राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। इसको लेकर प्रमुख दलों के साथ सभी छोटे दल और निर्दलीय प्रत्याशी भी तैयारी शुरू कर चुके हैं। कुछ लोग जो चार साल तक एक भी काम नहीं करवा पाये, वो भी अब अपने क्षेत्र में किक्रेट, फुटबॉल जैसी प्रतियोगिताएं करवाकर युवाओं को अपने साथ जोड़ने का विफल प्रयास कर रहे हैं। अपनी विरासत में मिले ठेकेदारी से कमाए अथाह धन से पहले राजस्थान विवि के छात्रसंघ अध्यक्ष बन गये, फिर पार्षद और मेयर बनकर जयपुर की सबसे सुरक्षित सीट सांगानेर से टिकट लेकर पार्टी के मतों से विधायक बन गये। जितनी आसानी से विधायक बने, उतनी ही आसानी से भाजपा के इस गढ़ को गंवाने की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। पार्टी जहां अपने परंपरागत वोटर्स के दम पर इस सीट को फिर से जीतने का दम भर रही है, तो कांग्रेस के हारे हुए प्रत्याशी ने जिस तरह से पूरे चार साल तक एक्टिव रहकर काम करवाया है, उसके बाद इस बार सांगानेर क्षेत्र की फिजां बदलती हुई दिखाई दे रही है।
कहा तो यहां तक जाता है कि दस करोड़ रुपये का टिकट लिया है तो कमाई करे बिना आगे के चुनाव की तैयारी कैसे करते। इसलिए काम कराने से ज्यादा ठेकेदारी और सीएम स्तर पर राज्य में जलदाय विभाग के अधिकांश ठेके लेकर कमाई करने में ही मन लगा रहा। अब एक बार फिर से उसी स्टाइल में टिकट हासिल करना चाहते हैं। यही वजह है कि ग्रांउड पर लोगों के काम करने के बजाये युवाओं को क्रिकेट किट बांटने और उनको खेल में व्यस्त कर अपने खेल खेलने की तैयारी चल रही है। सांगानेर की जनता जान चुकी है कि जो वर्तमान विधायक हैं, वो कैसे हैं, क्या काम करते हैं, कैसे काम करते हैं और किन लोगों का काम करते हैं, इस बात की जानकारी किसी से छिपी नहीं है। फिर भी क्षेत्र में विकास के काम कराने के मामले में विपक्षी उम्मीदवार ने काफी प्रयास किया है। हालांकि, जो हालत क्षेत्र में बने हुए हैं, ऐसे बुरे हालात इतिहास में कभी नहीं रहे। किसी भी जगह की सड़क ठीक नहीं है, हर जगह थोड़ी सी बरसात में ही पानी भर जाता है, जो कई दिनों तक भरा रहता है। जो लोग विधायक की पदचंपी करते हैं, उनको ही बजट दिया जाता है, उनके ही काम किए जाते हैं, उनको क्षेत्र का पूरा पैसा देकर उपकृत किया जाता है।
ये हालात केवल सांगानेर के नहीं हैं, बल्कि प्रदेश की अधिकांश सीटों के हैं, जहां के विधायकों ने या तो पैसे के दम पर टिकट पाया है, या फिर रसूख के दम पर आसानी से टिकट और जीत मिल गई है। कई विधायक ऐसे हैं, जो अपने क्षेत्र को भी पूरा नहीं जानते हैं। कारण यह है कि विकास कार्य पर उनका ध्यान होता ही नहीं है। राजनीति दलों ने ऐरे—गैरे लोगों को पैसे के दम पर टिकट देकर जिताने का जैस ठेका ही ले रखा है। यह बात सही है कि राजस्थान में आज भी सरकार पार्टी के सिंबल पर टिकट पाने वाले विधायकों के कारण ही बनती है, लेकिन जिस तरह से पिछले चुनाव में रालोपा, बीटीपी, बसपा, वाम दलों और निर्दलीयों ने अपनी ताकत दिखाई है, वह बड़े संकेत दे रही है। यदि भाजपा कांग्रेस के बड़े नेताओं को ये बातों और ये दल समझ नहीं आ रहे हैं, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य उनका कुछ नहीं हो सकता है।
कांग्रेस में जहां एक बार फिर से अशोक गहलोत अपने दम पर सरकार रिपीट कराने का दम भर रहे हैं, तो आलाकमान ने सचिन पायलट को फिर से मनाकर कांग्रेस की सरकार बनाने का प्रयास तेज कर दिया है, वहीं रालोपा के हनुमान बेनीवाल ने आधे राजस्थान की अधिकांश सीटों पर जीत का दावा ठोक दिया है। बेनीवाल ने दावा किया है कि किसान कौम के साथ यदि मेघवाल और मूसलमान भी शामिल हो जायेंगे तो रालोपा को 120 सीटों पर जीत हासिल होगी। जिस तरह की तैयारी बेनीवाल कर रहे हैं, उससे लग रहा है कि राज्य की बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, नागौर, चूरू, सीकर, झुंझुनू, अजमेर, भीलवाड़ा, टोंक, पाली और राजसमंद सीट पर बड़े पैमाने पर वोट मिलेंगे। इन जिलों में ही रालोपा अपना फोकस कर रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में रालोपा ने बीजेपी से गठबंधन किया था और इस बार विधानसभा चुनाव में ही भाजपा रालोपा का गठबंधन होने की संभावना है। हालांकि, बेनीवाल दावा कर रहे हैं कि भाजपा कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करेंगे, लेकिन राजनीति की कब हवा बदल जाये, कोई कह नहीं सकता।
इधर, कांग्रेस भी रालोपा के साथ गठबंधन करके सत्ता रिपीट कराने का दम भर रही है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने रालोपा को 25 सीट देने का प्रस्ताव दिया है, लेकिन बेनीवाल ने 40 सीटों से कम में गठबंधन करने से इनकार कर दिया है। हाल ही में कांग्रेस ने खुद स्वीकार किया है कि उनकी 85 सीटों पर जीत होगी, जबकि 28 सीटों पर बढत का दावा किया है। इसी तरह से भाजपा ने 150 से अधिक का लक्ष्य ले रखा है। अब अहम सवाल यह उठता है कि भाजपा ने अभी तक किसी को भी सीएम फेस प्रोजेक्ट नहीं किया है, तो क्या सिर्फ मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़कर जीता जा सकता है? दरअसल, भाजपा की ओर से दो बार सीएम रहीं वसुंधरा राजे को इस बार बीजेपी ने सीएम के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं करने का निर्णय लिया है। भाजपा के इस निर्णय से एक बात बिलकुल साफ हो चुकी है कि पार्टी इस बार वसुंधरा राजे को सीएम नहीं बनायेगी। इससे पहले 2003, 2003 और 2013 में चुनाव से पहले ही पार्टी ने साफ कर दिया था कि बीजेपी की सरकार बनी तो सीएम वसुंधरा राजे ही बनेंगी।
इस बार जिस तरह से पार्टी वसुंधरा राजे को सीएम चेहरा नहीं बनाने का फैसला किया है, उसी से साफ हो चुके है कि यदि सरकार भाजपा की बनी तो राजस्थान को 25 साल बाद नया सीएम देखने को मिलेगा। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि भाजपा किसको सीएम बना सकती है और उसके क्या कारण हो सकत हैं? विपक्ष के अनुसार भाजपा में एक दर्जन लोग सीएम के दावेदार हैं, लेकिन वास्तव में भी देखा जो तो आधा दर्जन नेताओं ने खुद को इस रेस में कर रखा है। करीब 20 साल तक राजस्थान भाजपा में एकछत्र राज करने वाली वसुंधरा राजे के समर्थकों के अनुसार 2013 की तरह इस बार भी चमत्कार होगा और आखिरकार वसुंधरा राजे को ही सीएम बनाया जायेगा। इनका मानना है कि वसुंधरा राजे का लंबा सियासी अनुभव, राजस्थान में दो बार सीएम होने का एक्पीयरियंस और राज्य भाजपा के पास चमत्कारिक नेता का अभाव, जो अपने दम पर सरकार बना सके।
यह बात सही है कि वसुंधरा राजे के दम पर ही भाजपा ने राजस्थान में पहली बार 2003 के समय पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, लेकिन यह बात भी सही है कि वसुंधरा के चेहरा होते हुए ही 2003 और 2018 में भाजपा ने सत्ता भी गंवाई थी। वसुंधरा समर्थक यह भी दावा करते हैं कि 2013 में 163 सीटों पर जीत भी उनके ही दम पर मिली थी, लेकिन हकिकत यह है कि वह जीत मोदी लहर के कारण मिली थी। ऐसे ही तमाम तर्क और तथ्य मौजूद हैं, लेकिन समर्थकों के लिए तर्क और तथ्य कोई मायने नहीं रखते हैं। दूसरा नंबर आता है कि पूर्व अध्यक्ष सतीश पूनियां का, जिन्होंने अध्यक्ष बनने के बाद कोरोना काल जैसी त्रास्दी के दौरान भाजपा को वसुंधरा राजे की छाया से बाहर निकाला और मजबूत विपक्ष के रूप में प्रदेश के अनैक शहरों में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। यह बात सही है कि वसुंधरा राजे जहां सतीश पूनियां का बहिष्कार कर रही थीं, तो इसके कारण भी लगातार बढ़ता जा रहा था। गुटबाजी बढ़ाकर वसुंधरा राजे ही सतीश पूनियां को हटाना चाहती थीं, और अपने गुट का अध्यक्ष बनाना चाहती थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका और संगठन के व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया गया। अब यदि मोटे तौर पर देखेंगे तो जन समर्थन के मामले में वसुंधरा राजे से अधिक सतीश पूनियां के साथ भीड़ दिखाई देती है। पिछले दिनों नागौर में गाडियों का रैला सतीश पूनियां की बढ़ती ताकत का गवाह बना।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या सतीश पूनियां को सीएम बनाया जा सकता है? असल में सतीश पूनियां भले ही संघ की पसंद हो, उनका संबंध राज्य की सबसे बड़ी आबादी वाली जाति से हो, लंबा अनुभव हो, लेकिन फिर भी उनका चुनाव करना या नहीं करना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सोच पर निर्भर करता है। तीसरा नंबर आता है कि नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ का। राठौड़ बीते 33 साल से अयेज विधायक हैं। उन्होंने पहली बार 1990 में जनता दल के टिकट पर चुनाव जीता था, लेकिन कुछ समय बाद ही वो भाजपा में शामिल हो गये। 1993 के चुनाव में भाजपा के टिकट पर चुनाव जाते और उसके बाद से लगातार बीजेपी के विधायक बनते आ रहे हैं। कैबिनेट मंत्री से लेकर सीएम रहते वसुंधरा राजे के नंबर एक मंत्री भी रह चुके हैं। राठौड़ को भैंरोसिंह शेखावत से लेकर वसुंधरा राजे तक लगातार करीब 3 दशक सत्ता और विपक्ष में में रहने का अनुभव है। आज की तारीख में विधानसभा में सबसे अच्छे संसदीय नेता माने जाते हैं। इस वजह से राजेंद्र राठौड़ का दावा भी कमजोर नहीं है। किंतु इतने बरसों बाद आज भी राठौड़ को संघ पसंद नहीं करता है, उनके उपर भरोसा नहीं करता है, यही एक सबसे बड़ा कारण है, जो उनको रोक सकता है। एक बड़ा कारण यह है कि तीन दशक बाद भी राठौड़ अपने विधानसभा क्षेत्र तक ही सीमित हैं, उन्होंने प्रदेशभर में अपनी पहुंच नहीं बनाई है।
इन तीन नेताओं के अलावा लोकसभा अध्यक्ष ओम बिडला भी सीएम पद के बड़े दावेदार माने जाते हैं। ओम बिड़ला को विधानसभा से लेकर लोकसभा तक का अनुभव है। राजनीतिक तौर पर भी वो लंबे समय से जनता के बीच में हैं। अब सवाल यही है कि क्या टॉप टू नेता उनको बनायेंगे? कहा जाता है कि जब अमित शाह निर्वासित जीवन बिता रहे थे तब ओम बिडला ने ही उनकी मदद की थी। इसी वजह से उनको इनाम के तौर बिडला को लोकसभा अध्यक्ष बनाया गया था। लोकसभा अध्यक्ष बनाने के बाद ओम बिड़ला ने केंद्रीय नेताओं के साथ संबंध बनाये और राजस्थान में भी अपने पैर मजबूत किये। हालांकि, फिर भी यह तय नहीं है कि ओम बिडला सीएम बन ही जायेंगे। असल में जब तक टॉप टू नेता किसी को आर्शीवाद नहीं देंगे, तब तक ओम बिडला भी सीएम नहीं बन पायेंगे।
राजस्थान के एक और नेता के सीएम बनने की चर्चा होती रहती है। जोधपुर सांसद और केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को लेकर भी चर्चा होती है कि सीएम की रेस में हैं। हालांकि, पिछले दिनों उन्होंने खुद 'राजेंद्र राठौड़ की सरकार बनाओ, ईआरसीपी का 46 हजार करोड़ रुपये दे दूंगा', यह कहकर इस रेस से बाहर कर लिया। इसके साथ ही संजीवनी घोटाले को लेकर भी उनके उपर केस दर्ज है, जिसकी जांच एसओजी कर रही है। इस प्रकरण को लेकर खुद सीएम अशोक गहलोत हाथ धोकर उनके पीछे पड़े हुए हैं। इसी तरह से पायलट की बगावत के समय भी गजेंद्र सिंह पर सरकार गिराये जाने के आरोप लगे थे, जिसका मामला भी कोर्ट में चल रहा है। माना जाता है कि वसुंधरा राजे खुद ही गजेंद्र सिंह के पीछे पड़ी हुई हैं। फिर भी बात वहीं आकर अटक जाती है कि यदि मोदी शाह चाहेंगे तो गजेंद्र भी सीएम बन सकते हैं।
कहने का मतलब यह है कि भाजपा को बहुमत मिलता है तो सीएम बनने का रास्ता मोदी शाह के मुखद्वार से निकलता है। जिसे वो दोनों चाहेंगे, वही सीएम होगा। चाहे वो सांसद हो, विधायक हो या फिर भी चुनाव हारा हुआ या चुनाव नहीं लड़ा हुआ ही क्यों ना हो। आपको याद होगा इस साल के शुरुआत में उत्तराखंड़ में पुष्कर धामी के चुनाव हारने के बाद भी उनको सीएम बनाया गया था। अब सवाल यह भी उठता है कि यदि भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही दलों को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो क्या होगा? जिस तरह का ट्रेंड राजस्थान में रहा है, उसके हिसाब से इस बार भाजपा बहुमत पायेगी, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस को दो बार पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, उस तरह से बीजेपी को नहीं मिला तो क्या होगा? पश्चिमी राजस्थान में हनुमान बेनीवाल का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, उसके हिसाब से कई सीटों पर जीतने की संभावना है। उस हालात में भाजपा रालोपा की मदद ले सकती है। यदि सीटों का अंतर अधिक हो गया तो फिर सियासी समीकरण बदल भी सकते हैं। आपको याद होगा कम सीटों के बाद भी बिहार में नीतिश कुमार को बीजेपी ने सीएम बनाया था। इसी तरह से कई राज्यों में भाजपा ने छोटे दलों को सहयोग कर पूर्वी भारत के राज्यों में उनके सीएम बनाये हैं। सियासत का कोई पता नहीं है, किसको बहुमत मिले और कौन बहुमत खो दे। इसलिए यह भी संभव है कि भाजपा रालोपा जैसे छोटे दलों को समर्थन देकर उनका ही सीएम बना दे।
भाजपा की सरकार आई तो जान लीजिए कौन बनेगा मुख्यमंत्री?
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