रामगोपाल जाट
जून का महीना चल रहा है, लेकिन जिस तरह का ठंडा जून इस बार आया है, वैसा संभवत: दशकों में कभी नहीं आया। जिस तरह से जून ठंडा है, ठीक वैसे ही राजस्थान की राजनीति ठंडी पड़ी है, जबकि चुनाव सिर पर हैं। खासकर कांग्रेस की राजनीति के केंद्र में घोषणा जीवी सीएम अशोक गहलोत के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। एक दिन पहले ही अशोक गहलोत को बैठक में बुलाया गया था, लेकिन उन्होंने बीमारी का बहाना कर नहीं गये। यह पहला अवसर नहीं है, जब गहलोत ने दिल्ली के आदेश की अवहेलना की है, इससे पहले एक साल में कई बार ऐसा सुनने में आया है।
कहा जा रहा था कि सचिन पायलट के मामले में अशोक गहलोत से कांग्रेस आलाकमान आखिरी बैठक करना चाहता है, हालांकि, ये आखिरी बैठकें बीते तीन साल से आखिरी नहीं हो पा रही हैं। जिसके कारण कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता जा रहा है। सरकार जहां सत्ता रिपीट कराने का दावा कर रही है, तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में छाई निराशा पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है। इस दौरान कांग्रेस के नेताओं में भाजपा ज्वाइन करने की होड लग गई है, जो सत्ता परिवर्तन का संकेत भी दे रही है।
उधर, कांग्रेस सूत्र दावा कर रहे हैं कि जल्द ही अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की जंग समाप्त हो जायेगी। पिछले महीने के आखिर में दिल्ली पायलट, गहलोत के साथ हुई मीटिंग के तुरंत बाद राहुल गांधी विदेश चले गये थे, जो अब लौटे हैं। पिछले महीने की ही 15 तारीख को सचिन पायलट ने जयपुर में रैली के दौरान शपथ ली थी कि 31 मई तक यदि अशोक गहलोत सरकार ने उनकी तीन मांगें नहीं मानीं तो वह जन आंदोलन करेंगे, लेकिन दूसरा महीना भी खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है, किंतु सचिन पायलट के आंदोलन की सुगबुगाहट सुनाई नहीं दे रही है।
इसी बात को लेकर कांग्रेस के लोग दावा कर रहे हैं कि अब राहुल गांधी आ गये हैं, तो सचिन पायलट की उनके साथ बैठक होगी और सभी मुद्दों को सुलझा दिया जायेगा। पिछले महीने की मीटिंग के बाद दावा किया गया था कि पायलट गहलोत के बीच मुद्दों को सुलझा दिया गया है, दोनों मिलकर चुनाव लड़ेंगे, अब दोनों के बीच किसी तरह की बयानबाजी नहीं होगी, लेकिन उसके तीसरे ही दिन टोंक में पत्रकारों से बात करते हुए पायलट ने अपनी तीनों मांगों को दोहरा दिया था।
कहा जा रहा था कि सचिन पायलट के मामले में अशोक गहलोत से कांग्रेस आलाकमान आखिरी बैठक करना चाहता है, हालांकि, ये आखिरी बैठकें बीते तीन साल से आखिरी नहीं हो पा रही हैं। जिसके कारण कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरता जा रहा है। सरकार जहां सत्ता रिपीट कराने का दावा कर रही है, तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में छाई निराशा पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है। इस दौरान कांग्रेस के नेताओं में भाजपा ज्वाइन करने की होड लग गई है, जो सत्ता परिवर्तन का संकेत भी दे रही है।
उधर, कांग्रेस सूत्र दावा कर रहे हैं कि जल्द ही अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच की जंग समाप्त हो जायेगी। पिछले महीने के आखिर में दिल्ली पायलट, गहलोत के साथ हुई मीटिंग के तुरंत बाद राहुल गांधी विदेश चले गये थे, जो अब लौटे हैं। पिछले महीने की ही 15 तारीख को सचिन पायलट ने जयपुर में रैली के दौरान शपथ ली थी कि 31 मई तक यदि अशोक गहलोत सरकार ने उनकी तीन मांगें नहीं मानीं तो वह जन आंदोलन करेंगे, लेकिन दूसरा महीना भी खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है, किंतु सचिन पायलट के आंदोलन की सुगबुगाहट सुनाई नहीं दे रही है।
इसी बात को लेकर कांग्रेस के लोग दावा कर रहे हैं कि अब राहुल गांधी आ गये हैं, तो सचिन पायलट की उनके साथ बैठक होगी और सभी मुद्दों को सुलझा दिया जायेगा। पिछले महीने की मीटिंग के बाद दावा किया गया था कि पायलट गहलोत के बीच मुद्दों को सुलझा दिया गया है, दोनों मिलकर चुनाव लड़ेंगे, अब दोनों के बीच किसी तरह की बयानबाजी नहीं होगी, लेकिन उसके तीसरे ही दिन टोंक में पत्रकारों से बात करते हुए पायलट ने अपनी तीनों मांगों को दोहरा दिया था।
यहां क्लिक कर पढ़ें: यही सचिन पायलट की पांच साल में सबसे बुरी हार होगी, जो उनका करियर खत्म कर देगी!
इसके बाद लोगों को लग रहा था कि 11 जून को स्व. राजेश पायलट की पुण्यतिथि के अवसर पर पायलट अपनी पार्टी की घोषणा कर देंगे या फिर कांग्रेस छोड़ देंगे। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया था कि पायलट इसी दिन बड़े आंदोलनों की रूपरेखा जनता के सामने रखेंगे, किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस दौरान केवल गहलोत वसुंधरा पर इशारों में सियासी हमला करने के सिवा सब कुछ शांत रहा।
11 जून के बाद सचिन पायलट और उनके साथी विधायक राजनीतिक तौर पर कहां हैं, किसी को पता नहीं है। इस दौरान एक दिन पहले ही उनके खेमे से माने जाने वाले विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष दीपेंद्र सिंह शेखावत ने चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर दिया है। गहलोत गुट के कांग्रेसियों का मानना है कि सचिन पायलट पार्टी नहीं छोड़ सकते, क्योंकि उनके साथी विधायकों ने इस मामले में उनका साथ देने से इनकार कर दिया है।
दूसरी ओर कांग्रेस के सूत्र कह रहे हैं कि पायलट गहलोत के बीच सुलह का फार्मूला इजाद किया जा चुका है। इस नए फॉर्मूले के बाद पायलट गहलोत के बीच चल रही सियासी जंग खत्म हो जायेगी, बल्कि दोनों मिलकर चुनाव प्रचार करेंगे, जिससे सत्ता भी रिपीट हो जायेगी।
इस नए फॉर्मूले में दावा किया जा रहा है कि सचिन पायलट को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए अशोक गहलोत तैयार हो गये हैं। साथ ही उनको चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैन का भी जिम्मा दिया जायेगा, जो ना केवल प्रचार को लीड करेंगे, बल्कि अधिकांश टिकटों का वितरण भी वही करेंगे। हालांकि, यह नहीं बताया गया है कि इसकी घोषणा कब की जाएगी?
सवाल यह उठता है कि बीते साढ़े तीन साल से सीएम पद के लिए पूरी कांग्रेस से दुश्मनी मोल लेने वाला पायलट खेमा क्या इन पदों पर संतुष्ट हो पायेगा? दरअसल, जनवरी 2014 में सचिन पायलट को पीसीसी चीफ बनाया गया था, तब से वह जुलाई 2020 तक इस पद पर बने रहे, यानी देखा जाये तो साढ़े 6 साल तक पीसीसी चीफ रहे पायलट एक बार फिर से 9 साल पीछे चले जायेंगे।
दूसरा पद है इलेक्शन कैंपेन कमेटी का चैयरमेन। यह पद केवल चुनावी पद होता है, इसका महत्व केवल इतना होता है कि टिकट वितरण के दौरान चुनाव प्रचार समिति अध्यक्ष की घुसपैठ अधिक होती है। जिसके कारण इस पद पर बैठा व्यक्ति अपने लोगों को अधिक से अधिक टिकट दिलाने कामयाब हो जाता है।
यानी टिकट वितरण के साथ ही इस पद का भी महत्व समाप्त हो जाता है। इसके बाद चुनाव तक केवल अपने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की रैलियों के स्थान तय करने की रणनीति बनाने का काम रहता है। किंतु सवाल यही है, क्या सचिन पायलट इस पांच महीने के पद पर संतुष्ट हो जायेंगे? जबकि यह भी तय नहीं है कि यदि कांग्रेस की सत्ता रिपीट होगी तो किसको सीएम बनाया जायेगा।
अब समझने वाली बात यह है कि पीसीसी चीफ बनकर क्या सचिन पायलट खुद अशोक गहलोत की सरकार के गुणगान करेंगे? क्या पायलट जनता के सामने यह कह पायेंगे कि अशोक गहलोत की सरकार ने बहुत जोरदार काम किया है और ऐसी सरकार दोबारा सत्ता में आनी चाहिये।
यदि पायलट ऐसा कहेंगे तो फिर सवाल वही उठेगा कि यदि गहलोत की सरकार इतनी ही अच्छी थी, तो फिर पायलट पांच साल तक उसका विरोध क्यों कर रहे थे और यदि पायलट चुनाव में ऐसा नहीं कहेंगे तो फिर जनता को शक होगा कि दोनों के बीच यह मजबूरी का सौदा है और इस वजह से विश्वास नहीं होने के कारण जनता वोट ही नहीं देगी।
दूसरी तरफ अशोक गहलोत की बात की जाये तो वह पीसीसी चीफ बनने के बाद पायलट से अपने ही गुणगान करने को कहेंगे, क्योंकि सत्ता में रहते वोट तो सरकार के काम पर ही लिये मांगे जाते हैं।
यदि पायलट ने गहलोत सरकार के कार्यों की प्रशंसा की तो साफ हो जाएगा कि सरकार काम तो अच्छा कर रही थी, लेकिन सीएम की कुर्सी हथियाने के लिए ही सचिन पायलट अपनी सरकार का विरोध कर रहे थे। दोनों के बीच सुलह का दिखावा भले हो जाये, लेकिन इसके बाद भी सत्ता रिपीट होना कठिन है।
इस दौरान यदि पायलट पीसीसी चीफ होंगे तो चुनाव हारने के बाद गहलोत दावे से कहेंगे कि सचिन पायलट को यदि पीसीसी चीफ नहीं बनाया होता तो सरकार रिपीट हो सकती थी, लेकिन पायलट को अध्यक्ष बनाने से इन्होंने सारा काम बिगाड़ दिया।
यदि सरकार रिपीट हो जायेगी तो गहलोत के पास यह बहाना होगा कि उनकी सरकार ने बहुत शानदार काम किया था, जिसके कारण सत्ता रिपीट हो गई और इस दावे के साथ चौथी बार गहलोत ही सीएम बनने का दावा ठोक देंगे।
कुल मिलाकर बात यही है कि सचिन पायलट अगर अशोक गहलोत के साथ समझौता करके सीएम बने बिना कांग्रेस के लिए प्रचार करेंगे तो जीत पर भी पायलट की हार है और कांग्रेस की हार पर भी पायलट की ही हार है।
यानी सत्ता मिलने पर जीत का सेहरा गहलोत के सिर बंधेगा, जबकि हार होती है तो ठीकरा पायलट के माथे फूटेगा। यही वजह है कि पायलट के समर्थक कतई नहीं चाहते हैं कि सीएम की कुर्सी से कुछ भी मंजूर किया जाये, जबकि चुनाव नजदीक आने के साथ ही गहलोत अपना जादू चलने लगे हैं, वह पायलट को अध्यक्ष बनाकर हार का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ने की तैयारी कर चुके हैं।
इसलिए सचिन पायलट के पास दो ही रास्ते हैं, या तो वह कांग्रेस आलाकमान को मानकर सीएम बनें, या फिर पार्टी को निकालने के लिए मजबूर करके अपनी पार्टी के दम पर दूसरे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़े और कांग्रेस को ऐतिहासिक सत्ता से बाहर करें।
यदि नई पार्टी बनाकर वह आरएलपी जैसे दलों से गठबंधन के साथ मैदान में उतरते हैं तो भाजपा कांग्रेस को बहुत से दूर रखने में कामयाब हो सकते हैं और उस स्थिति में किंग मेकर की भूमिका में होंगे, जबकि भाजपा में जाकर वह केंद्र में मंत्री बनकर पांच साल सीएम पद के लिए इंतजार कर सकते हैं। इसके अलावा किसी भी तरह से पायलट का समझौता उनकी गहलोत के सामने हार ही माना जायेगी।
इसके बाद लोगों को लग रहा था कि 11 जून को स्व. राजेश पायलट की पुण्यतिथि के अवसर पर पायलट अपनी पार्टी की घोषणा कर देंगे या फिर कांग्रेस छोड़ देंगे। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया था कि पायलट इसी दिन बड़े आंदोलनों की रूपरेखा जनता के सामने रखेंगे, किंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस दौरान केवल गहलोत वसुंधरा पर इशारों में सियासी हमला करने के सिवा सब कुछ शांत रहा।
11 जून के बाद सचिन पायलट और उनके साथी विधायक राजनीतिक तौर पर कहां हैं, किसी को पता नहीं है। इस दौरान एक दिन पहले ही उनके खेमे से माने जाने वाले विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष दीपेंद्र सिंह शेखावत ने चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर दिया है। गहलोत गुट के कांग्रेसियों का मानना है कि सचिन पायलट पार्टी नहीं छोड़ सकते, क्योंकि उनके साथी विधायकों ने इस मामले में उनका साथ देने से इनकार कर दिया है।
दूसरी ओर कांग्रेस के सूत्र कह रहे हैं कि पायलट गहलोत के बीच सुलह का फार्मूला इजाद किया जा चुका है। इस नए फॉर्मूले के बाद पायलट गहलोत के बीच चल रही सियासी जंग खत्म हो जायेगी, बल्कि दोनों मिलकर चुनाव प्रचार करेंगे, जिससे सत्ता भी रिपीट हो जायेगी।
इस नए फॉर्मूले में दावा किया जा रहा है कि सचिन पायलट को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए अशोक गहलोत तैयार हो गये हैं। साथ ही उनको चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैन का भी जिम्मा दिया जायेगा, जो ना केवल प्रचार को लीड करेंगे, बल्कि अधिकांश टिकटों का वितरण भी वही करेंगे। हालांकि, यह नहीं बताया गया है कि इसकी घोषणा कब की जाएगी?
सवाल यह उठता है कि बीते साढ़े तीन साल से सीएम पद के लिए पूरी कांग्रेस से दुश्मनी मोल लेने वाला पायलट खेमा क्या इन पदों पर संतुष्ट हो पायेगा? दरअसल, जनवरी 2014 में सचिन पायलट को पीसीसी चीफ बनाया गया था, तब से वह जुलाई 2020 तक इस पद पर बने रहे, यानी देखा जाये तो साढ़े 6 साल तक पीसीसी चीफ रहे पायलट एक बार फिर से 9 साल पीछे चले जायेंगे।
दूसरा पद है इलेक्शन कैंपेन कमेटी का चैयरमेन। यह पद केवल चुनावी पद होता है, इसका महत्व केवल इतना होता है कि टिकट वितरण के दौरान चुनाव प्रचार समिति अध्यक्ष की घुसपैठ अधिक होती है। जिसके कारण इस पद पर बैठा व्यक्ति अपने लोगों को अधिक से अधिक टिकट दिलाने कामयाब हो जाता है।
यानी टिकट वितरण के साथ ही इस पद का भी महत्व समाप्त हो जाता है। इसके बाद चुनाव तक केवल अपने राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की रैलियों के स्थान तय करने की रणनीति बनाने का काम रहता है। किंतु सवाल यही है, क्या सचिन पायलट इस पांच महीने के पद पर संतुष्ट हो जायेंगे? जबकि यह भी तय नहीं है कि यदि कांग्रेस की सत्ता रिपीट होगी तो किसको सीएम बनाया जायेगा।
अब समझने वाली बात यह है कि पीसीसी चीफ बनकर क्या सचिन पायलट खुद अशोक गहलोत की सरकार के गुणगान करेंगे? क्या पायलट जनता के सामने यह कह पायेंगे कि अशोक गहलोत की सरकार ने बहुत जोरदार काम किया है और ऐसी सरकार दोबारा सत्ता में आनी चाहिये।
यदि पायलट ऐसा कहेंगे तो फिर सवाल वही उठेगा कि यदि गहलोत की सरकार इतनी ही अच्छी थी, तो फिर पायलट पांच साल तक उसका विरोध क्यों कर रहे थे और यदि पायलट चुनाव में ऐसा नहीं कहेंगे तो फिर जनता को शक होगा कि दोनों के बीच यह मजबूरी का सौदा है और इस वजह से विश्वास नहीं होने के कारण जनता वोट ही नहीं देगी।
दूसरी तरफ अशोक गहलोत की बात की जाये तो वह पीसीसी चीफ बनने के बाद पायलट से अपने ही गुणगान करने को कहेंगे, क्योंकि सत्ता में रहते वोट तो सरकार के काम पर ही लिये मांगे जाते हैं।
यदि पायलट ने गहलोत सरकार के कार्यों की प्रशंसा की तो साफ हो जाएगा कि सरकार काम तो अच्छा कर रही थी, लेकिन सीएम की कुर्सी हथियाने के लिए ही सचिन पायलट अपनी सरकार का विरोध कर रहे थे। दोनों के बीच सुलह का दिखावा भले हो जाये, लेकिन इसके बाद भी सत्ता रिपीट होना कठिन है।
इस दौरान यदि पायलट पीसीसी चीफ होंगे तो चुनाव हारने के बाद गहलोत दावे से कहेंगे कि सचिन पायलट को यदि पीसीसी चीफ नहीं बनाया होता तो सरकार रिपीट हो सकती थी, लेकिन पायलट को अध्यक्ष बनाने से इन्होंने सारा काम बिगाड़ दिया।
यदि सरकार रिपीट हो जायेगी तो गहलोत के पास यह बहाना होगा कि उनकी सरकार ने बहुत शानदार काम किया था, जिसके कारण सत्ता रिपीट हो गई और इस दावे के साथ चौथी बार गहलोत ही सीएम बनने का दावा ठोक देंगे।
कुल मिलाकर बात यही है कि सचिन पायलट अगर अशोक गहलोत के साथ समझौता करके सीएम बने बिना कांग्रेस के लिए प्रचार करेंगे तो जीत पर भी पायलट की हार है और कांग्रेस की हार पर भी पायलट की ही हार है।
यानी सत्ता मिलने पर जीत का सेहरा गहलोत के सिर बंधेगा, जबकि हार होती है तो ठीकरा पायलट के माथे फूटेगा। यही वजह है कि पायलट के समर्थक कतई नहीं चाहते हैं कि सीएम की कुर्सी से कुछ भी मंजूर किया जाये, जबकि चुनाव नजदीक आने के साथ ही गहलोत अपना जादू चलने लगे हैं, वह पायलट को अध्यक्ष बनाकर हार का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ने की तैयारी कर चुके हैं।
इसलिए सचिन पायलट के पास दो ही रास्ते हैं, या तो वह कांग्रेस आलाकमान को मानकर सीएम बनें, या फिर पार्टी को निकालने के लिए मजबूर करके अपनी पार्टी के दम पर दूसरे दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़े और कांग्रेस को ऐतिहासिक सत्ता से बाहर करें।
यदि नई पार्टी बनाकर वह आरएलपी जैसे दलों से गठबंधन के साथ मैदान में उतरते हैं तो भाजपा कांग्रेस को बहुत से दूर रखने में कामयाब हो सकते हैं और उस स्थिति में किंग मेकर की भूमिका में होंगे, जबकि भाजपा में जाकर वह केंद्र में मंत्री बनकर पांच साल सीएम पद के लिए इंतजार कर सकते हैं। इसके अलावा किसी भी तरह से पायलट का समझौता उनकी गहलोत के सामने हार ही माना जायेगी।
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