Ram Gopal Jat
राजस्थान में चुनाव में अब भी करीब 9 महीनों का समय बाकी है, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दो दिन पहले विधानसभा में जो बजट पेश किया और उससे भी पहले पिछले साल का बजट पढ़ने के कारण उनकी किरकिरी हुई, उसने पूरे बजट भाषण पर पानी फेर दिया। अशोक गहलोत इस बात की पूरी तैयारी करके आये थे कि अपने इस अंतिम बजट भाषण के द्वारा वो ना केवल सत्ता रिपीट करने का रोडमैप सामने रख देंगे, बल्कि भाजपा और सचिन पायलट के सपनों को भी धुंधला कर देंगे, लेकिन पूरे मीठे बजट में नमक अधिक हो गया, और गुड का गौबर हो गया।
जिस बजट भाषण के द्वारा गहलोत जाते—जाते भी कर्मचारियों के हीरे बन गये हैं, उसी भाषण से राज्य की जनता के हीरो बनना चाह रहे थे, लेकिन वह इस बजट भाषण की किरकिरी के कारण पहले ही जीरो बन गये। विधानसभा में अपने भाषण के दौरान हमेशा विपक्ष पर चुटकियां लेने वाले गहलोत बीते दो साल से पायलट पर भी तंज कसते आ रहे हैं, और इस बार भी लोगों को पक्का भरोसा था कि भाजपा के सपनों पर तो कटाक्ष मारकर प्रहार करेंगे ही, साथ ही सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की मांग को लेकर भी बहुत तंज कसने वाले हैं। मगर गहलोत के भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। बजट भाषण के दौरान सचिन पायलट भी उतनी ही तन्म्यता से सुन रहे थे, जितने बाकी लोग, लेकिन अशोक गहलोत के भाग्य ने साथ नहीं दिया और आखिरी बजट भाषण से वह ना केवल एक दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास बना गये, बल्कि सत्ता रिपीट कराने के सपने को भी धूमिल कर गये।
दरअसल, राहुल गांधी ने पिछले दिनों अपनी यात्रा के दौरान अशोक गहलोत को हिदायत दी थी कि जो काम सरकार करे, उसका प्रचार भी करे। इसलिये अशोक गहलोत ने बजट से पहले ही ना केवल शहरों में बड़े—बड़े बैनर टांगे थे, बल्कि टीवी और अखबारों को बचत, राहत, बढ़त के नाम से बजट का ढिंढोरा पीटने वाले विज्ञापन भी दे रहे थे। ऐसा पहली बार हो रहा था कि कोई भी सरकार बजट से पहले इस तरह से करोड़ों रुपयों के विज्ञापन देकर अपना प्रचार कर रही थी।
माना जाता है कि युवाओं के कहे अनुसार ही परिवार के लोगों का मानस तय होता है और उनके कहे मुताबिक ही परिवार के लोग वोट डालना तय करते हैं। इसके चलते युवाओं को साधने के लिये गहलोत सरकार ने प्रत्येक गांव—कस्बे में स्कूलों—कॉलेजों में सरकारी खर्च पर टीवी चलाया गया और उसका सीधा प्रसारण किया गया, ताकि इस बात को चुनाव से पहले जतना के मन में ठूंस दिया जाये कि सरकार का बजट इतिहास बना रहा है, लेकिन अशोक गहलोत की खराब किस्मत कहें या विपक्ष और सचिन पायलट का भाग्य, दोनों ही अशोक गहलोत के कटाक्ष और तंज भरे प्रहारों से बच गये।
इस बार के बजट भाषण में तीन चार बातें पहली बार हुईं। फ्रीस घोषणाओं के पिटारे वाले इस बजट में पहली बार बीते साल का बजट भाषण पढ़ा गया, बल्कि बीच में दो बार सदन को स्थगित करना पड़ा। साथ ही विपक्ष की ओर से भी एक इतिहास दर्ज किया गया। बीते चार साल में पहली बार विधानसभा के भीतर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की आवाज निकली। अन्यथा अशोक गहलोत जब 2013 से 2018 तक विपक्ष में बैठे थे और वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री थीं तब गहलोत सदन के अंदर एक शब्द नहीं बोले, तो उसी परिपाटी को आगे बढ़ाते हुये वसुंधरा राजे भी सवा चार में एक शब्द नहीं बोलीं। ऐसा नहीं है कि पूर्व सीएम के सदन में नहीं बोलने की संवैधानिक बाध्यता है या परंपरा है। दोनों के इस अद्भुत और ऐतिहासिक तालमेल से नागौर सांसद और रालोपा मुखिया हनुमान बेनीवाल की उस बात पर मुहर लग जाती है कि गहलोत—वसुंधरा को गठबंधन है, जो 'एक बार मैं, एक बार तू' के साथ बीते 25 साल से राजस्थान में शासन कर रहे हैं।
इसे भी सीएम अशोक गहलोत का ही दुर्भाय कहेंगे कि इतिहास बना लेने की बाद 9 साल के उपरांत यह इतिहास टूट गया। पूर्व सीएम की चुप्पी टूट गई और वसुंधरा राजे को एक लाइन बोलने के लिये खड़ा होना पड़ा। हालांकि, इस बात का शायद गहलोत को अहसास नहीं होगा कि वह जो बात पूर्व सरकार के बजट में हुई गलतियों पर बोल रहे हैं, उससे वसुंधरा राजे उनके सामने खड़ी हो जायेंगी। वसुंधरा ने पहले तो अपने उपर लगे आरोप को गलत ठहराया, और उसके साथ ही मुख्यमंत्री के नाते अशोक गहलोत के लिये शर्म की बात बताई कि जिस मुख्यमंत्री को यह पता नहीं है कि वो कौनसा बजट पढ़ रहा है, यह सोचनीय बात है, बल्कि इससे यह भी साबित होता है कि प्रदेश कैसे चल रहा होगा? वसुंधरा की इस ऐतिहासिक एक लाइन के बाद ना तो विपक्ष ने हंगामा किया और ना ही गहलोत ने विपक्ष के उपर एक शब्द बोला। इसके बाद पूरा बजट सदन के सदस्यों द्वारा चुपचाप सुना गया। राहुल गांधी के सुझाव पर की गई सरकारी व्यवस्था के कारण इन ऐतिहासिक पलों के साक्षी बने प्रदेश के करोड़ों वो लोग, जो टीवी पर बजट का सीधा प्रसारण देख रहे थे।
इसी सदन में अब एक और इतिहास बनने जा रहा है। बजट सुनने वाला प्रतिपक्ष का जो नेता था, वह बजट भाषण की बहस में हिस्सा नहीं ले पायेगा, और जो नेता प्रतिपक्ष के लिहाज से बहस में हिस्सा लेकर मुख्यमंत्री के रिप्लाई से पहले विपक्ष की ओर से बात रखेगा, वह दूसरा व्यक्ति होगा। बजट सुनने वाले नेता प्रतिपक्ष के पद पर गुलाबचंद कटारिया थे, लेकिन उनको अब असम राज्यपाल बना दिया गया है। इसलिये अब वह विधानसभा में नहीं होंगे, तो विपक्ष की ओर से नेता प्रतिपक्ष किसी दूसरे को बनाया जायेगा। इस वजह से विपक्ष की ओर से सरकार को जवाब संभवत: राजेंद्र सिंह राठौड़ ही देंगे। यह भी संभव है कि वसुंधरा राजे नेता प्रतिपक्ष बन जायें और बजट बहस में विपक्ष की ओर से उनके द्वारा जवाब दिया जाये, लेकिन इसकी संभावना अत्यंत कम है।
वसुंधरा गुट के दूसरे विधायकों में से भी नेता प्रतिपक्ष बनाये जाने की खबरें हैं, लेकिन सबसे सीनियर विधायक होने के कारण संभवत: राजेंद्र सिंह राठौड़ ही नेता प्रतिपक्ष होंगे। यह बात इसलिये भी ठीक लगती है, क्योंकि पार्टी इस समय इतना बड़ा बदलाव करने के मूड में नहीं है। लोग तो पार्टी अध्यक्ष सतीश पूनियां को भी नेता प्रतिपक्ष बनाने की बातें कर रहे हैं, लेकिन उनको नेता प्रतिपक्ष बनाया जाता है तो फिर पार्टी का अध्यक्ष बदलना होगा, जिससे चुनाव पहले बड़ा नुकसान होने की संभावना है। वैसे भी विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, और उससे पहले पार्टी नेता प्रतिपक्ष पद पर चुनाव के जरिये इतनी बड़ी रिस्क नहीं लेगी।
वसुंधरा राजे अब इस मौके का फायदा उठाने का प्रयास करें और खुद आगे बढ़कर नेत प्रतिपक्ष बनने के लिये अपने आलाकमान से अपील कर सकती हैं। यदि वसुंधरा राजे इस अवसर का लाभ लेने के लिये खुद आगे बढ़ती हैं और पार्टी आलाकमान उनको नेता प्रतिपक्ष बनाने का काम करता है, तो फिर इस बात की संभावना अधिक बन जायेगी कि अगले चुनाव के पहले सीएम चेहरे के तौर पर उनको प्रमोट किया जा सकता है, या फिर चुनाव परिणाम के बाद यदि भाजपा को बहुमत मिलता है, तो उनको तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है।
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी इशारों में बहुत कुछ समझाने का प्रयास करती है, लेकिन उसको कौन नेता किस तरह से समझता है, यह अलग बात है। इस जोड़ी ने वसुंधरा राजे और उनके समर्थकों को पहला इशारा तो तब किया था, जब उनकी मर्जी के खिलाफ संगठन के व्यक्ति सतीश पूनियां को करीब सवा तीन साल पहले अध्यक्ष बनाया गया था। उससे पहले वसुंधरा ने अपने करीबी को अध्यक्ष बनाने का खूब प्रयास किया था, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई। इस वजह से आज भी वह पार्टी के अध्यक्ष के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं, वह अपने ही दल के अध्यक्ष को इग्नोर करने का पूरा प्रयास करती हैं। इसके साथ ही 27 दिसंबर को सतीश पूनियां का कार्यकाल पूरा होने के बाद भी उनको ना तो हटाया गया और ना ही वसुंधरा राजे कैंप को राहत दी गई, तो भी उनके लिये एक इशारा माना जाता है।
इसके अलावा दूसरा बड़ा इशारा यह रहा है कि अमित शाह से लेकर दूसरे नेताओं ने राजस्थान में पूरे तीन साल यही कहा है कि अगला चुनाव मोदी और कमल के निशान पर लड़ा जायेगा। इसका मतलब यह है कि 2003 के बाद पहला ऐसा चुनाव है, जब पार्टी वसुंधरा राजे के बजाये प्रदेश का चुनाव भी अपनी टॉप लीडरशिप के नाम से लड़ने जा रही है। मोदी के इस इशारे को भी शायद वसुंधरा गुट इग्नोर करने का प्रयास कर रहा है, या उनको समझ नहीं आ रहा है कि आलाकमान क्या कहना चाह रहा है?
इसी तरह से तीसरा बड़ा इशारा किया गया है गुलाबंचद कटारिया को राज्यपाल नियुक्त करके, उनको संगठन का कट्टर कार्यकर्ता माना जाता है। कटारिया ने ना वसुंधरा राजे के साथ अच्छा तालमेल रखा, बल्कि जब सतीश पूनियां को अध्यक्ष बनाया गया, तब भी उन्होंने आलाकमान की बात को सर्वोपरि मानते हुये उनके अध्यक्षीय काल में एक कर्मठ कार्यकर्ता के रुप में काम किया। इस वजह से उनको उम्र के इस पड़ाव पर राज्यपाल बनाकर सम्मानित किया गया है। कटारिया की तरह संगठन के प्रति वफादार होने वाले और भी लोगों को मौका दिया जा सकता है। वसुंधरा राजे बीते चार साल से संगठन के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं, इसलिये उनके लिये रास्ते बंद होते जा रहे हैं।
इसलिये अब वसुंधरा राजे के पास 3 विकल्प बचते हैं। पहला रास्ता तो उनको नेता प्रतिपक्ष खुद बने या अपने किसी खास को बनवायें, ताकि उसके माध्यम से आलाकमान के उपर प्रेशर बना सकें। खुद बनती हैं तो सरकार को घेरने के बहाने फिर से जनता की नजरों में चढ़ने का अवसर होगा, पार्टी में पकड़ वापस मजबूत होगी और सदन के भीतर सतीश पूनियां को भी उनके पीछे चलना होगा। इसके साथ ही अभी तो विधायक संगठन मुखिया का विरोध करने के कारण उनसे दूर दिखाई दे रहे हैं, वो भी पास आयेंगे। वह चुनाव पूर्व प्रदेशभर में अपनी यात्रा जैसे कार्यक्रम भी सहज ही कर पायेंगी, तो पार्टी के मुख्यधारा में जुड़ जायेंगी।
दूसरा रास्ता यह है कि यदि संगठन उनको चुनाव तक भी सीएम फेस नहीं बनाता है, तो अलग रास्ता चुन लें और पार्टी बनाकर प्रदेश में खुद के उम्मीदवार उतार दें। इससे भाजपा को बड़ा नुकसान होने का खतरा उत्पन्न होगा। हो सकता है कि ऐसी हालत में भाजपा और वसुंधरा राजे की गुटबाजी के कारण वोट बंट जाये तो कांग्रेस को फिर से सत्ता मिल जाये। उस स्थिति में वसुंधरा यह साबित कर पायेंगी कि उनके बिना पार्टी जीत नहीं सकती है। हालांकि, उसके बाद भी उनको पार्टी में हैशियत नहीं मिलेगी।
तीसरा रास्ता यह है कि वह आलाकमान के फैसले के अनुसार खुद को ढाल लें और इंतजार करें कि उनको पार्टी फिर से बड़ा अवसर देगी। इस रास्ते पर उनके लिये पार्टी के दरवाजे भी खुलेंगे और उनका सम्मान भी बढ़ेगा। हालांकि, इस मार्ग पर उनको बड़ा सम्मान भी मिल सकता है और केंद्र में मंत्री या राज्यपाल बनाने जैसे कदम भी उठाया जा सकता है। अब यह वसुंधरा राजे के उपर निर्भर करता है कि वह बागी तेवर दिखाकर किनारे होना चाहती हैं, या पार्टी के फैसलों के साथ होकर भविष्य सुरक्षित रखना चाहती हैं।
अब वसुंधरा राजे इन तीन रास्तों में से चाहे जो भी चुने, लेकिन इतना तो पक्का है कि इस बार के चुनाव काफी रोचक होने वाले हैं, जिसमें ना केवल भाजपा की बड़ी नेता वसुंधारा का भविष्य तय होगा, बल्कि अशोक गहलोत के भविष्य की राजनीति का भी फैसला हो जायेगा। दोनों ही दलों में सीएम फेस और जीतने के बाद सीएम बनने की लड़ाई चरम पर जायेगी, जो संभवत: प्रदेश में पहली बार होगा। इसी चुनाव से इन दोनों नेताओं की राजनीति पर पूरी तरह से ब्रेक भी लग सकता है और प्रदेश को नया मुख्यमंत्री भी मिल सकता है, जिसका बीते 15 साल से इंतजार है।
वसुंधरा राजे की यह खबर सबको हैरान कर देगी
Siyasi Bharat
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