Ram Gopal Jat
राजस्थान में जैसे जैसे विधानसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे वैसे टिकट मांगने वालों ने भी अपनी ताकत दिखानी शुरू कर दी है। हालांकि, राजनीतिक दल दावा करते हैं कि जातिगत आधार पर किसी को टिकट नहीं दिया जाता, बल्कि जिताउ को ही टिकट दिया जाता है। पहली बात तो यह है जब सियासी दल यह कहें कि जिताउ को ही टिकट दिया जाता है, तभी लोकतंत्र में संविधान की मजाक उड़ जाती है, क्योंकि पार्टियां जिताउ उम्मीदवार को टिकट देती हैं, ना कि योग्य व्यक्ति को।
सियासी दलों का कहना होता है कि जो जिताउ होगा, वही तो योग्य है, यही तो इनकी योग्यता का पैमाना है। जबकि सच यह नहीं है। कभी कभी अपराधी, भ्रष्ट और समाज के प्रति गैर जिम्मेदार आदमी धन के दम पर जीत जाता है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह योग्य था। असल बात यह कि सरकारों और सियासी दलों द्वारा बिना मांगे ही महिलाओं को फ्री मोबाइल, फ्री राशन किट, स्कूली बच्चों को फ्री कपड़े देने जैसे काम किये जाते हैं और उसी के दम पर सरकार रिपीट होने का दावा भी किया जा सकता है, तब विधायक या सांसद द्वारा फ्री शराब पिलाकर चुनाव जीतना कौनसा कठिन काम है और ऐसा भारत के लोकतांत्रित इतिहास में होता रहा है। इसलिये यह कहना भी ठीक नहीं है कि जिताउ ही योग्य उम्मीदवार होता है।
बात टिकटों की चल रही है, लेकिन टिकट का पैमाना क्या है? क्या जातिगत होना चाहिये, क्या क्षेत्रीय आधार पर होना चाहिये, या फिर व्यक्ति के कार्यों और उसकी लोकप्रियता के आधार पर होना चाहिये? जब बात जातिगत बाहुल्य की आती है, तो फिर बाकी सारी चीजें पीछे छूट जाती हैं। क्योंकि आरक्षण का प्रावधान भी तो जातिगत ही होता है। शायद इसलिये लिये सियासी दल जातिगत जनाधार पर ही टिकट वितरण करके जिताउ और योग्य उम्मीदवार होने का दम भरते हैं। यह बात सही है कि जातिगत बाहुल्य होने पर किसी के भी जीतने की संभावना अधिक हो जाती है, लेकिन कई जगह 15—20 फीसदी बाहुल्य की जाति वाला उम्मीदवार चुनाव हार जाता है, क्योंकि वहां पर अन्य जातियां एकजुट होकर उसे हरा देती हैं। इसके कारण सियासी दलो का गाणित बिगड़ भी जाता है।
अब राज्य में चुनाव आ रहे हैं, तो टिकट के लिये जोर लगाना लाजमी है। इसको लेकर अलग अलग जातियां अपने अपने हिसाब से ताकत दिखाने का प्रयास करती हैं। राजधानी जयपुर में 22 दिसंबर 2021 को क्षत्रिये सम्मेलन हुआ, जिसमें अघोषित रुप से राजपूत समुदाय ने केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को अपना लीडर मानते हुये मुख्यमंत्री पद पर अपनी दावेदारी पेश कर दी। उस सम्मेलन में देश—प्रदेश से लाखों लोग एकत्रित हुये थे और राजपूत समुदाय की ताकत का अहसास भी हुआ। सम्मेलन में राजपूतों के करीब करीब सभी नेता शामिल हुये और समाज में से बुराई को निकालने और देश के विकास में भागीदार बनने की बातें कही गईं। इस कार्यक्रम को सभी मीडिया संस्थानों ने खूब दिखाया और खबरों को प्रकाशित कर समाज के अच्छे कार्यें का प्रचार करने प्रयास भी किया।
इसी तरह से पिदले दिनों 5 मार्च को जयपुर में ही जाट महाकुंभ हुआ, जिसमें सबसे बड़ी जनसंख्या वाला समाज होने के दम पर हमेशा की तरह एक बार फिर से जाट मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठी। हालाकि, इस मंच पर हनुमान बेनीवाल को छोड़कर भाजपा कांग्रेस के नेता मौजूद थे और रामेश्वर डूडी ने जाट सीएम बनाने की हूंकार भी भरी। लेकिन एक बात साफतौर पर सामने आती है कि जब ये नेता हनुमान बेनीवाल जैसे बड़े जनाधार वाले नेता को नजरअंदाज करते हैं, तभी इनकी एकता की हवा निकल जाती है, तो फिर किस दम से जाट सीएम की मांग कर सकते हैं? मोटे तौर पर देखा गया कि जो आयोजक थे, वो समाज के नाम पर केवल अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। किसी को टिकट चाहिये, किसी को जीत चाहिये किसी को पद चाहिये तो किसी को समाज के दम पर अपनी ताकत दिखानी है। और इसी वजह से यह आयोजन जाट महाकुंभ से अधिक कांग्रेस का जाट महाकुंभ नजर आया।
ऐसे ही 19 मार्च का जयपुर में ही ब्राह्मण महापंचायत हुई है। इसमें भी काफी संख्या में लोग एकत्रित हुये और एक बार फिर से ब्राह्मण सीएम बनाने की मांग की है। साथ ही सभी राजनीतिक दलों से 30—30 टिकट ब्राह्मण समुदाय को देने की मांग भी की गई। इस सम्मेलन की खास बात यह रही है कि रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव को परोक्ष रुप से ब्राह्मण समाज ने सीएम चेहरे के तौर पर स्वीकार कर लिया है। उनका भाषण भी उसी तरह का था और बातों से यही लग रहा था कि वह सीएम की रेस में ब्राह्मण समाज के पहले नंबर के नेता हैं। इस आयोजन में कांग्रेस के नेताओं का अभाव यह बताता है कि इस कार्यक्रम में भाजपा के नेताओं ने बाजी मार ली। कार्यक्रम के दौरान कई बार ऐसा लगा मानो भाजपा के ब्राह्म्णों की महापंचायत हुई हो।
इन आयोजनों में अच्छे लोग भी थे, साधु संत भी थे, नेता भी थे, कार्यकर्ता भी थे और आमजन भी था। कुछ अपराधी किस्म का व्यक्ति भी निश्चित रुप से इन प्रोग्राम्स का हिस्सा बन ही जाता है। हर समाज में हर तरह के लोग होते हैं। अच्छे भी होते हैं और उसी समाज में कुछ बुरे लोग भी सामने आ ही जाते हैं। इस वजह से किसी भी अपराधी को उसकी जाति का चौला नहीं पहनाना चाहिये और ना ही किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियों को पूरी जाति की मानी जा सकती है। किंतु जब इन खबरों को कवरेज करने वाले पत्रकारिता के संस्थानों और पत्रकारों की बात आती है। तब एक छोटी मानसिकता का अहसास आराम से हो जाता है। इन तीन आयोजनों के बाद मीडिया कवरेज को देखते हैं, तो सहज ही अहसास हो जाता है कि जिनके हाथ में कलम होती है, वो कैसे भेदभाव करते हैं और भेदभाव भी अव्वल दर्जे का, जिससे भेदभाव की सीमाएं खुद ही तड़प उठती हैं।
इन तीन आयोजनों में पहला आयोजन क्षत्रिय सम्मेलन का हुआ, जिसका शानदार कवरेज किया गया, जिसका यह आयोजन हकदार भी था। पूरे कार्यक्रम के बारे में ईमानदारी से लिखा गया और फोटोज को प्रकाशित किया गया। तब लगा कि अखबारों वाले समाजों के कार्यक्रर्मों का इमानदारी से आंकलन करते हैं। उस कार्यक्रम की खास बात यह थी कि ना तो कोई अव्यवस्था फैली, ना कोई अपराध हुआ ना ही दुर्घटना घटी। ऐसे भव्य आयोजन की सभी समाजों के लोगों ने खूब प्रशंसा की।
इसके बाद जब जाट महाकुंभ हुआ तो उसी तरह से समापन हुआ, जैसे क्षत्रिये सम्मेलन हुआ था। किंतु जो खबरें पहले पेज पर छपनी चाहिये थीं, वो पांचवे और छठे पेज पर चली गईं। जो टीवी चैनल्स लाइव दिखाने चाहिये थे, वो कुछ समय दिखाकर खानापूर्ति करके बैठ गये। राजस्थान की सबसे बड़ी आबादी के सबसे बड़े कार्यक्रम को किस हद दर्जे की कुंठा में अखबार टीवी चैनल्स ने इतना कम करके लिखा, मानों एक छोटी तहसील का आयोजन हो। जो खबर अखबार के पहले पन्ने पर होनी चाहिये थी, वो बीच के पन्नों पर चली गई। जिस समाज ने इन्हीं दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका जैसे अखबारों को भरपेट विज्ञापन दिये, उन्हीं अखबारों ने समाज की सबसे बड़ी रैली को दबाने का काम किया। जिस रैली में देशभर से लोग शामिल हुये, उसको महज कुछ शब्दों और एक फोटो में समेट दिया गया। जिन अखबारों ने समाज से लाखों रुपये के विज्ञापन देकर अपना पेट भरा, उसी समाज के साथ ऐसा अभूतपूर्व अन्याय किया, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। इसके पीछे के कारण पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि यह पहला अवसर नहीं था, जब जाट समाज के साथ इन अखबारों ने खबरों के मामले में भेदभाव किया हो, इससे पहले हजारों ऐसे अवसर आते हैं, जब इनकी कुंठा खुलकर सामने आ जाती है। सबसे बड़ा कारण तो यह है कि जाट समाज का इन अखबारों के टॉप मैनेजमेंट पर कब्जा नहीं है। इनका मालिकाना हक उनके पास है, जो घोर कारोबारी हैं और घोर जातिवाद से पीड़ित हैं। कुछ ऐसे हैं, जिनको जाट समाज से इतना भारी विद्वेष है कि उसकी पराकाष्ठा की सीमाएं ही नजर नहीं आती हैं।
तीसरा आयोजन हुआ ब्राह्मण महापंचायत का, जो उसी जगह में था, जहां पर जाट महाकुंभ हुआ था। इसलिये संख्या भी उतनी ही शामिल हुई। किंतु जब मीडिया के द्वारा कवरेज करने की बारी आई तो पता चला कि दिनभर टीवी चैनल्स ने लाइव दिखाया तो इन्हीं दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका ने पहले पेज के हैडर से लेकर अंदर तक अखबारों के पन्ने रंग डाले। गुणागान करने की सारी सीमाओं को तोड़ दिया। कार्यक्रम का कवरेज ऐसे किया है, मानो भूतो ने भविष्यती। अखबार के हैडर से शुरू होकर खबर तीन चार पेज तक लिखी गई है। फोटोज खुब छापी गई है। ब्राह्मण समाज के इस कार्यक्रम को उतना ही महत्व दिया गया है, जितना क्षत्रिये सम्मेलन को। तब सवाल यह उठता है कि आखिर जाट समाज से इन अखबरों को इतनी नफरत क्यों है? आप देखेंगे तो पायेंगे जाट महाकुंभ के आयोजकों ने अन्य दोनों कार्यक्रमों से अधिक विज्ञापन दिये हैं। इनके कई महीनों के टारगेट को कुछ दिनों में ही पूरा कर दिया, लेकिन फिर भी खबरों के मामले में तीन समाजों को दो स्तर पर बांटकर इन अखबारों के संपादकों और मालिकों ने अपनी जिस छोटी और बेहद निम्न मानसिकता का परिचय दिया है, उसकी परिभाषा किसी पुस्तक में नहीं मिल सकती है। और शायद यही वजह है कि इन अखबारों के और टीवी चैनल्स के बजाये लोग सोशल मीडिया पर अधिक विश्वास करने लगे हैं, छोटे छोटे यू ट्यूब चैनल्स इसलिये तेजी से ग्रोथ कर रहे हैं, क्योंकि उनमें ईमानदारी से खबरें सामने आ रही हैं।
दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिता में बैठे ये लोग जातिगत आधार पर कितना भेदभाव करते हैं, उसका सबसे बड़ा उदाहरण है इनके स्टाफ का सलेक्शन करना। जिसमें एक जाति विशेष के लिये दरवाजे खुले होते हैं, अन्य जातियों के टॉप क्लास पत्रकारों को तब तक जगह नहीं दी जाती, जब तक इनकी विचारधारा या कहें कि काले कारोबार में हिस्सेदार नहीं होते हैं। जिन समाजों से आने वाले पत्रकारों को इन अखबारों में जगह नहीं दी जाती, उन समाजों की खबरें ईमानदारी से ये लोग लिखेंगे, दिखायेंगे, उसकी कल्पना करना भी पाप है। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में काम करने वाले इन निम्नतम मानसिकता के पत्रकारों, संपादकों और उनके मालिकों के लिये बहुत कुछ कहा जा सकता है, किंतु इनकी निम्न दर्जे की मानसिकता को पूर्ण रुप से परिभाषित करना ही किसी के लिये असंभव है।
जातिवादी भेदभाव तो राजस्थान पत्रिका और दैनिक भास्कर वाले करते हैं!
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