Ram Gopal Jat
राजस्थान में बजट सत्र चल रहा है, लेकिन इसी दौरान कुछ ऐसी घटनाएं भी घट रही हैं, जो कई तरह के संकेत दे रही हैं। राज्य के दोनों प्रमुख दलों भाजपा—कांग्रेस के अलावा तीसरे मोर्चे के तौर पर पिछले चुनाव से उभरी रालोपा में भी कुछ ऐसा चल रहा है, जो चुनाव की पूरी तैयारी कर साफ संकेत दे रहा है। भले ही अभी चुनाव में करीब 9 महीनों का समय बाकी हो, लेकिन जिस तरह से दलिय गतिविधियां चल रही हैं, उससे यही जान पड़ता है कि चुनाव कभी भी हो सकते हैं वाली तैयारी को लेकर फोकस किया जा रहा है। बीते तीन माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीसरी बार राजस्थान का दौरा यही कह रहा है कि भाजपा पूरी ताकत से चुनाव में उतर चुकी है। मोदी का मानगढ़ से लेकर आसिंद और दौसा का दौरा पार्टी की तैयारियों का सबसे बड़ा सबूत है।
दूसरी बात यह है कि पार्टी ने हाल ही में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया को असम का राज्यपाल नियुक्त कर कई संकेत दिये हैं। 78 साल क्रॉस कर गये कटारिया को वैसे भी इस बार टिकट मिलना कठिन था, लेकिन उनके ही समकक्ष कैलाशचंद मेघवाल को भूल जाना वसुंधरा गुट को इशारा भी माना जा रहा है। हालांकि, पार्टी ने अभी तक घोषित नहीं किया है कि कटारिया की जगह नेता प्रतिपक्ष कौन होगा? लेकिन यह बात लगभग तय है कि राजेंद्र सिंह राठौड़ को प्रमोट करके उपनेता से नेता प्रतिपक्ष बनाया जायेगा। नेता प्रतिपक्ष का चुनाव वसुंधरा के तीसरी बार सीएम बनने की राह का सेमीफाइनल होगा और उसके बाद जब चुनाव प्रचार समिति बनेगा, तब फाइनल मुकाबला होने वाला है।
सियासी जानकारों का कहना है कि वसुंधरा राजे नेता प्रतिपक्ष बनाने में अपनी पसंद को लेकर कोई दखल नहीं देंगी, लेकिन चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनकर टिकट बंटावारा अपने हाथ में लेना चाहेंगी। वो जानती हैं कि आगे के चुनाव को कैसे मैनेज करना है, ताकि चुनाव परिणाम बाद अपना आखिरी पत्ता फैंक सकें। चर्चा तो यह भी है कि वसुंधरा राजे को भी राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन उन्होंने सक्रिय राजनीति का चुना। हालांकि, उम्र के लिहाज से देखा जाये तो 75 वर्ष से कम होने के कारण वसुंधरा राजे को इस बार और टिकट मिल सकता है, लेकिन गुजरात चुनाव में 65—70 से उपर आयु वालों के जिस तरह से टिकट काटकर पार्टी इतिहास रच चुकी है, उससे राजे के टिकट पर भी प्रश्नचिंह लगा हुआ है।
कटारिया को सक्रिय राज्य से बाहर निकालना इस बात का भी इशारा है कि युवाओं को पार्टी आगे लाना चाहती है। राजनीति के हिसाब से युवा वो होते हैं, जो सामान्य जीवन में युवा अवस्था को पीछे छोड़ चुके होते हैं। राजनीति में जो नेता 40 साल से कम होते हैं, उनको बच्चा माना जाता है। इसलिये पार्टी बच्चों को नहीं, बल्कि युवाओं को आगे लाने का प्रयास कर रही है।
प्रदेश अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां से लेकर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अविश्नी वैष्णव और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिडला जैसे आधा दर्जन नेता सीएम की रेस में हैं, लेकिन किस का भाग्य उदय होगा, यह केवल भाजपा की टॉप टीम को ही पता है। बीते चार साल से लगभग निष्क्रिय रहकर भी अध्यक्ष से शीतयुद्ध लड़ने वाली वसुंधरा राजे के समर्थकों को पूरी उम्मीद है कि वही तीसरी बार सीएम होंगी, लेकिन आलाकमान के स्तर पर अब वो हालात नहीं हैं, जो 2013 के समय हुआ करते थे। लगातार दूसरी बार केंद्रीय सत्ता और लगभग हर राज्य में सत्ता प्राप्त कर चुकी भाजपा ने अब कठोर निर्णय करना सीख लिया है।
एक समय ऐसा भी था, जब राज्य में अध्यक्ष बनाने की बारी आई थी और वसुंधरा राजे ने अपने पॉलिटिकल वीटो पॉवर का इस्तेमाल करके तब के पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी ताकत का अहसास करवाया था। सियासी गलियारों में आज भी उस बात की चर्चा है कि अमित शाह को आंख दिखाने वाली वसुंधरा राजे का अब सियासत में आगे बढ़ पाना करीब—करीब मुश्किल है।
कुछ मौके छोड़ दिये जाएं तो राजस्थान की राजनीति में सीएम पद की जंग हमेशा होती ही रही है, लेकिन फिर भी भाजपा ने चुनाव की तैयारी करके राज्य की सरकार के सामने चुनौती पेश कर दी है। भाजपा में बड़े निर्णय लेने की पूरी डोर वैसे तो टॉप लीडरशिप के हाथ में है, लेकिन राज्य के नेताओं में भी अध्यक्ष सतीश पूनियां ने अपनी सक्रियता को टॉप गियर में डाल दिया है। वसुंधरा राजे भी अब अपनी ताकत जनता के बीच जाकर दिखायेंगी, ताकि आलाकमान यह जान सके कि वह अभी भी जनता के बीच राज्य भाजपा की नंबर एक नेता हैं।
जोधपुर से आने वाले जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत और रेल मंत्री अविश्नी वैष्णव का केंद्रीय योजनाओं के सहारे राज्य की राजनीति में सक्रियता दिखाना भी काफी कुछ कह रहा है, तो लोकसभा अध्यक्ष का राजस्थान प्रेम उनकी महात्वाकांक्षा को साफ कर देता है। राजस्थान विधानसभा का बजट सत्र समाप्त होते ही नेताओं के दौरों की रफ्तार यह भी साबित करेगी कि कौन नेता किस गति से सीएम की कुर्सी की तरफ बढ़ रहा है।
इधर, अशोक गहलोत सरकार भी अपने आखिरी बजट के द्वारा सत्ता रिपीट कराने का संकल्प लेकर आगे बढ़ रही है। सरकार का बजट जिस तरह से फ्री घोषणाओं का पिटारा साबित हुआ है, वह इस बात की तरफ इशारा कर करा है कि अशोक गहलोत ना केवल भाजपा को अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं, बल्कि सचिन पायलट को भी यह दिखाने की कोशिश में हैं कि वह अपने दम पर सत्ता प्राप्त करा सकते हैं। किंतु अशोक गहलोत के लिये आज भी भाजपा से बड़ी चुनौती सचिन पायलट ही हैं। पायलट ने एक बार फिर से अशोक गहलोत की सरकार को उसी उलझन में डाल दिया है, जहां वह से बजट घोषणाओं के जरिये निकलना चाहती थी। कहते हैं कि भूतकाल की बातें और कर्म आपको फिर से उसी मुहाने पर लाकर खड़ा कर देते हैं, जहां से आप बाहर निकलना चाहते हैं।
सचिन पायलट भी अशोक गहलोत को फिर वहीं ले आये हैं, जहां उन्होंने राजनीतिक जीवन का सबसे जोखिम भरा कदम उठाकर अपने आलाकमान को आंख दिखाई थी। सचिन पायलट ने 25 सितंबर को विधायक दल की बैठक का बहिष्कार करने के मामले में जिम्मेदार नोटिस देने तीन नेताओं के खिलाफ कार्रवाई में देरी पर फिर सवाल उठाए हैं। पायलट ने गहलोत समर्थक विधायकों पर दबाव बनाने की पार्टी स्तर पर जांच करने का मुद्दा उठाया है। उन्होंने गहलोत गुट के विधायकों के दबाव में इस्तीफों के पीछे की वजह की जांच करने की मांग की है।
दरअसल, पिछले साल 25 सितंबर को जयपुर में सीएम आवास पर कांग्रेस विधायक दल की बैठक तत्कालीन अध्यक्षा सोनिया गांधी के निर्देश पर बुलाई गई थी। पायलट ने सवाल किया है कि कांग्रेस विधायक दल की बैठक का बहिष्कार करके तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के निर्देश की अवहेलना करने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई में बहुत ज्यादा देरी क्यों हो रही है? अगर राज्य में हर पांच साल में सरकार बदलने की परंपरा बदलनी है तो कांग्रेस से जुड़े मामलों पर जल्द फैसला करना होगा।
विधायक दल की बैठक 25 सितंबर को मुख्यमंत्री द्वारा बुलाई गई थी, जो नहीं हो सकी थी। पायलट का कहना है कि बैठक में जो भी होता वो अलग मुद्दा था, लेकिन बैठक ही नहीं होने दी गई, जो लोग बैठक नहीं होने देने और विधायक दल की पैरेलर बैठक बुलाने के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें अनुशासनहीनता के लिए नोटिस दिए गए थे। एआईसीसी की तरफ से अब तक कोई निर्णय नहीं लिया गया है। पायलट को लगता है कि एके एंटनी के नेतृत्व वाली अनुशासनात्मक कार्रवाई समिति, कांग्रेस अध्यक्ष और पार्टी नेतृत्व ही इसका सही जवाब दे सकते हैं कि निर्णय लेने में इतनी ज्यादा देरी क्यों हो रही है?'
राज्य की अशोक गहलोत सरकार पर सवाल उठाते हुये पायलट ने कहा है कि हम बहुत जल्द चुनाव की तरफ बढ़ रहे हैं, बजट भी पेश हो चुका है। पार्टी नेतृत्व ने कई बार कहा कि वह फैसला करेगा कि कैसे आगे बढ़ना है। राजस्थान में कांग्रेस पार्टी के बारे में जो भी फैसला करना है, वो होना चाहिए, क्योंकि इस साल के आखिर में चुनाव है। अगर हर पांच साल पर सरकार बदलने की 25 साल से चली आर रही परंपरा बदलनी है और फिर से कांग्रेस की सरकार लानी है तो जल्द फैसला करना होगा।
ऐसा नहीं है कि सचिन पायलट केवल गहलोत सरकार के कामकाज और कांग्रेस आलाकमान द्वारा फैसला नहीं लेने से ही परेशान हैं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चुनावी अभियान को भी अच्छे से समझ रहे हैं। उनका मानना है कि राजस्थान में खुद आक्रामक ढंग से प्रचार कर रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस को अब मैदान पर उतरकर कार्यकर्ताओं को लामबंद करना होगा, ताकि हम लड़ाई के लिए तैयार रहें।
दरअसल, सीएम अशोक गहलोत गुट के कांग्रेस और निर्दलीय विधायकों ने पिछले साल 25 सितंबर की शाम को सीएम हाउस में बुलाई गई विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया था। गहलोत गुट के विधायकों ने यूडीएच मंत्री शांति धारीवाल के बंगले पर पैरेलर विधायक दल की बैठक की थी। इस बैठक के बाद विधायकों ने सपीकर के बंगले पर जाकर इस्तीफे दे दिए थे। उस वक्त मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और तत्कालीन प्रभारी महासचिव अजय माकन पर्यवेक्षक बनकर आए थे। दोनों ने सोनिया गांधी को रिपोर्ट दी थी। विधायक दल की बैठक का बहिष्कार करके पैरेलर विधायक दल की बैठक बुलाने के मामले में मंत्री शांति धारीवाल, महेश जोशी और आरटीडीसी अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह राठौड़ को नोटिस जारी किए थे। उन नोटिस का जवाब भी भेज दिया है। तब से यह मामला पैंडिंग चल रहा है। गहलोत-पायलट के बीच नवंबर से तल्खियां उस वक्त से बढ़ी हुई हैं, जब पायलट के लिए गहलोत ने गद्दार शब्द का इस्तेमाल किया था।
इन दोनों घटनाओं से साफ हो रहा है कि भाजपा इस बार जहां वसुंधरा राजे के भविष्य का फैसला कर देगी, तो कांग्रेस में भी सचिन पायलट के सियासी सफर का रास्ता तय हो जायेगा। राजनीति में चर्चा यह भी चल रही है कि यदि जल्द से जल्द कांग्रेस ने पायलट को सीएम बनाने का आदेश जारी नहीं किया तो चुनाव से पहले वह पार्टी छोड़ सकते हैं। उनके पास इस बात का पक्का आधार है कि उन्होंने पार्टी क्यों छोड़ी? कुछ लोगों का यह भी मानना है कि वह विधानसभा चुनाव के परिणाम तक कांग्रेस को नहीं छोड़ेंगे। कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव प्रचार करेंगे और सत्ता रिपीट कराने का पूरा प्रयास करेंगे, लेकिन इस बार भी सत्ता बदलने की परंपरा जारी रही और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई, ते फिर वह लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ जा सकते हैं। उसके बाद उनको केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है, जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं।
सवाल यह उठता है कि यदि जब सचिन पायलट को कांग्रेस आलाकमान की निर्णय नहीं कर पाने से नाराजगी है तो विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी छोड़ने का फैसला क्यों नहीं करना चाहिये, ताकि अशोक गहलोत और कांग्रेस को भी सबक सिखाया जा सके? असल बात यह है कि पायलट को राजस्थान में मुख्यमंत्री बनना है, यदि उनको केंद्र में मंत्री बनता होता तो वह 2020 में बगावत के समय ही पार्टी छोड़कर भाजपा के साथ जा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और यह साबित किया कि वह पार्टी से नाराज नहीं थे, बल्कि पार्टी के निर्णय से नाराज थे। दूसरी बात यह है कि भाजपा में खुद मुख्यमंत्री बनने वालों की एक लंबी लाइन लगी हुई है। पिछले दिनों एक खबर आई थी कि भाजपा अब बाहर से आये हुये लोगों को मैन स्ट्रीम की सत्ता में शामिल नहीं करेगी। इसका मतलब यह है कि पार्टी अब बाहर से आये हुये लोगों को मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों के लिये प्रमोट नहीं करेगी। अधिक से अधिक जनाधार के हिसाब से ऐसे लोगों को केंद्र और राज्यों में मंत्री बनाया जा सकता है।
अब यदि सचिन पायलट विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा का दामन थाम लेते हैं, तो भी वह बीजेपी की ओर से राज्य के मुख्यमंत्री नहीं बन पायेंगे। सियासी जानकारों को मानना है कि इस चुनाव में वह कांग्रेस के साथ रहकर सत्ता प्राप्त कर खुद सीएम बनना चाहेंगे, लेकिन जब सत्ता रिपीट नहीं होगी तो वह पांच साल फिर से विपक्ष में रहकर अपना सियासी सफर खराब नहीं करना चाहेंगे। इसलिये उनके पास पांच साल की जगह केवल पांच माह में ही अपनी राजनीतिक पारी को आगे बढ़ाने का एक और अवसर होगा, जिसको छोड़ना नहीं चाहेंगे।
दूसरी ओर वसुंधरा राजे को लेकर भी इसी दौरान निर्णय होगा। यदि भाजपा सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री की कुर्सी की लड़ाई होगी और उसमें यदि वसुंधरा राजे सक्सेज हुईं तो फिर पांच साल उनकी राजनीति यात्रा एक बार फिर से चरम पर होगी, लेकिन वह सीएम नहीं बन पाती हैं, तो फिर उनको भी संभवत: केंद्र की तरफ रुख करना होगा, जहां पर मंत्री बनाकर उनको राज्यपाल पद की तरफ आगे बढ़ाया जाये। कुछ राजनीतिक लोगों को यह भी मानना है कि वसुंधरा राजे का राजस्थान की राजनीति से सफर पूरा हो चुका है, उनको अब राज्यपाल के लिये केंद्र अपील करनी चाहिये, ताकि कटारिया की तरह सम्मान के साथ सियासी विदाई हो सके।
इसी साल वसुंधरा—पायलट का भविष्य तय हो जायेगा
Siyasi Bharat
0
Post a Comment