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मणिपुर में डेढ महीने से आग, मंत्री भी असुरक्षित, हिंसा के पीछे म्यांमार के आतंकवादी



रामगोपाल जाट

भारत के पूर्वोत्तर का राज्य मणिपुर इन दिनों जल रहा है। यहां बीते डेढ महीने से हो रही हिंसा में अभी तक 80 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। राज्य में स्थिति को बिगड़ता देख केंद्र सरकार ने अतिरिक्त सुरक्षा बलों को मणिपुर तैनात किया है। सेना और पैरामिलिट्री के 10 हजार से ज्यादा जवानों की तैनाती के बाद भी हिंसक घटनाओं में कमी नहीं आई है। बीते डेढ महीने से यहां पर रह रहकर हिंसा भड़क रही है। शुरुआती हिंसा के समय पुलिस के 5000 हथियार अतिवादियों द्वारा छीन लिए गये थे। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की चेतावनी के बाद 15 तक करीब 1100 हथियार सरेंडर किये गये हैं, बाकी के लिए तलाशी अभियान शुरू किया गया है।


इस छोटे से राज्य में केंद्रीय मंत्रियों से लेकर भाजपा के नेताओं के घर जलाए जा रहे हैं। 15 जून को मणिपुर में केंद्रीय मंत्री राजकुमार रंजन के घर में आग लगा दी। साथ ही भाजपा के नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है। विपक्ष का कहना है कि भाजपा के नेता ढींगे हांकते हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की यात्रा कर रहे हैं और अमित शाह को चाण्क्य कहा जाता है, लेकिन इनसे एक छोटा सा राज्य नहीं संभल पा रहा है। मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले पूर्वोत्तर के समान विचारधारा वाले दलों को बुलाकर मिलने की मांग की है। इन नेताओं का कांग्रेस ने दिल्ली में जमावड़ा कर दिया है। 


राज्य के सीएम बीरेन सिंह के अनुसार यह आतंकी घटना का एक रुप है, जिसमें अब तक 40 आतंकवादियों को मारा गया है। सीएम का कहना है कि यह कुकी और मैतेई का विवाद नहीं है, बल्कि म्यांमार से आए आतंकियों का हाथ है, जो राज्य में अस्थिरता फैलाना चाहते हैं। सीएम के अनुसार राज्य में ऐसे 300 आतंकी लोग आए हैं, जो म्यांमार के हैं और हिंसा फैलाने का काम कर रहे हैं।


इन सब के बीच सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसी कौन सी वजह है, जिसके कारण यहां के लोग लगातार एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं और हिंसा करने पर उतारू हैं? हिंसा की वजह से मणिपुर में हालात इतने खराब है कि ऐहतियातन सरकार ने पूरे मणिपुर में इंटरनेट बंद कर रखा है, राज्य के 16 में से 13 जिलों में कर्फ्यू लगा हुआ है और हिंसा करने वालों को देखते ही गोली मारने के आदेश हैं। मणिपुर में हिंसा को लेकर भले ही सरकार म्यांमार के आतंकियों का हाथ होने का दावा कर रही हो, लेकिन लड़ने और मरने—मारने वाले दोनों ओर के लोग मणिपुरी हैं, जो एक दूसरे की जान लेने को आतुर हैं।


अलग—अलग मीडिया रिपोर्ट्स में मणिपुर की हिंसा के पीछे दो वजहें बताई जा रही हैं। पहली वजह है हिंदू धर्म के मानने वाले मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देना है, जबकि मणिपुर में मैतेई समुदाय बहुसंख्यक वर्ग में आता है। इन्हें अनुसचित जनजाति का दर्जा दे दिया गया है, जिसका कुकी और नागा समुदाय के लोग विरोध कर रहे हैं। ईसाई धर्म से आने वाले कुकी और नागा समुदायों के पास आजादी के बाद से ही आदिवासी समुदाय का दर्जा प्राप्त है, जबकि मैतेई समुदाय से 1950 में एसटी स्टेटस का दर्जा छीन लिया गया था। 


अब मैतेई समुदाय भी इस दर्जे को वापस देने की मांग कर रहा है, जिसका विरोध कुकी और नागा समुदाय के लोग कर रहे हैं। कुकी और नागा समुदाय का कहना है कि मैतेई समुदाय तो बहुसंख्यक समुदाय है, उसे यह दर्जा कैसे दिया जा सकता है? मैतेई समुदाय की जनसंख्या यहां की कुल आबादी की करीब 53 फीसदी बताई जाती है। 2023 के जनसंख्या अनुमान के मुताबिक मणिपुर की कुल आबादी 3.43 करोड़ मानी जाती है। 


इसके अलावा मणिपुर हिंसा की दूसरी वजह सरकार द्वारा आरक्षित वन भूमि का सर्वेक्षण कराया जाना बताई जा रही है। आरोप है कि राज्य की बीजेपी सरकार सर्वे करवाकर आरक्षित वन क्षेत्र खाली करवा रही है। आदिवासी ग्रामीणों से आरक्षित वन क्षेत्र खाली करवाया जा रहा है। कुकी समुदाय सरकार के इस सर्वेक्षण और अभियान का विरोध कर रहा है। कारण यह है कि कुकी और नागा समुदाय ने वन क्षेत्र की अधिकांश भूमि पर कब्जा कर रखा है। इसी वजह से सरकारी सर्वेक्षण के कारण ये समुदाय नाराज हैं।


यहां पर भाजपा की डबल इंजन की सरकार है, फिर सवाल यह उठता है कि आखिर इस सीमाई क्षेत्र में हिंसा कैसे शुरू हुई? दरअसल, कुकी समुदाय के लोगों ने तीन मई को मैतेई समुदाय को मिलने वाले एसटी दर्जे और सरकार द्वारा वन भूमि का सर्वेक्षण कराए जाने के फैसले के विरोध में प्रदर्शन किया था, जिमसें प्रदर्शन के दौरान हिंसा शुरू हो गई। चार मई को जगह-जगह पर गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। चार कई को ही मैतेई और कुकी समुदाय के बीच झगड़ा शुरू हो गया। पांच मई को जब हालात खराब हुए तो वहां पर सेना पहुंची। इसके बाद 10 हजार से ज्यादा लोगों को दूसरी जगह शिफ्ट किया गया। पांच मई की ही रात भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी मिथांग की भीड़ ने घर से बाहर निकालकर हत्या कर दी। बताया जाता है कि कुकी और नागा समुदाय के लोगों द्वारा यह हत्या की गई थी।  


मणिपुर के जानकार कहते हैं कि सरकार के लिये इस समय लोगों को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है। अभी भी मणिपुर में बहुत सी जगहें ऐसी हैं, जहां लोग फंसे हुए हैं और सुरक्षा बल उन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। लाखों लोगों को सेल्टर्स में रखा गया है, जबकि उद्योग धंधे पूरी तरह से ठप हो गये हैं। पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल 200 रुपये लीटर में भी नहीं मिल रहा है। ईंधन को ब्लैक किया जा रहा है।


अब यह समझना जरुरी एसटी का दर्जा पाने वाला मैतेई समुदाय कौन है? असल में मैतेई समुदाय मणिपुर का सबसे आबादी वाला समुदाय है। इसे संविधान में अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं दिया गया है। मैतेई लंबे समय से मांग कर रहे हैं कि इन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए। सबसे अधिक आबादी होने के बाद भी मैतेई समुदाय के लोग राज्य के घाटी और मैदानी इलाकों में बसा हुआ है। 53 प्रतिशत जनसंख्या होने के बाद भी इस समुदाय के लोग राज्य के केवल 10 फीसदी ही जमीन है। 


ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि मणिपुर में बाकी 90 फीसदी जमीन के मालिक करीब आधी आबादी के लोग कौन हैं? मणिपुर में मैतेई के अलावा नागा, जोमी, कुकी और अन्य जनजातियां हैं? इन समुदायों की राज्य की कुल आबादी का लगभग आधी हिस्सेदारी है। ये सभी जनजातियां इस बात का विरोध कर रही हैं कि मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। जबकि इन जनजातियों के पास प्रदेश की कुल जमीन का 90 फीसदी हिस्सा है और अधिकांश उपजाउ जमीनें इनके पास ही हैं। आरक्षित वन क्षेत्र पर भी इन्हीं जातियों का कब्जा है, जिसका सर्वे किया जा रहा है। 


मैतेई संगठन STDCM की दलील है कि अनुसूचित जनजाति दर्जे की मांग करना उनका संवैधानिक अधिकार है। स्थानीय समुदाय और उनके हितों की संवैधानिक सुरक्षा चाहिए। इस समुदाय का कहना है कि बाकि जनजातियों के संसाधनों पर कब्जे की उनकी कोई मंशा नहीं है, लेकिन उनका हक लेना कैसे गलत है। मैतेई मणिपुर के सबसे पुराने स्थानीय लोग हैं, किंतु अधिकांश जमीन पर उनका कब्जा नहीं होने के कारण अपने ही राज्य में बाहरी लोगों की तरह हो गए हैं। 


मैतेई मानते हैं कि घाटी में रहने के लिए कोई भी आ सकता है। साल 1951 में इनकी आबादी 59 फीसदी थी, जो 2011 में कुल आबादी का 44 फीसदी हिस्सा रह गई है। इनका कहना है कि वर्ष 1901 में उनको मुख्य आदिवासी समुदाय माना गया था, जबकि 1931 में हिंदू आदिवासी समुदाय माना गया। इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है, भाषा है, जिसको बचाने पर जोर दे रहे हैं। साल 1950 में मैतेई अनुसूचित जनजाति की लिस्ट से बाहर कर दिया गया। यानी मैतेई समुदाय नई मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनसे जो छीन लिया गया था, उसको ही वापस पाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। 


विरोध करने वाले संगठन ATSUM की दलील अलग ही कहानी कह रही है। इनका कहना है कि मैतेई समुदाय की अनुसूचित जनजाति के दर्जे की मांग गलत है। इसके साथ ही यह भी दावा है कि वन सर्वे के जरिये सरकार द्वारा पर्वतीय जिलों के संसाधनों को छीनने की कोशिश कर रही है। उनके अधिकार संविधान के अनुच्छेद 371सी के तहत सुरक्षित हैं। उनके अधिकार एमएलआर एंड एलआर एक्ट, 1960 के सेक्शन 158 के तहत भी सुरक्षित हैं। इनका मानना है कि आदिवासियों की जमीन को गैर आदिवासियों को नहीं दी जा सकती है। मैदानों में रहने वाला मैतेई समुदाय पहले से ही काफी आगे है, मैतेई समुदाय राज्य के कुल आबादी के 60 फीसदी से ज्यादा है, ऐसे में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देना गलत है। 


इधर, सरकार ने अपना मत भी जाहिर किया है। सरकार का कहना है कि किसी भी समुदाय की जमीन नहीं छीनी जायेगी और ना ही किसी का हक छीना जायेगा। असल बात यह है कि कुकी और नागा समुदाय को म्यांमार से आने वाले उग्रवादी संगठन उकसाने का काम कर रहे हैं। सरकार यह भी कहती है कि वन क्षेत्र की जमीन का सर्वे करने का यह मतलब नहीं है कि किसी से जमीनें छीनी जायेंगे, बल्कि जिन लोगों ने वन भूमि पर कब्जा कर रखा है, उसको खाली करवाना है।


सरकार की दूसरी दलील यह है कि आजादी के बाद साजिश के तहत जिस मैतेई समुदाय से 1950 में अनुसूचित समुदाय का दर्जा छीन लिया गया था, उसको ही वापस लौटाने का काम किया जा रहा है। सरकार का यह भी कहना है कि जो आबादी आधी से अधिक है, उसके पास जमीन नहीं है, फिर भी उसे अधिकारी देने से क्यों रोका जा रहा है?


जिस म्यांमार के आतिवादी संगठनों द्वारा यहां के कुकी और नागा समुदाय को उकसाने और हिंसा कराने की बात है, तो यह बात नई नहीं है। यहां पर म्यांमार से आने वाले आतंकी दशकों से यही काम करते रहे हैं। कई जगह पर तो बकायदा म्यांमार के लोगों ने जमीनों पर कब्जा कर लिया है, जो जमीनें सरकारी सर्वे के दायरे में हैं। म्यांमार से अवैध तरीके से आने वाले लोगों को पता है कि सर्वे होते ही जमीन खाली करनी होगी और उनको वापस म्यांमार डिपोर्ट कर दिया जायेगा, इसलिये ये लोग कुकी और नागा समुदाय को उकसाकर हिंसा करवा रहे हैं।


किंतु इसमें सबसे बड़ी असफलता सरकारों की है। यदि मणिपुर और केंद्र सरकार समय रहते इस बीमारी का इलाज कर देतीं तो आज इस तरह की हिंसा नहीं होती। इस छोटे से राज्य में अब कुकी और नागा समुदाय अलग राज्य की मांग करने लगे हैं, जो मणिपुर के हिसाब से ठीक नहीं है। सरकार ने यदि अब भी समय रहते इस रोग को खत्म नहीं किया तो आने वाले वर्षों में बाहरी लोगों द्वारा हिंसा को बढ़ावा दिया जायेगा, जो पूर्वोत्तर के लिए खतरनाक साबित होगा।

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