Ram Gopal Jat
राजस्थान में चुनावी चौसर बिछती नजर आ रही है। एक तरफ जहां राहुल गांधी की यात्रा के बाद कांग्रेस पूरी तरह से एक्टिव होती दिखाई दे रही है, तो भाजपा ने जन आक्रोश यात्रा के बहाने सरकार के खिलाफ जोरदार महौल बना दिया है। कांग्रेस ने चार साल से सुस्त पड़ी पार्टी में 188 ब्लॉक अध्यक्षों की घोषणा कर संगठन को चुनाव के लिये तैयार करने का प्रयास शुरू किया है, जबकि भाजपा का पूरा संगठन जन आक्रोश यात्रा के बहाने पार्टी अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां की अगुवाई में एकजुट होकर सरकार की खामियों को जनता के सामने ला रही है। हालांकि, पार्टी के सभी नेता डॉ. सतीश पूनियां की लीडरशिप में पूरे मनोयोग से काम करते दिखाई दे रहे हैं।उनका पहला कार्यकाल पूरा हो चुका है, और दूसरा कार्यकाल शुरू हो चुका है। पार्टी ने साफ कर दिया है कि सतीश पूनियां की लीडरशिप में ही विधानसभा चुनाव करवाया जायेगा। इसके बाद अब कोई किंतु परंतु नहीं रह गया है कि चुनाव तक कौन पार्टी अध्यक्ष होगा?
भाजपा भले ही कहे कि पार्टी अध्यक्ष सतीश पूनियां ही चुनाव तक पार्टी के मुखिया होंगे, लेकिन अभी तक भी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समर्थक विधायकों और पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा है कि चुनाव के बाद वसुंधरा ही मुख्यमंत्री होंगी। अब सवाल यह उठता है कि क्या वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री हो सकती हैं। सबसे पहले तो यह जानना जरुरी है कि क्या वसुंधरा राजे के समर्थन में उतना बहुमत हो सकता है, जितना 2003 और 2013 में हुआ करता था? क्योंकि जब पहली बार वसुंधरा सीएम बनी थीं, तब पार्टी ने ही उनको प्रोजेक्ट किया था। दूसरी बार उनके सामने कोई चुनौती नहीं थी और संगठन एक तरह से उनकी मुट्ठी में हुआ करता था। इस दौरान जितने भी पार्टी अध्यक्ष बने, उनमें से कोई चुनौती नहीं दे पाया। चाहे गुलाबंचद कटारिया हो, ओम माथुर हो, अरूण चतुर्वेदी हो या अशोक परनामी जैसा रबड़ स्टाम्प अध्यक्ष हो।
इस वजह से वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री के रुप में आराम से अपने दो कार्यकाल पूरे कर लिये। बीच में जब पार्टी विपक्ष में थी, तब राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हुआ करते थे, उस वक्त जरुर वसुंधरा राजे ने साल 2009 में नेता प्रतिपक्ष के पद को लेकर पार्टी को आंख दिखा दी थी, जिनके समर्थन में भाजपा के अधिकांश विधायक इस्तीफा लेकर दिल्ली चले गये थे। बाद में उनको फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। इसी तरह से 2018 में चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष को लेकर वसुंधरा राजे ने तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह को भी आंख दिखाई थी, तब भी अंदरखाने यह बात सामने आई थी कि वसुंधरा राजे ने अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाने के लिये आलाकमान को चुनौती दे दी थी। नतीजा यह हुआ कि मदनलाल सैनी जैसे नरमपंथी व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि, मदनलाल सैनी को असामयिक निधन हो गया और फिर से अध्यक्ष को लेकर संकट हुआ था। जब 84 दिनों तक खींचतान चली और अंतत: संगठन ने वसुंधरा राजे की राय को पूरी तरह से दरकिनार कर संगठनप्रिय डॉ. सतीश पूनियां को कमान सौंपी थी। सितंबर 2019 से 2022 तक उनको कार्यकाल पूरा हुआ।
पार्टी सूत्रों का दावा कि इस दौरान भी वसुंधरा राजे ने सतीश पूनियां की जगह अपनी पसंद का अध्यक्ष बनाने का खूब प्रयास किया है। अब जबकि सतीश पूनियां का पहला कार्यकाल समाप्त होकर दूसरा शुरू हो चुका है, तब भी वसुंधरा राजे का लॉबिंग जारी है, किंतु संगठन महामंत्री और प्रदेश प्रभारी अरूण सिंह ने साफ कर दिया है कि डॉ. सतीश पूनियां बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, इसलिये अध्यक्ष बदलने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। इसी तरह से राष्ट्रीय महामंत्री ने भी कहा है कि सतीश पूनियां ही अध्यक्ष रहेंगे, बदलने का सवाल ही नहीं उठता है। इन बयानों से स्पष्ट हो गया है कि पार्टी चुनाव तक किसी भी सूरत में अध्यक्ष बदने का जौखिम नहीं उठाना चाहती है।
राजनीति के जानकार मानते हैं कि यदि संगठन मुखिया के रुप में जब अध्यक्ष काम बढिया कर रहा हो, तब उसको हटाना समझदारी नहीं हो सकती है। वैसे भी अब चुनाव में केवल 11 महीने का समय बचा है, और इस दौरान यदि मुखिया बदला जाता है, तो फिर गुटबाजी पनपने का खतरा शुरू हो जाता है। वैसे ही इस वक्त वसुंधरा राजे ने तमाम समझाइश के बावजूद संगठन का साथ नहीं देकर गुटबाजी कर रखी है। इस वक्त भाजपा ने जन आक्रोश यात्रा शुरू की हुई है, लेकिन वसुंधरा राजे और उनके समर्थक विधायकों का रवैया साफतौर पर संगठन के खिलाफ बगावत जैसा नजर आ रहा है। करीब एक दर्जन विधायक वसुंधरा राजे के खास माने जाते हैं, जबकि हारे हुये विधायक भी इस यात्रा को समर्थन नहीं करके बगावत कर रहे हैं।
अब सवाल यह उठत है कि वसुंधरा राजे जैसी दिग्गज और कद्दावर राजनेता को ये दिन क्यों देखने पड़ रहे हैं? आखिर क्या वजह है कि करीब 17 साल तक एकछत्र राज करने वाले वाली इतने बडे कद की राजनेत्री को हाशिये पर धकेलने का काम क्यों किया जा रहा है? आखिर क्या वजह है कि राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की संबधन होने का नारा देकर राज्य की राजनीति में अपने पांव जमाने वाली वसुंधरा राजे के पांव आज ये ही तीनों कौम उखाड़ क्यों रही हैं? आखिर क्या वजह है कि वसुंधरा राजे से ना जाट खुश हैं, ना राजपूतों को उनकी मौजूदगी पसंद है और ना ही गुर्जरों को भरोसा रहा है? इस वीडियो में हम आज इन तमाम बातों पर विस्तार से बात करेंगे।
आपको याद होगा, जब 2003 के चुनाव से पहले वसुंधरा राजे ने परिवर्तन यात्रा निकाली थी। पूरे प्रदेश में वसुंधरा ने तब की अशोक गहलोत सरकार को पूरी तरह से निकम्मी बताते हुये परिवर्तन की आंधी चला दी थी। उन्होंने हर सभा, प्रदर्शन में कहा कि वह राजपूतों की बेटी है, जाटों की बहू और गुर्जरों की संधन हैं। और इसका परिणाम यह हुआ कि करीब 22 फीसदी जाट, 9 फीसदी राजपूत और 7 प्रतिशत गुर्जरों ने वसुंधरा राजे के नाम पर एक तरफा वोटिंग की। जिसके परिणामस्वरुप भाजपा को पहली बार विधानसभा में 120 सीटों पर जीत मिली। पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली वसुंधरा राजे ने 2013 के चुनाव में भी इसी नारे को बुलंद किया। हालांकि, 2006 से 2008 तक चले गुर्जर आरक्षण आंदोलन के कारण गुर्जर समाज वसुंधरा राजे से नाराज हो गया था, लेकिन आरक्षण दिये जाने के कारण वसुंधरा के सारे राजनीतिक पाप धुल गये।
साल 2018 के चुनाव से पहले गैंगेस्टर आनंदपाल का एनकाउंटर हुआ। हालांकि, हत्या, डकैती, कब्जा करने जैसे कई गंभीर अपराधों का सरगना आनंदपाल एक पुलिस मिशन में मारा गया, लेकिन राजपूत समाज ने इसको सरकारी हत्या बताते हुये उसके गांव में बड़ी श्रदांजलि सभा का आयोजन किया। उस आयोजन में देशभर से लाखों लोग एकत्रित हुये और उसमें भी विवाद हो गया। बाद में पूरा मामला सीबीआई को सौंप दिया गया। इस पूरे मामले में कई राजपूत समाज के लोगों के खिलाफ सीबीआई ने चालान पेश किया था। इसी को लेकर राजपूत समाज वसुंधरा राजे के खिलाफ हो गया। प्रदेशभर के राजपूतों ने वसुंधरा राजे का बहिष्कार करते हुये चुनाव में भाजपा को वोट नहीं दिया।
इसी तरह से गुर्जर समाज को सचिन पायलट के रुप में एक उम्मीद की किरण दिखी। पायलट के नाम पर गुर्जर समाज ने कांग्रेस को बंपर वोटिंग की। जिस कांग्रेस में अशोक गहलोत के नाम से सभी लोग निराश होकर उनको 2013 में बुरी तरह से नकार चुके थे, सचिन पायलट के नाम पर कांग्रेस पार्टी 21 से 101 सीटों पर चली गई। हालांकि, कांग्रेस ने आज दिन तक सचिन पायलट को मुख्यमंत्र नहीं बनाया, लेकिन तब से गुर्जर समाज भी अपनी संधन वसुंधरा राजे से नाराज ही है।
जाट समाज की लंबे समय से जाट मुख्यमंत्री की मांग को दोनों दलों ने कभी पूरा नहीं किया। उपर से सोहेला कांड हुआ, जिसमें कई किसानों को गोलियां मारी गईं, तब वसुंधरा राजे का ही शासन हुआ करता था। मरने वाले किसानों में जाट समाज के ही लोग थे, जिसके कारण जाट समाज की भी वसुंधरा राजे से नाराजगी हो गई। बाद टिकट बंटवारे से लेकर मंत्रीमंडल में जाट समाज को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाना भी वसुंधरा राजे के खिलाफ माहौल बनाने का कारण बना। नतीजा यह हुआ कि 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले ही 'मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं' का नारा बुलंद हुआ। परिणाम में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई।
अब वसुंधरा राजे का राजस्थान में कहीं कोई करिश्मा दिखाई नहीं देता है। उपर से इन तीनों समाजों की नाराजगी को भी भाजपा अच्छी तरह से जान चुकी है। शायद यही बड़ी वजह है कि भाजपा 2023 में वसुंधरा राजे को सीएम के रुप में आगे करके फिर से हारना नहीं चाहती है। आज भाजपा में डॉ. सतीश पूनियां अध्यक्ष के रुप में एक जुझारू और कद्दावर नेता हैं, तो केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत भी काफी मजबूत स्थिति में दिखाई दे रहे हैं। हालांकि, मुख्यमंत्री को लेकर निर्णय चुनाव परिणाम के बाद संसदीय बोर्ड द्वारा ही होगा, लेकिन वसुंधरा राजे को दूर किये जाने के कारण इस वक्त पार्टी के खिलाफ कोई भी समाज नाराज नहीं है। यहां तक के पार्टी विरोधी माना जाने वाले मुस्लिम समाज भी आज की तारीख में धीरे धीरे भाजपा के प्रति अपना शॉफ्ट नजरिया दिखा रहा है।
कहने का मतलब यही है कि भाजपा में करीब दो दशक तक राज करने वाले वसुंधरा राजे जिन समाजों के सहारे सत्ता की सीढ़ी चढ़ी थीं, उन्हीं समाजों की नाराजगी ने उनको सत्ता की सीढ़ी से उतार भी दिया है। अब यह पार्टी को तय करना है कि आगे डॉ. सतीश पूनियां, गजेंद्र सिंह शेखावत, ओम बिडला जैसे नेताओं में से किस चेहरे पर मुख्यमंत्री के लिये दांव लगाया जायेगा। अब भले ही वसुंधरा के समर्थकों द्वारा चमत्कार की उम्मीद की जा रही हो, लेकिन राजनीति के जानकारों का मानना है कि वसुंधरा राजे का समय प्रदेश की राजनीति से समाप्त हो चुका है।
वसुंधरा से नाराज क्यों हैं जाट, गुर्जर, राजपूत?
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