाव सीआर चौधरी के सामने हार चुकी थीं। उस चुनाव में खुद हनुमान बेनीवाल भी उम्मीदवार थे, लेकिन वह तीसरे स्थान पर रहे थे। जब 2019 के चुनाव के लिए ज्योति मिर्धा ने नामांकन पत्र भरा था, उसके बाद एक चुनावी रैली हुई। उस रैली को संबोधित करते हुए सीएम अशोक गहलोत ने दावा किया कि उन्होंने हनुमान बेनीवाल से गठबंधन करने का तीन—तीन बार प्रयास किया, लेकिन उन्होंने नहीं किया। गहलोत ने यह भी दावा किया कि बेनीवाल बहुत जिद्दी किस्म के आदमी है। माना जाता है कि अशोक गहलोत के उस बयान से भाजपा और आरएलपी को बहुत फायदा हुआ, जबकि कांग्रेस की ज्योति मिर्धा को बड़े पैमाने पर नुकसान उठाना पड़ा। 


यह भी कहते हैं कि आईपीएस रहे सवाई सिंह चौधरी को कांग्रेस में शामिल कराने का काम ​ज्योति मिर्धा ने ही किया था। सवाई सिंह चौधरी खींवसर से उम्मीदवार थे, लेकिन मूख्य चुनाव और उपचुनाव में वो हार गए। उन दोनों हार का आरोप भी अशोक गहलोत की टीम पर लगाया जाता है। हरीश चौधरी इन तीन हार का जिम्मा ही कांग्रेस के बड़े नेता और उनके करीबियों पर लगाया है। माना जाता है कि यह बड़ा नेता और ​कोई नहीं, बल्कि खुद अशोक गहलोत ही हैं। गहलोत पर हरीश चौधरी ने आरएलपी को प्रमोट करने के कई बार आरोप लगाए हैं। 


यह भी कहा जाता है कि उपचुनाव में हनुमान बेनीवाल को हैलिकॉप्टर में घुमाने का खर्चा भी किसी बड़े कांग्रेसी नेता ने दिया था। दूसरा आरोप यह लगाया जाता है कि पिछली बार जब हरीश चौधरी बायतु से चुनाव लड़ रहे थे, तब भी कांग्रेस के बड़े नेता ही आरएलपी उम्मीदवार को प्रमोट करने के लिए ताकत लगाई थी। मजेदार बात यह है कि आरएलपी ने नोखा से रामेश्वर डूडी और बायतु से हरीश चौधरी के सामने उतारे उम्मीदवारों को वापस नहीं लिया था। माना जाता है कि कांग्रेस की तरफ से तब अशोक गहलोत, सचिन पायलट के साथ ही बदली हुई परिस्थितियों में रामेश्वर डूडी और हरीश चौधरी भी सीएम पद के दावेदार थे, जिनको जादूगरी से चुनाव हराने के लिए ही आरएलपी के उम्मीदवार उतारे गए थे। इसका नतीजा यह हुआ कि रामेश्वर डूडी चुनाव हारकर सीएम पद की रेस से बाहर हो गए, जबकि बाद में एक छोटे से मामले को हाइप देकर हरीश चौधरी के खिलाफ सीबीआई जांच की अनुशंषा की गई। इन दो मामलों ने भी साबित किया है कि अशोक गहलोत की बी टीम कैसे काम कर रही है।


अब दो दिन से कुछ कंटेंट वायरल हो रहा है। इसमें बताया जा रहा है कि हनुमान बेनीवाल के कहने पर राज्य की सरकार ने 300 मामलों की पुलिस जांच बदली है। ठीक इसी तरह से सरकार से जो भी आरएलपी विधायकों ने मांग की है, वो पूरी हुई है, जबकि खुद कांग्रेस के सचिन पायलट गुट के विधायक मांगते मांगते थक गए, लेकिन उनके क्षेत्र में काम नहीं किया गया। यहां तक कहा जाता है कि हरीश चौधरी का स्थानीय एसपी और आईजी तक फोन नहीं उठाते हैं। दूसरी ओर कुछ समय पहले जब हनुमान बेनीवाल ने बजरी माफिया के खिलाफ मोर्चा खोला था, तब आधी रात को भी कलेक्टर और एसपी आकर उनसे मौके पर बात करते थे, रात को ही आदेश भी होते थे। इन तमाम मामलों को लेकर हरीश चौधरी ने अशोक गहलोत और हनुमान बेनीवाल के गठजोड़ के आरोप लगाए हैं। 


अब समझने वाली बात यह है कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है? क्या अशोक गहलोत के बेटे को चुनाव हराने में सबसे बड़ी मदद करने वाले हनुमान बेनीवाल के साथ सीएम का परोक्ष गठबंधन हो सकता है? असल बात यह है कि राजनीति में जो होता है, वो सच नहीं होता है। सियासत में जो होता है, वो दिखाई नहीं देता है। खुद अशोक गहलोत का यह फेवरिट डायलोग है। ऐसे में कोई अति​श्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि अशोक गहलोत ही पर्दे के पीछे से हनुमान बेनीवाल की मदद कर रहे हों। 


आजकल हनुमान बेनीवाल के निशाने पर सचिन पायलट भी हैं। जिन युवाओं के सहारे बेनीवाल भीड़ जुटाते हैं, उनको यह भी बताने का प्रयास कर रहे हैं कि सचिन पायलट युवाओं की मदद नहीं कर रहे हैं, जबकि हकिकत यह है कि जब सचिन पायलट सरकार का हिस्सा नहीं हैं, तो उनकी जिम्मेदारी कैसे बनती है? हरीश चौधरी और बेनीवाल के बीच विवाद काफी पुराना नहीं है, लेकिन 2018 के चुनाव में हरीश चौधरी को हराने के लिए आरएलपी ने उम्मेदाराम बेनीवाल को पूरी ताकत से चुनाव लड़ाया। 


इस बार कहा जा रहा है कि उम्मेदाराम बेनीवाल भाजपा, कांग्रेस को हरा देंगे। वैसे ही बेनीवाल बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, जोधपुर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं क्षेत्र में काफी सक्रिय रहते हैं। आपको याद होगा पश्चिमी राजस्थान कभी मदेरणा, मिर्धा, ओला परिवार की राजनीति का गढ़ हुआ करता था। इन तीन परिवारों के सहारे ही कांग्रेस की पूरी राजनीति चलती थी, लेकिन समय के साथ तीनों परिवार राजनीति से बाहर से हो गये हैं। ऐसे में पश्चिमी राजस्थान में किसान राजनीति के केंद्र में आने के लिए हनुमान बेनीवाल प्रयास कर रहे हैं। 


वैसे तो कांग्रेस और आरएलपी का गठबंधन होने की फिलहाल कोई संभावना भी नजर नहीं आती है, लेकिन पीसीसी अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने यह कहकर हवा चला दी है कि पहले इंडिया गठबंधन का हिस्सा होंगे, उसके बाद कांग्रेस गठबंधन के बारे में बात करेगी। इसका मतलब यह है कि कांग्रेस आरएलपी के साथ अलाइंस करने को तैयार है। असल बात यह है कि राजस्थान की करीब 60 सीटों पर जीत हार तय करने वाली जाट आबादी को साधने के लिए कांग्रेस को बेनीवाल की जरुरत है। यदि बेनीवाल का कांग्रेस के साथ अलाइंस होता है, तो इसका कांग्रेस नेता ही विरोध करेंगे। हरीश चौधरी ने साफ कर दिया है कि इसके बारे में वो सोच भी नहीं सकते। दूसरी तरफ दिव्या मदेरणा के साथ ही बेनीवाल का छत्तीस का आंकड़ा है। कांग्रेस में और भी जाट समाज से आने वाले नेता हैं, जो बेनीवाल के साथ अलाइंस नहीं चाहते, लेकिन जब आदेश उपर से जाएगा, तब ये नेता क्या करेंगे, ये भी देखने वाली बात है। 


ऐसे में भले ही अशोक गहलोत और हनुमान बेनीवाल के बीच अलाइंस की बात सच नहीं हो, लेकिन इतना पक्का है कि हरीश चौधरी बातों में कुछ तो सच्चाई है, जो इतने लंबे समय से कह रहे हैं कि अशोक गहलोत की एक और पार्टी है। वैसे अशोक गहलोत इससे पहले 2003 में भी राजस्थान सामाजिक न्याय मंच नाम पार्टी को इसी तरह बाहर से समर्थन करके भाजपा को नुकसान पहुंचाने का विफल प्रयास कर चुके हैं। इस बार फिर वही हालात उत्पन्न होते नजर आ रहे हैं। वसुंधरा राजे गुट के कैलाश मेघवाल समेत कई नेताओं के निर्दलीय या फिर आरएलपी से चुनाव लड़ने के समीकरण बनते दिखाई दे रहे हैं। देखने वाली बात यह होगी कि भाजपा ने नए समीकरणों से कैसे मुकाबला कर पाएगी और हरीश चौधरी समेत तमाम वो नेता क्या करेंगे जो किसी गुट में नहीं होकर कांग्रेस के लिए काम करने वाले हैं?

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