राजस्थान में बीते 30 साल से सत्ता रिपीट नहीं होने की एक परंपरा बन गई है। आखिरी बार साल 1993 के समय भाजपा की भैरोंसिंह शेखावत वाली सरकार रिपीट हुई थी, उसके बाद कभी भी, किसी भी सियासी दल की सरकार रिपीट नहीं हो पाई। हालांकि, वर्ष 2003 में पहली बार वसुंधरा राजे की अगुवाई में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी, लेकिन खुद वसुंधरा राजे भी कभी भाजपा की सत्ता रिपीट नहीं करा पाईं। कांग्रेस की बात करें तो अशोक गहलोत तीन बार मुख्यमंत्री बने, और अपना तीसरा कार्यकाल पूरा करते दिखाई दे रहे हैं, लेकिन समर्थकों द्वारा जादूगर, जननायक, जननेता जैसी उपाधियां पाये बैठे अशोक गहलोत खुद अब तक एक बार भी सता रिपीट नहीं करा पाये हैं। अलबत्ता अशोक गहलोत के नेतृत्व में तो कभी कांग्रेस सत्ता तक भी नहीं पहुंच पाई है।
दरअसल, कांग्रेस ने साल 1998 के दौरान अघोषित रूप से परसराम मदेरणा के चेहरे पर चुनाव लड़ी और 8 साल बाद सत्ता में लौटी, लेकिन सत्ता प्राप्त करने के बाद अशोक गहलोत की गांधी परिवार से नजदीकी के चलते मदेरणा सीएम नहीं बन पाये। लगातार चार साल तक अकाल से जूझते राजस्थान में गहलोत ने अपना पहला कार्यकाल पूरा किया तो भाजपा की नेता वसुंधरा राजे की एंट्री होने के कारण कांग्रेस पार्टी 153 से सीधे 56 सीटों पर पहुंच गई। यह पहला चुनाव था, जब अशोक गहलोत तब सीएम होने के नाते मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट हो गये थे। इस चुनाव में भाजपा ने वसुंधरा राजे के अध्यक्ष रहते पहली बार राज्य में पूर्ण बहुमत पाया। परिवर्तन की लहर पर सवार वसुंधरा राजे को जैसे पूरा प्रदेश वोट कर रहा था, तो अकाल से जूझते और प्रदेश को विकास की पटरी से उतराने वाले अशोक गहलोत को सबक सिखाना चाहता था।
अशोक गहलोत से जनता इसलिए भी नाराज थी, क्योंकि कांग्रेस ने परसराम मदेरणा जैसे किसान नेता के नाम पर चुनाव प्रचार किया, लेकिन किसान नेताओं को शासन की मुख्यधारा में रत्ती भर भी हिस्सा नहीं दिया। राज्य की जनता जिस जोश के साथ कांग्रेस को वोट देकर परसराम मदेरणा को सीएम के लिए वोट कर रही थी, उसी जोश में पांच साल बाद अशोक गहलोत को सत्ता बाहर फेंकने के लिए भाजपा को वोट कर रही थी। कहा जाता है कि वैसे तो अशोक गहलोत ने खुद के पांच बार सांसद रहते कई नेताओं कई कांग्रेसी नेताओं की कार सेवा की थी, लेकिन यह पहला अवसर था, जब उन्होंने इस तरह सीधे तौर पर ही किसी किसान नेता का करियर चौपट कर दिया था। उसके कारण कांग्रेस के कार्यकर्ता भी अशोक गहलोत से काफी नाराज हो गये थे।
अशोक गहलोत के शासन को नाकारने से मिले बहुमत के दम पर पहली बार सत्ता में आई वसुंधरा राजे ने भी 2008 तक शासन किया। कथित तौर पर वसुंधरा राजे के उस सुशासन को राज्य की जनता आजतक याद करती है। हालांकि, खुद भाजपा के ही कई नेताओं ने उनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये। खुद पूर्व सीएम और उपराष्ट्रपति रहे भैरोंसिंह शेखावत ने एक बार कहा था कि वसुंधरा राजे ने 20 हजार करोड़ का भ्रष्टाचार किया है। इतना ही नहीं, शेखावत ने अफसोस जताते हुए यह भी कहा था कि उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती है, जो वसुंधरा राजे को राजस्थान की राजनीति में लाये। शेखावत के अलावा 2009 में कैलाश मेघवाल, गुलाबचंद कटारिया, घनश्याम तिवाड़ी जैसे नेताओं ने वसुंधरा राजे के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। भाजपा की आपस फूट और तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर के साथ खटास के कारण भाजपा को टिकट वितरण में खींचतान के कारण 2008 में मात खानी पड़ी, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही अंतर से भाजपा सत्ता से बाहर हो गई।
इस चुनाव में कांग्रेस ने एक तरह से सीपी जोशी के नाम पर चुनाव लड़ा गया था। चुनाव के बाद परिणाम तक अशोक गहलोत और सीपी जोशी के बीच अघोषित रूप से सीएम पद के लिए खींचतान चलती रही, लेकिन कड़क मिजाज सीपी जोशी खुद के विधानसभा क्षेत्र नाथद्वारा में ही एक वोट से हारकर सीएम की रेस से बाहर हो गये। कांग्रेस को 96 सीटों के साथ सत्ता के निकट जाने का अवसर मिला, लेकिन पूर्ण बहुमत नहीं मिला। सीपी जोशी के चुनाव हारने का फायदा उठाते हुए अशोक गहलोत फिर से फ्रंटफुट पर आ गये और बहुमत के करीब खड़ी कांग्रेस में शीशराम ओला जैसे अनुभवी नेताओं को सत्ता से दूर कर बसपा के 6 विधायकों को अपने पाले में ले लिया। बसपा के सभी 6 विधायक कांग्रेस में शामिल होने से पार्टी की 101 सीट हो गईं और अशोक गहलोत की लीडरशिप में दूसरी बार सरकार बन गई। इसी तरह से कुछ निर्दलीयों को साथ लेकर गहलोत ने पूरे पांच साल तक तीन टांगों की सरकार चलाई।
कहा जाता है कि सरकारी नाकामी के कारण गांधी परिवार द्वारा 2011 के दौरान अशोक गहलोत को सीएम पद छोड़ने को कहा गया, लेकिन उसी दौरान महिपाल मदेरणा को लेकर भंवरी देवी अपहरण और हत्याकांड सामने आ गया, जिसके कारण गहलोत की कुर्सी बच गई। महिपाल मदेरणा उस समय सीएम पद के तगड़े दावेदार बनकर उभर रहे थे। उसी दौरान कांग्रेस ने चंद्रभान को पीसीसी अध्यक्ष बनाया और 2013 का चुनाव उनकी लीडरशिप में लड़ा गया, लेकिन शासन की भयानक नाकामी के कारण कांग्रेस इतिहास की सबसे बुरी हार के साथ सत्ता से बाहर हो गई। यह दूसरा अवसर था, तब अशोक गहलोत की अगुवाई में कांग्रेस ने हार का रिकॉर्ड बनाया। हालांकि, अशोक गहलोत ने अध्यक्ष होने के कारण हार की जिम्मेदारी में चंद्रभान को भी शामिल किया। इस चुनाव में भाजपा नरेंद्र मोदी की प्रचंड लहर पर सवार थी और सत्ता परिवर्तन भी हो रहा था, जिसके चलते भाजपा को 163 सीटों पर जीत मिली।
कहते हैं लोकतंत्र में किसी को जरूरत से अधिक बहुमत मिल जाता है तो नेताओं का मुंह ऊंचा हो जाता है। यही वसुंधरा राजे के साथ हुआ। इस काल में पीसीसी चीफ बनकर कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे युवा नेता सचिन पायलट, जिनको लेकर आकर्षण युवाओं को अपनी तरफ खींच रहा था। लोग सचिन पायलट को अगले सीएम के तौर पर देख रहे थे। पार्टी की ओर से अध्यक्ष रहते पायलट ने सड़क पर और नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी ने सदन में सरकार से मोर्चा लिया। चुनाव में पार्टी बहुमत तक पहुंची, लेकिन सात दिन की लंबी लड़ाई के बाद अशोक गहलोत ने गांधी परिवार से नजदीकी का फायदा उठाकर तीसरी बार सीएम बनने का रास्ता साफ कर लिया। यह तीसरा अवसर था, तब अशोक गहलोत ने किसी और की मेहनत से बनी सरकार का मुखिया बनकर उसकी राजनीति तबाह करने का प्रयास किया। इस दौरान सीएम पद के दावेदारों में रामेश्वर डूडी भी थे, लेकिन सीपी जोशी की तरह अपने ही क्षेत्र से चुनाव हारकर सीएम की रेस से खुद बाहर हो गये।
सीएम नहीं बनाये जाने से नाराज होकर सचिन पायलट ने जुलाई 2020 में अशोक गहलोत सरकार से बगावत कर दी। जिसके बाद कांग्रेस ने पायलट की जगह गोविंद सिंह डोटासरा को पीसीसी चीफ बना दिया। डोटासरा को अध्यक्ष बने तीन साल पूरे हो चुके हैं। अब पार्टी ने उनको चुनाव समिति का अध्यक्ष भी बना दिया है, जो कि अध्यक्ष होने के कारण पदेन पद दिया जाता है। सत्ता रिपीट कराने की पुरजोर कोशिश में जुटी कांग्रेस ने चुनाव समिति में 29 नेताओं को जगह दी गई है, जिसमें गहलोत मंत्रिमंडल के अधिकांश मंत्रियों समेत खुद सीएम गहलोत और सचिन पायलट भी सदस्य हैं।
यानी एक बार फिर से चुनाव की जिम्मेदारी किसान वर्ग से आने वाले नेता के हाथ में आ गई है। अब यदि सत्ता रिपीट होती है, तो उसका श्रेय सीएम होने के कारण अपनी योजनाओं के नाम पर अशोक गहलोत लेंगे, लेकिन सत्ता से बाहर होने पर चंद्रभान की तरह इस बार गोविंद सिंह डोटासरा को भी बराबर का भागीदार बना लिया जायेगा। यानी सत्ता से बाहर होने की कगार पर खड़ी कांग्रेस ने एक बार फिर से किसान वर्ग के नेता को शहीद करने का प्लान बना लिया है।
बीते 25 साल से राजस्थान में एक कहावत बन चुकी है कि अशोक गहलोत जब सत्ता से बाहर जाते हैं, तो एक किसान नेता की बलि देकर ही जाते हैं। यदि कांग्रेस इस बार सत्ता रिपीट नहीं करवा पाई तो यह बात और पुख्ता हो जायेगी कि अशोक गहलोत के लिए जो कहावत बनी है, वह मिथ्या नहीं है, उसके पीछे ढाई दशक का अनुभव है, जिसमें गांधी परिवार के साथ जादूगरी कर सत्ता का सुख तो अशोक गहलोत खुद भोगते हैं और जब सत्ता से बाहर होने का समय आता है तो किसी किसान वर्ग से आने वाले नेता के कंधे पर बंदूक रखकर चला देते हैं, जिससे उसका बलिदान हो जाता है।
दरअसल, राजस्थान में आजादी के बाद से आजतक कोई किसान नेता सीएम पद पर नहीं पहुंचा है। यही कारण है कि सात दशक बाद आज भी किसान सीएम का नारा लगता रहता है। रालोपा सुप्रीमो और नागौर सांसद हनुमान बेनीवाल के अनुसार इन 70 साल में से 25 साल तो गहलोत—वसुंधरा के गठजोड़ ने ही किसान नेताओं को सत्ता की सीढ़ी तक नहीं पहुंचने दिया। एक बार फिर से दोनों का वही प्रयास चल रहा है। अशोक गहलोत जहां सत्ता रिपीट करा कर चौथी बार सीएम बनना चाहते हैं तो वसुंधरा राजे भाजपा की सरकार बनाकर तीसरी बार सीएम बनकर अशोक गहलोत की बराबरी करना चाहती हैं। साढ़े तीन साल पहले भाजपा ने किसान नेता सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया तब लोगों को यह उम्मीद जागी कि शायद कांग्रेस से पहले भाजपा किसी किसान नेता को सीएम बनाना चाहती है, लेकिन कुछ महीनों पहले अचानक से सतीश पूनियां की जगह चित्तौड़गढ़ सांसद सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाकर भाजपा ने भी राजस्थान के लोगों की उम्मीदों पर पानी फेरने का प्रयास किया है।
यानी जिस तरह से किसानों के नाम पर कांग्रेस आजतक सत्ता प्राप्त करती आई है, ठीक उसी तरह से भाजपा ने भी किसानों को अपनी तरफ आकर्षित करने की कोशिश ही की है। हालांकि, अभी यह तय नहीं है कि भाजपा भी कांग्रेस की तरह केवल वोट बैंक तक ही किसान वर्ग का इस्तेमाल करेगी या फिर पहली बार किसान नेता को सीएम पद देकर मिथक तोड़ने का काम करेगी। इधर, पीसीसी चीफ गोविंद सिंह डोटासरा को चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाकर सीएम अशोक गहलोत ने अपने इतिहास को बरकरार रखते हुए एक बार फिर से किसान नेता को बलिदान करने का रास्ता तो साफ कर ही दिया है। देखना होगा कि अशोक गहलोत अपनी सत्ता रिपीट करके मिथक को तोड़ते हैं, या गोविंद सिंह डोटासरा का बलिदान हो जाता है।
गोविंद सिंह डोटासरा बनेंगे इस बार बलि का बकरा!
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