Ram Gopal Jat
कांग्रेस पार्टी में बीते तीन साल से उठा तूफान अब टारगेट पर पहुंचता दिखाई दे रहा है। पार्टी में जुलाई 2020 में हुई बगावत के बाद अदावत अभी तक जारी है, लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रही थी। 25 सितंबर को गहलोत कैंप ने आलाकमान को आंख दिखाई, तब यह माना जा रहा था कि पायलट कैंप की तरह गहलोत और उनके मंत्रियों के खिलाफ भी सख्त कार्यवाही की जायेगी, लेकिन इसको गहलोत की चतुराई कहें या जादूगरी, लेकिन कांग्रेस उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाई है। पिछले दिनों पायलट के अनशन के बाद प्रभारी रंधावा ने दावा किया था कि अनुशानात्मक कार्यवाही होगी, लेकिन 10 दिन में भी पार्टी कुछ नहीं कर पाई है। कांग्रेस जहां फीडबैक कार्यक्रम के बाद कार्यकर्ता सम्मेलन के जरिये एकजुटता दिखाने और कांग्रेस की सरकार रिपीट कराने का दावा किया है, तो पायलट कैंप आरपार की लड़ाई की घोषणा कर चुका है।
पायलट पर कार्यवाही का पहला संकेत उनको कर्नाटक चुनाव में स्टार प्रचारक नहीं बनाकर दे दिया है। इससे पहले बीते सवा चार साल में देश के प्रत्येक राज्य में उनको स्टार प्रचारक बनाया जाता रहा है। इससे एक बात साबित हो चुकी है कि कर्नाटक के प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला, जो कि गहलोत कैंप के कोटे से राज्यसभा पहुंचे थे, उन्होंने गहलोत की मंशा के अनुसार स्टार प्रचारकों में पायलट को नहीं रखकर यह मैसेज देने का प्रयास किया है कि अब कांग्रेस आलाकमान पायलट को कोई त्वज्जो नहीं देना चाहता है। इधर, रंधावा ने दावा किया है कि पायलट पर कार्यवाही होगी, लेकिन सही समय पर फैसला लिया जायेगा, किसी को भी अनुशासनहीनता करने की अनुमति नहीं दी जायेगी। उल्लेखनीय बात यह है कि प्रभारी किसी नेता का नुमाइंदा नहीं होता, फिर भी बीते सवा चार साल में पहले अविनाश पांडे, फिर अजय माकन और अब सुखजिंदर सिंह रंधावा पार्टी में सभी नेताओं के साथ समान बर्ताव नहीं कर पाये हैं। साफ तौर पर इन तीनों ही नेताओं की गतिविधि सीएम गहलोत के पक्ष में दिखाई देती है, जिससे कई गंभीर सवाल उठ रहे हैं, तो इनपर गहलोत का पक्ष लेने के लिये लाभ के भी आरोप लग रहे हैं।
सबसे पहले यह समझना जरुरी है कि पायलट को स्टार प्रचारक नहीं बनाकर कांग्रेस आलाकमान और गहलोत कैंप क्या साबित करना चाहता है? असल बात यह है कि गहलोत एक बार फिर से मैसेज की राजनीति के तहत पायलट को स्टार सूची से बाहर दिखाकर यह बताना चाहते हैं कि अब कांग्रेस आलाकमान की नजर में सचिन पायलट की कोई कीमत नहीं है। उनको पार्टी सिर्फ एक विधायक मात्र मानती है, पायलट को पार्टी में रहना है तो एक एमएलए के रुप में अपनी सेवाएं दें, अन्यथा वह पार्टी छोड़ सकते हैं। दूसरी बात यह है कि जिस तरह से सचिन पायलट को सीएम बनाने की बातें सामने आ रही थीं, उससे पार्टी में कार्यकर्ता दो धड़ों में बंट चुके हैं। गहलोत यह साबित करना चाहते हैं कि कांग्रेस का एक ही खेमा है और वह उनका खुद का है, जिसमें सत्ता और गोविंद सिंह डोटासरा का संगठन भी है। इसके अलावा यदि कोई धड़ा बनायेगा तो उसके खिलाफ कार्यवाही होगी। पायलट के बागवती सुर ने कांग्रेस को सोचने पर मजबूर कर दिया है। यह भी माना जाता है कि गहलोत की ओर से कांग्रेस आलाकमान को यह संदेश दिया गया है कि पायलट अब कांग्रेस में नहीं रहेंगे, उनका ठिकाना बदलने वाला है, इसलिये उनको स्टार बनाकर पार्टी की फजीहत नहीं करवाई जाये। जयपुर के बिडला सभागार में आयोजित कार्यकर्ता सम्मेलन में मंच पर सचिन पायलट की कुर्सी भी थी और नाम की प्लेट भी लगी थी, लेकिन पायलट इस कार्यक्रम में नहीं पहुंचे, जिससे यह साबित होता है कि उसी दौरान स्टार प्रचारकों की सूची में सचिन पायलट को नहीं रखने का उनको पहले ही पता चल गया था, जिसके कारण वह सम्मेलन में शामिल नहीं हुये। मंच पर मौजूद सीएम गहलोत, अध्यक्ष डोटासरा और प्रभारी रंधावा भी सचिन पायलट के खिलाफ जमकर बयानबाजी कर चुके हैं, जिनके बीच में बैठकर पायलट अपने समर्थकों की भावनाएं का अनादार नहीं करना चाहते थे।
कर्नाटक चुनाव में सचिन पायलट के स्टार प्रचाकर नहीं होने के नुकसान का गुणा भाग किया जाये तो यह साफ हो गया है कि पार्टी जब केवल हिंदी वाले गहलोत और रंधावा को स्टार प्रचारक बनाना और हिंदी अंग्रेजी पर समान कमांड रखने वाले धारा प्रवाह प्रवक्ता सचिन पायलट को कर्नाटक जैसे चुनाव से दूर रखना कांग्रेस की हार हुई तो एक कारण बनेगा। जिस राज्य में लोग पूरी तरह से हिंदी नहीं जानते, वहां पर हिंदीभाषी गहलोत यदि स्टार प्रचारक हो सकते हैं तो अंग्रेजी बोलने वाले पायलट का नहीं होना कांग्रेस के शुभ संकेत नहीं है। इस चुनाव में सर्वे कांग्रेस पार्टी के पक्ष में दिखाऐ जा रहे हैं, जिससे पार्टी उत्साहित है, लेकिन अति उत्साह में उठाये गये कदम कई बार गलत भी साबित हो जाते हैं। कर्नाटक में चुनावी बिसात बिछ चुकी है, अधिकांश टिकट बंट चुके हैं और अब केवल नेताओं को प्रचार के लिये रैलियां करनी हैं, ऐसे समय में पायलट जैसे वक्ता को दूर रखकर पार्टी ने एक तरह से खुद का ही नुकसान करन लिया है। वैसे भी बीते चार साल का इतिहास रहा है कि गहलोत स्टार प्रचारक होते हुये भी अधिकांश जगह प्रचार करने गये ही नहीं हैं।
इस बीच चुनाव आयोग के हमारे सूत्रों का दावा है कि सचिन पायलट ने अपनी पार्टी बना ली है, जिसका नाम भी तय किया जा चुका है। इसी महीने के अंदर पायलट अपने समर्थक करीब 40 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ देंगे, वह अगला विधानसभा चुनाव अपनी पार्टी के बैनर तले लड़ेंगे और कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने के लिये मैदान में उतर चुके हैं। जिस तरह से कांग्रेस के नेता मानते हैं कि 2018 की सत्ता पायलट की ही देन है, उसके अनुसार यदि पायलट इस बार कांग्रेस से अलग दल बनाकर चुनाव लड़ते हैं, तो ना केवल प्रदेश की 200 सीटों पर अपने मजबूत उम्मीदवार उतार देंगे, बल्कि जहां पर कांग्रेस को उनकी वजह से वोट मिले हैं, वहां पर विधायक जिताने में सफल होंगे, इससे कांग्रेस मुक्त राजस्थान का सपना साकार हो सकेगा। यह बात बिलकुल सही है कि यदि पायलट ने अपनी पार्टी बनाई और सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे से कांग्रेस को बड़े पैमाने पर नुकसान करेंगे। सियासी जानकारों का मानना है कि पायलट के बिना कांग्रेस पार्टी 2013 की हार से भी अधिक बुरी तरह से हारकर सत्ता से बाहर होगी। उससे पहले इसी महीने में सचिन पायलट कांग्रेस और गहलोत सरकार पर और अधिक मुखर होने वाले हैं, ताकि पार्टी उनके उपर कार्यवाही कर सके। यदि कांग्रेस ने खुद ही पायलट को बाहर किया तो फिर उनके मन की मुराद पूरी हो जायेगी। जिसके बाद जनता की संवेदनाएं भी सचिन पायलट के पक्ष होंगी और उनके समर्थक विधायक पार्टी छोड़ देंगे, जिससे सरकार अल्पमत में होगी।
हालांकि, गहलोत और रंधावा ने दावा किया है कि सर्वे में कांग्रेस की सरकार रिपीट हो रही है, लेकिन पायलट के बिना यह दावा बैमानी दिखाई दे रहा है, क्योंकि यदि आप 13 जिलों की 58 सीटों की बात करेंगे तो पायेंगे कि पायलट के दम पर भाजपा को 2013 में मिली 44 से 2018 के चुनाव में 11 सीटों पर समेटने का काम किया गया था। इसी क्षेत्र में यदि पायलट ने अपने उम्मीदवार उतार दिये तो फिर कांग्रेस का यहां पर खाता भी खुल जायेगा, ऐसा सोचना भी कठिन है। इसके साथ ही यदि पायलट ने हनुमान बेनीवाल की बात को माना और उनके साथ गठबंधन किया तो फिर कांग्रेस भाजपा, दोनों के लिये सत्ता तक पहुंचना बेहद कठिन काम होगा। पश्चिमी राजस्थान में हनुमान बेनीवाल अपने दम पर सबसे बड़े नेता हैं, जबकि पायलट को पूरे राजस्थान में समान जनाधान वाला नेता माना जाता है। फिर भी पूर्वी राजस्थान में गुर्जर—मीणा बहुल क्षेत्र में जिस तरह से पायलट के समर्थन में लोगों ने कांग्रेस को झोली भरकर वोट दिया था, वहां पर पायलट के बिना कांग्रेस का क्या ह्श्र होने वाला है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
यदि पायलट पार्टी बना लेते हैं और कांग्रेस के 40 विधायक उनके साथ जाते हैं, तो कांग्रेस की सरकार का अल्पमत में आना तो तय है ही, साथ ही राजस्थान में समय से पहले सरकार गिरने के कारण राष्ट्रपति शासन भी लगना तय है। सामान्यत: इतने कम समय के लिये चुनाव आयोग चुनाव नहीं करवाता है और राजस्थान में भी चुनाव तय समय पर दिसंबर में ही होने हैं। किंतु अशोक गहलोत पांच साल तक सत्ता में रहने का सपना पाले हुये हैं, उनकी सरकार समय से पहले ही सत्ता से बेदखल हो जायेगी। सरकार गिरने से कांग्रेस को एक नुकसान यह होगा कि जिन योजनाओं की घोषणा अशोक गहलेात सरकार ने की है, उनकी क्रियान्विति नहीं होने के कारण चुनाव में इनका लाभ मिलना भी कठिन है। हालांकि, चुनाव के दौरान गहलोत यह कहने के हकदार हो जायेंगे कि अंत समय में उनकी सरकार नहीं गिरती तो राजस्थान में अपनी घोषणाओं को लागू करते और उससे जनता को फायदा होता।
दूसरी तरफ सचिन पायलट कहेंगे कि उनको जनता ने जनादेश दिया था, लेकिन कांग्रेस आलाकमान और अशोक गहलोत ने उसका अपमान किया, उनको सीएम नहीं बनने दिया गया, जिसके कारण किये गये वादों को पूरा नहीं किया जा सका। पायलट इसी बात के सहारे जनता से जनादेश देने की अपील करेंगे। और यह बात सही भी है कि पायलट को काम करने का मौका ही नहीं मिला। करीब डेढ साल तक पंचायती राज विभाग में काम किया तो यह विभाग पूरे देश में एक नंबर पर आ गया था। पायलट यदि सीएम बनते तो फिर जनता को उनसे जवाब मांगने का भी अधिकार था। यही बात पायलट के पक्ष में जायेगी। साथ ही वह यह भी कहेंगे कि पूर्व की सरकारों ने जो घोटाले किये हैं, उनकी सरकार बनने पर जांच करवायेंगे और गहलोत—वसुंधरा को जेल में डालने का काम करेंगे। इस तरह के वादों के सहारे पायलट को जनादेश मिल सकता है, हालांकि, कितना मिलेगा इसका अनुमान लगा पाना बेहद कठिन है। यदि हनुमान बेनीवाल के साथ गठबंधन करते हैं तो पूरे राजस्थान में दोनों मिलकर सरकार बनाने के लिये वोट मांग सकते हैं। वैसे भी एक बार गहलोत, एक बार वसुंधरा से राज्य की जनता उब चुकी है, जो नया नेता और नई सरकार देखना चाहती है। जनता के इस मत का पायलट—बेनीवाल को लाभ मिल सकता है।
उधर, भाजपा इसी इंतजार में है कि पायलट कांग्रेस अलग होकर पार्टी बनाये, तो कांग्रेस का वोट बंटे और इसका लाभ बीजेपी को मिले। यह बात सही है कि पायलट और कांग्रेस के वोट लगभग समान ही है। कुछ जातिगत समीकरणों को छोड़ दिया जाये तो पायलट का वोट ही कांग्रेस का है, और कांग्रेस का वोट ही पायलट का है। ऐसे में भाजपा बिल्ली के भाग का छींका टूटने का इंतजार कर रही है। इस बीच जिस तरह से डॉ. सतीश पूनियां की जगह सीपी जोशी को अध्यक्ष बनाया गया है, उसके कारण किसान वर्ग भाजपा से नाराज बताया जा रहा है। यदि पायलट और बेनीवाल ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा तो किसान वर्ग एक नई उम्मीद और आशा के साथ किसान सीएम के नाम पर इनको वोट दे सकता है। प्रदेश में किसान वर्ग सबसे बड़ा वोट है, जिसका पलड़ा भारी होने पर किसी भी पार्टी को सत्ता मिल सकती है और सत्ताधारी को बाहर जाना पड़ सकता है।
सचिन पायलट और हनुमान बेनीवाल के प्रति लोगों की दीवानगी देखते ही बनती है। इन दोनों के साथ आने से ना केवल किसान वर्ग साथ होगा, बल्कि युवाओं को भी इनसे काफी उम्मीदें हैं, जिनके पूरा होने की आश में उनका वोट मिलेगा। माना यह जा रहा है कि पायलट और कांग्रेस के बीच अब केवल यही प्रतियोगिता चल रही है कि पहले कौन कार्यवाही करता है। पायलट सोच रहे हैं कि कांग्रेस उनके खिलाफ कार्यवाही कर बाहर कर दे, जिससे उनको सियासी शहीद का दर्जा मिल जाये, जनता की सिम्पैथी मिल जाये और कांग्रेस इस फिराक में है कि पायलट खुद ही पार्टी छोड़ दें, ताकि उनको गद्दार करार दिया जा सके। दोनों का यह कॉम्पीटिशन कितने दिन चलेगा, यह तो इस महीने में साफ हो ही जायेगा, लेकिन इतना पक्का है कि इस बार राजस्थान में ना तो सरकार पांच साल पूरे कर पायेगी और उसके बाद चुनाव भी दो तरफा होने के बजाये तीन तरफा होने जा रहा है।
सचिन पायलट ने बनाई अपनी पार्टी तो अशोक गहलोत सरकार का गिरना तय
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