राजस्थान कांग्रेस में बीते साढ़े तीन साल से जारी जंग समाप्त मानी जा रही है। हालांकि, राजनीति के जानकारों का कहना है कि जंग समाप्त नहीं हुई है, बल्कि यह शांति फाइनल करने का इंटरवल मात्र है। जंग का चरम समय अभी बाकी है। जिसमें सचिन पायलट का बड़ा फैसला होना है। अभी तक यही सामने आ रहा है कि सचिन पायलट को अब कांग्रेस आलाकमान ने मना लिया है, वह अब अशोक गहलोत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे। यानी जब सरकार बनी थी, तब अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को लेकर जो कसम खाई थी, वह पूरी कर ली है। जबकि इस बीते साढ़े तीन साल में सचिन पायलट के जयकारे लगाने वाले समर्थकों में भी अब निराशा का भाव पनपने लगा है। जो समर्थक कल तक पायलट के नाम से ही जयकारे लगाते थे, वो अब शांत होते जा रहे हैं। पायलट के सरकारी आवास पर पहुंचने वाले लोगों की संख्या भी पहले के मुकाबले कम होने लगी है। 11 जून को जब स्व. राजेश पायलट की पुण्यथिति के मौके पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था, तब जो भीड थी, वैसी भीड़ शायद ही जुट पायेगी। लोगों को जो उम्मीदें सचिन पायलट को लेकर थीं, वो पायलट द्वारा अशोक गहलोत के गुणगान करने के बाद धराशाही हो गई हैं।
हकिकत बात तो यह है कि अशोक गहलोत ने जो चाहा, वही सबकुछ सचिन पायलट के साथ करके दिखा दिया है। दो दिन पहले जब कांग्रेस के जिलाध्यक्षों, उपाध्यक्षों, महासचिवों और सचिवों की सूची आई, तो उसमें भी गहलोत और डोटासरा के लोगों को महत्व दिया गया है। पायलट के समर्थकों को उन ही पदों पर जगह दी है, जहां अधिक महत्व नहीं है। अशोक गहलोत चाहते थे कि सचिन पायलट का राजस्थान से पत्ता साफ हो जाये, हालांकि, एक इंटरव्यू में सचिन पालयट ने कहा है कि उनका मन राजस्थान में ही है, राजस्थान उनको बहुत कुछ दिया है और यही उनकी कर्मभूमि है, इसको छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे, लेकिन हकिकत यह है कि अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को राष्ट्रीय महासचिव बनाने का रास्ता साफ कर दिया है। इसके साथ ही उनको किसी राज्य का प्रभारी बनाने की भी तैयारी की जा रही है। लॉलीपॉप के तौर पर राजस्थान में उनके समर्थकों को फिर से टिकट दिलवा दिया जायेगा और जीतना—हारना उनकी किस्मत पर छोड़ दिया जायेगा। ऐसा लग रहा है कि चुनाव के बाद जो लोग चुनाव हार जायेंगे, उनके द्वारा सचिन पायलट को ही भला बुरा कहा जायेगा। लोग कहेंगे कि हम सचिन पायलट के चक्कर में पांच साल तक सरकार से दूर रहे, यदि वह गहलोत से राजी रहते तो बहुत सारे काम करवा लेते और बहुत कुछ हासिल भी कर लेते, लेकिन पायलट के कारण ना तो वो गहलोत के साथ ही रह सके, और ना ही पायलट के साथ रहने का लाभ मिला। जो हार जायेंगे, वो हजार प्रकार का दबाव झेलकर भी जीवन में कभी बगावत करने की हिम्मत नहीं जुटा पायेंगे।
अशोक गहलोत की मंशा के अनुसार राष्ट्रीय महासचिव के साथ ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या तेलंगाना का प्रभारी बनाकर सचिन पायलट को राजस्थान से चुनाव तक दूर कर दिया जायेगा। इस दौरान वो राजस्थान में प्रचार नहीं कर पायेंगे, तो जिनको वह टिकट दिवायेंगे, वो भी जीत नहीं पायेंगे। सरकार के खिलाफ चल रही सत्ता विरोधी लहर में ऐसे लोग ही ज्यादा हारेंगे, जो अपने क्षेत्र में काम नहीं करवा पाये हैं। सचिन पायलट के साथी विधायकों ने बगावत की थी, इसलिये सरकार ने उनके साथ दोहरा बर्ताव किया और उनके क्षेत्र में विकास के काम ठप रहे हैं। इसलिये उनपर ना तो जनता का भरोसा रहा है और सचिन पायलट को भी यदि किसी राज्य का प्रभारी बनाया जाता है तो वह भी प्रचार के लिए समय नहीं दे पायेंगे। इस वजह से जो दुर्गति पायलट कैंप के लोगों के साथ होगी, वही तो अशोक गहलोत करना चाहते थे।
इधर, खुद पायलट की बात की जाये तो 2018 के चुनाव से पहले ही अशोक गहलोत उनको निपटाने के लिए जाल बिछाना शुरू कर चुके थे। सरकार बनने के बाद सीएम बने अशोक गहलोत और डिप्टी बनकर परेशान रहे सचिन पायलट ने आखिरकार डेढ साल बाद बगावत करने को मजबूर हुए। उससे पहले डिप्टी सीएम या अध्यक्ष, दोनों में से एक पद छोड़ने के लिए अभियान शुरू कर चुके थे। सभी फाइल्स और सभी तरह का बजट सीमएओ से पास होने लगा तो कम अनुभवी सचिन पायलट कैंप बगावत को मजबूर हो गया। यही अशोक गहलोत चाहते थे। इस दौरान निर्दलीय साथ होने के कारण सरकार पर कोई संकट नहीं था, लेकिन फिर भी अशोक गहलोत ने एक महीने तक अपने साथियों को होटलों में कैद करके कांग्रेस आलाकमान को यह बताने का प्रयास किया कि सचिन पायलट ने अमित शाह के साथ मिलकर किस हद तक सरकार गिराने की कोशिश की थी। सचिन पायलट की इस गलती को सुधारने के लिए दर्जनों बार सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने कांग्रेस से नहीं, बल्कि अशोक गहलोत सरकार से बगावत की थी। इस दौरान अशोक गहलोत अपने कुटिल प्रयासों से सचिन पायलट को गांधी परिवार की नजर में गद्दार साबित करने में कामयाब हो गये।
सचिन पायलट के पास अनुभव की कमी थी, पूरा कैंप ही अशोक गहलोत की चतुर चालों को समझ नहीं पाया। आखिर वही होता गया, तो अशोक गहलोत चाहते थे। इस साढ़े तीन साल के दौर में अशोक गहलोत केवल 25 सितंबर को कमजोर दिखे, जब मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को दूत बनाकर सोनिया गांधी ने एक लाइन का प्रस्ताव पास करने भेजा। उस दौरन अशोक गहलोत ने अपने ब्रामास्त्र चला दिया। मंत्री और विधायकों को विलेन बना दिया और इसकी जिम्मेदारी लेते हुए सोनिया गांधी से माफी मांगकर मामले की इतिश्री कर दी। वही एक मौका था, तब सचिन पायलट भारी पड़े थे, अन्यथा इस काल में कभी भी सचिन पायलट को अशोक गहलोत ने भारी पड़ने का अवसर नहीं दिया। आखिरकार सचिन पायलट जब सरकार के खिलाफ बगावत करते नजर आये और पार्टी बनाने की चर्चा शुरू हो गई, तब अशोक गहलोत ने अपना दूसरा हथियार चला। समय निकालकर अपने दावं पेंच खेलने में माहिर खिलाड़ी अशोक गहलोत लंबे समय से सचिन पयलट को राजस्थान से बाहर निकालने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें वह अब सफल होते दिखाई दे रहे हैं।
कहा जा रहा है कि कभी भी सचिन पायलट को राष्ट्रीय महासचिव और सीडब्ल्यूसी का मैंबर बनाकर दिल्ली बुलाया जा सकता है। यदि दो अपॉइंमेंट हो गये तो अशोक गहलोत के सभी लक्ष्य पूरे कर लिये जायेंगे। एक तरफ तो अशोक गहलोत के सामने से इस कार्यकाल के साथ ही राजस्थान में अगले सीएम बनने का रास्ता भी साफ हो जायेगा। दूसरी तरफ सचिन पायलट के समर्थकों को निराशा होगी तो फिर वो भी टूटकर गहलोत के गुट में जाने लगेंगे। उनके सामने गुटबाजी करने वाला कोई नहीं होगा। यह तीसरा अवसर है, जब अशोक गहलोत ने अपने सबसे बड़े तीसरे नेता को जमींदोज करने का काम किया है। उल्लेखनीय बात यह है कि पहले कार्यकाल में परसराम मदेरणा का वर्चस्व खत्म करने का काम किया था। दूसरे कार्यकाल में सीपी जोशी से लेकर महिपाल मदेरणा जैसे नेताओं को अपने रास्ते से हटाने का काम किया था। अब सरकार का अंतिम समय चल रहा है और इसमें लंबी लड़ाई लड़ने के बाद आखिरकार सचिन पायलट को भी सियासी मात दे दी है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सचिन पायलट इस तरह से मात खाने के बाद भी बैठे ही रहेंगे या आगे कोई बड़ा कदम उठाने वाले हैं? असल बात यह है कि सचिन पायलट जैसा लड़ाका इतनी आसानी से हार मानने वाला नहीं है, लेकिन फिर भी फिलहाल के लिए सचिन पायलट कमजोर दिखाई पड़ रहे हैं। यदि सचिन पायलट बार बार कह रहे हैं कि वह राजस्थान छोड़कर नहीं जायेंगे, उसके बाद भी उनको बाहर भेजने का प्रयास किया जा रहा है तो क्या वह आगे क्या कदम उठायेंगे? सचिन पायलट को लेकर फिलहाल केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उन्होंने अशोक गहलोत के सामने अपनी हार स्वीकार कर ली है। जिसके कारण सचिन पायलट का सियासी कद छोटा पड़ता दिखाई दे रहा है। असल में जो नेता अपने दल या दूसरे दल के साथ फ्रंटफुट पर आकर खेलता है, वह जनता को बेहद पसंद होता है। सचिन पायलट पिछले साढ़े तीन साल से अशोक गहलोत से लोहा ले रहे थे, इसलिये लगातार उनका कद बढ़ रहा था, लेकिन जैसे ही उन्होंने आलाकमान के कहने पर अशोक गहलोत के साथ समझौता किया, वैसे ही अचानक उनके कद में भारी कमी आई है। आप देखेंगे कि पायलट को लेकर बीते तीन दिन में सोशल मीडिया पर लाइक करने वालों की संख्या में तेजी से कमी आई है। अभी तक यह माना जा रहा था कि राजस्थान में सचिन पायलट, हनुमान बेनीवाल, किरोड़ीलाल मीणा के रूप में तीन ही नेता हैं, जो सीधे सरकारों से टकराने की हिम्मत रखते हैं। अब पालयट के समझौते के बाद हनुमान बेनीवाल और किरोडीलाल मीणा ही लड़ाका दिखाई दे रहे हैं, जिनमें से किरोड़ीलाल मीणा के पीछे भाजपा खड़ी है। यानी सीधे तौर पर देखा तो केवल हनुमान बेनीवाल ही ऐसे नेता हैं, जो अशोक गहलोत से लेकर नरेंद्र मोदी सरकार से भी लड़ते हुए दिखाई दे रहे हैं।
जब तक कोई नेता लड़ता रहता है, तब तक उसको युवा पंसद करते हैं, लेकिन जब वह लड़ना छोड़ देता है तो युवा भी उसका साथ छोड़ देते हैं। यदि सचिन पायलट ने इस समझौते के अनुसार ही सरेंडर कर दिया तो आने वाले समय में यही हाल उनका होने वाला है। सोशल मीडिया पर बीते दिन से मिलने वाले कमेंट्स ही बता रहे हैं कि सचिन पायलट को लेकर युवाओं में जो क्रेज था, वह काफी कम हो गया है। यही गतिविधि जारी रही तो सचिन पायलट को लेकर हनुमान बेनीवाल की वो भविष्यवाणी सच साबित हो जायेगी, जब दो चार साल बाद भूल जायेंगे और पूछेंगे कि कौनसा पायलट? हवाई जहाज उड़ाने वाला या राजनीति करने वाला? बड़े कद के नेता को अपना वजूद बचाये रखने के लिए या तो बड़ा पद हासिल करना पड़ता है या फिर सड़क पर जनता के लिए लगातार लड़ना होता है, तभी जनता लगातार उसपर भरोसा करती है।
अशोक गहलोत ने सचिन पायलट कौनसा जादू कर दिया कि वो एकदम से बदल गये हैं?
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