Ram Gopal Jat
भारत के विदेश मंत्री डॉ. सुब्रम्ण्यम जयशंकर का ने एक साल से विदेश नीति के मामले में धमाल मचा रखा है। जयशंकर का एक धमाकेदार इंटरव्यू वायरल हो रहा है, जो उन्होंने ओस्ट्रिया में की सरकार न्यूज एजेंसी को दिया है। इसमें विदेश मंत्री फिर से स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि भारत और रूस के बीच जो कारोबार है, वह अमेरिका या यूरोप के कारण प्रभावित नहीं होगा। अपने चिर परिचित अंदाज में जयशंकर ने कहा कि जब यूरोप की केवल 75 करोड़ आबादी के लिये रूस से छह गुणा तेल आयात किया जा सकता है, तो फिर भारत अपनी 142 करोड़ जनसंख्या के लिये सस्ता तेल आयात क्यों नहीं करे? यूरोप और अमेरिका का यह दोहरा रवैया अब चलने वाला नहीं है, भारत भी अपनी आवश्यकता का तेल जहां से सस्ता मिलेगा, वहीं से आयात करेगा। यूरोपीय यूनियन अपने नागरिकों की जरुरत के नाम पर रूस से तेल खरीद रहे हैं, तो भारत क्यों नहीं अपने नागरिकों के लिये कच्चा तेल खरीद नहीं कर सकता?
जयशंकर का पहला बयान नहीं है, जिसमें उन्होंने आंकड़ों के साथ अमेरिका व यूरोपीयन यूनियन के देशों को आइना दिखाया है, बल्कि इससे पहले तीन चार बार पश्चिमी मीडिया के सवालों के जवाब में इन बातों का दोहराया जा चुका है। भारत की विदेश नीति को हमेशा अमेरिका से प्रभावित मानी जाती रही है और 2015 में ऐसा हो भी चुका है, जब अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध लगाये थे, तब भारत ने भी उससे तेल आयात बंद कर दिया था, जो आज तक बंद ही है, किंतु रूस यूक्रेन विवाद के बाद भारत को अमेरिका द्वारा दबाव में लेने की नीति सफल नहीं हो पाई। अमेरिका ने एक दर्जन बार अलग अलग तरीके से प्रयास किया कि रूस से भारत तेल आयात बंद कर दे, लेकिन भारत ने इस बार अमेरिकी दबाव को दरकिनार कर ना केवल आयात बंद नहीं किया, बल्कि सस्ता मिलता देख मात्रा को करीब 22 फीसदी कर दिया।
पिछले कार्यकाल में सभी विदेश मामलों को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही डील करते थे, लेकिन 2019 में दूसरी सरकार बनने के बाद मोदी ने यह मंत्रालय पूरी तरह से जयशंकर के हवाले कर दिया। इसका असर भी देखने को मिला, क्योंकि जयशंकर के पास लंबे समय तक कई देशों में राजदूत रहने का अनुभव है। इसमें अमेरिका, रूस, जापान और चीन जैसे देश शामिल हैं। शायद यही वजह रही कि उनको हर देश की नीति का बारीकी से ध्यान है। जयशंकर ने अपने अनुभव को काम लिया और परिणाम यह रहा है कि आज अमेरिका भी चाहकर भारत को रूस से रिश्ते तोड़ने को मजबूर नहीं कर पा रहा है।
अब साल 2023 की शुरुआत हो चुकी है और इस नये कैलेंडर आरम्भ के साथ ही दुनिया में कई जगह ऐसी घटनाओं ने विकराल रुप धारण कर लिया है, जहां से अवांछनीय और अशोभनीय खबरें आ रही हैं। भारत के पड़ोसी पाकिस्तान में साल के पहले दिन तालिबान का अधिकारिक रुप से आगमन हो गया है। तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान, यानी टीटीपी ने जहां खैबर पख्तूनवा और बलूचिस्तान के लिये अपनी अलग सरकार के मंत्रीमंडल की घोषणा करके पाकिस्तानी सत्ता के पांव हिला दिये हैं तो अफगानिस्तान में शासित तालिबान का विस्तार भी इसके साथ पाकिस्तान में हो गया है। अभी तक भी यह साफ नहीं हो पाया है कि यह वही तालिबान है या अलग है, जो काबुल में काबिज है?
यूरोप में एक बार फिर से रूस ने यू्क्रेन को कुचलने की कसम खाते हुये हमले तेज किये हैं। एक जनवरी को ही व्लादिमिर पुतिन ने अपने मंसूबे साफ कर दिये, जब पता चला कि रूसी सेना ने यूक्रेन के कीव पर मिसाइल हमलों की बरसात कर दी है। अमेरिका लाख चाहकर भी यह नहीं कह पा रहा है कि वह रूस के खिलाफ अघोषित युद्ध कर रहा है, भले ही वह यूक्रेन को अत्याधुनिक हथियार सप्लाई कर रहा हो। बीते साल के शुरुआत में जब 24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन के खिलाफ यह अभियान शुरू किया था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी युद्ध इतना लंबा चला जायेगा। यह युद्ध असल में रूस और अमेरिका के बीच लड़ा जा रहा है, युद्ध की रणभूमि जरूर यूक्रेन की धरती है।
पृथ्वी से लेकर चंद्रमा तक अपनी उपस्थिति और जमीन हथियाने की रणनीति के कारण कुख्यात चीन फिर से अमेरिका के सामने आ गया है। अब दोनों देशों ने चंद्रमा की जमीन पर भी अपने हक को लेकर बयानबाजी तेज कर दी है। अमेरिका को लगता है कि जिस तरह से धरती पर चीन विस्तारवादी नीति पर कायम है, उसी से तरह वह चांद पर भी जमीन हड़पने और उसे अपनी बताने के लिये मिशन पर है। अमेरिका ने दक्षिण चीन सागर का उदाहरण देकर चीन की नीति को उजागर किया है। दोनों देशों के बीच ताइवान को लेकर पहले से ही तनाव चल रहा है। इस साल में चीन के लिये कई मुसीबतें हैं, जिनको पार पाना शी जिनपिंग शासन के लिये कड़ी चुनौती है। कोरोना की जोरदार लहर और उसके कारण दम तोड़ते चीनी उद्योग के चलते जिनपिंग के सामने छात्र आंदोलन को थामना भी बड़ी चुनौती है। भारत ने चीन को इस वक्त पाकिस्तान की श्रेणी में डाल रखा है, जिससे भले कारोबार चल रहा हो, लेकिन राजनैयिक संबंध खत्म कर रखे हैं।
ईरान और इस्राइल के बीच फिर से अघोषित जंग ने जन्म ले लिया है। इस्राइल अपनी सभ्यता बचाने की नीति पर कायम है। वह चहुंओर से कट्टर मुस्लिम देशों से घिरा होने के कारण खुद को जीवित रखने की असीमित जंग झेल रहा है, तो ईरान पहले ही गृहयुद्ध जैसे हालात से जूझ रहा है। ईरान में हिजाब विरोध के बीच जिस तरह से फांसी का दौर चल रहा है, उसके बाद मानवाधिकारों की पैरवी करने वाले देशों ने चुप्पी साधकर साबित कर दिया है कि ये सब 'सलेक्टेड' ही होता है। भारत में किसी आतंकी को भी फांसी होती है तो दुनिया का मानाधिकार जाग जाता है, जबकि अपने हकों के लिये लड़ रहे दर्जनों क्रांतिकारियों को फांसी देने के बाद भी इन मानवाधिकारियों को ईरान में सबकुछ ठीक दिखाई पड़ रहा है।
भारत ने दुनिया के इस दोहरे मापदंड को अब अच्छे से समझ लिया है। पिछले साल ही अमेरिका—यूरोप के संयुक्त दबाव को दरकिनार कर भारत ने रूस से सस्ता कच्चा तेल आयात बढ़ाया है, वह भारत की गुट निरपेक्ष छवि को मजबूती देते हुये शक्तिशाली होने का भी अहसास करवाता है। लंबे समय से भारत की विदेश नीति अमेरिका द्वारा प्रभावित होती मानी जाती रही है, किंतु इन 10 माह में भारत की रणनीति और विदेश नीति अपने नागरिक हितों के आगे अमेरिकी संबंधों को भी बौना साबित कर चुकी है। एक बार फिर भारत के विदेश मंत्री डॉ. सुब्रम्ण्यम जयशंकर ने यह कहकर अमेरिका—यूरोपीय संघ को स्पष्ट कर दिया है कि यूरोपीयन देश आज भी भारत से छह गुणा अधिक कच्चा तेल और गैस रूस से आयात कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि भारत अपनी रणनीति को किसी विदेश नीति प्रभावित नहीं होने देगा। अमेरिका को अब यह मान लेना चाहिये कि भारत को दबाव में लेकर अपने हित नहीं साध पायेगा।
खास बात यह है कि पूरे यूरोप की जनसंख्या केवल 75 करोड़ के करीब है, जो कि भारत की जनसंख्या से आधी ही होती है। फिर भी यूरोप के देश भारत से छह गुणा अधिक उर्जा खपत करते हैं, फिर भी अमेरिका और यूरोप कच्चे तेल की कम खरीद के लिये भारत को ही कहते हैं। बीते कुछ वर्षों में जिस तरह से यूरोप में अधिक गर्मी और सामान्य से ज्यादा सर्दी पड़ रही है, वह ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा प्रमाण है, जो इन देशों द्वारा बेतहासा प्राकृतिक दोहन का नतीजा है। भारत इस मामले में अभी भी काफी पीछे है। लेकिन जब ग्लोबल वार्मिंग की बात आती है, तो ये ही विकसित देश गरीब देशों को ज्ञान देने का काम करते हैं। कई रिपोर्ट्स में यह दावा किया जा चुका है कि दुनिया पांच विकसित देश मिलकर दुनिया 80 फीसदी पर्यावरण खराब करने के लिये जिम्मेदार हैं। इस मामले में भारत ने अमेरिका पर 50 हजार करोड़ का जुर्माना तक लगाया है, जो अभी तक अमेरिका ने भुगतान नहीं किया है। इससे इन देशों की दोहरी मानसिकता का भी पता चलता है।
भारत में जब 2014 के दौरान सत्ता बदली, तब नैरेटिव के हिसाब से सबसे बड़ा वैश्विक कदम था 21 जून को विश्व योग दिवस की पूरी दुनिया में शुरुआत। संयुक्त राष्ट्र के द्वारा भारत की इस स्वास्थ्य पहल को पूरी दूनिया ने अंगीकार किया। योग को पहले हिंदू धर्म से जोड़कर देखा जाता था, लेकिन भारत सरकार ने यह साबित करने में कामयाबी पाई है कि योग केवल निरोग करने का आसान है, इसका धर्म या क्षेत्र से लेनादेना नहीं है। आज दुनिया के 56 इस्लामिक देश भी 21 जून को योग दिवस पर बढ़—चढ़कर हिस्सा लेते हैं।
अब इस साल दो अवसर आये हैं। पहला तो भारत को जी20 की अध्यक्षता मिली है, इसके माध्यम से भारत पूरी दुनिया में भारत के खिलाफ बनाये नैरेटिव को तोड़कर एक नई छवि बनाने का काम करेगी, जिसमें दबंग और लीडरशिप वाला भारत सामने आयेगा। इसी तरह से भारत की अपील पर 2023 को संयुक्त राष्ट द्वारा मोटा अनाज वर्ष, यानी 'मिलैट्स ईयर' घोषित किया गया है। भारत के लिये यह इसलिये प्रसन्नता का विषय है, क्योंकि मोटा अनाज भारतीय सभ्यता का अभिन्न अंग रहा है। हमारे यहां पर हजारों वर्ष पूर्व ही ऋषियों इस अनाज का महत्व जान लिया था।
आज पूरा विश्व मान रहा है कि मोटा अनाज स्वास्थ्य के लिये केवल भोजन नहीं है, बल्कि इस आधुनिक युग में एक औषधि के समान है। भारत के लिये दूसरी खुशी यह भी है कि विश्व में मोटा अनाज का सबसे बड़ा उत्पादक भारत ही है। बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ जैसे अनाज आज भारत के आम आदमी की थाली में होते ही हैं, तो बड़े लग्जरी होटल्स में भी इस अनाज को चाव से खाया जाता है और इसके महंगे उत्पादों को खरीदकर गर्व किया जाता है।
डॉक्टर्स का मानना है कि गेंहू, चावल से ना केवल मधुमेह, मोटापा और उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां बढ़ती हैं, बल्कि नियमित मोटे अनाज के सेवन से इन रोगों से छुटकारा भी मिलता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हमारे कम से कम एक समय के भोजन में मोटा अनाज होना चाहिये। इतना नहीं कर सकते तो सप्ताह में तीन दिन मोटा अनाज अवश्य खाना चाहिये। यह कोई राजनीतिक बयानबाजी नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों के साथ बात कही गई है, इसलिये धर्म, क्षेत्र, दल के विचार से दूर सबको स्वीकार करनी चाहिये। वैसे भी अनाज तो किसी धर्म, जाति अथवा क्षेत्र से बिलकुल परे है। अत: इसको पूरा विश्व स्वीकार कर रहा है। यूएई जैसे इस्लामिक देश ने मोटा अनाज वर्ष का स्वागत किया है और अपने लग्जरी होटल्स में इसके उपयोग को बढ़ावा देने की पहल भी की है।
अमेरिका, यूरोप, जापान ने भी मिलैट्स ईयर का स्वागत किया है। भारत को केवल इतना करना है कि अपने दोनों समय के भोजन में बहुलता से व्याप्त रहे मोटे अनाज को फिर से उसी तरह से शामिल करना है। जैसे हनुमानजी को अपनी शक्ति याद दिलानी पड़ती है, ठीक वैसे ही भारत के लोगों को अपनी इस भूली हुई शक्ति को पुन: याद कराना है। आधुनिकता से परहेज किसी को नहीं है, लेकिन जब बात स्वास्थ्य की हो, तो फिर वही खायें, जो शरीर को हष्ट—पुष्ट रखे, ताकि रोगों से छुटकारा पाया जा सके।
सबसे बड़ी बात यह है कि मोटा अनाज कम से कम पानी और रैतीले धोरों से लेकर जल की बहुतायतता वाले क्षेत्रों में भी सहजता से उपजता है। इसलिये इस बात की कतई चिंता नहीं है कि इसको भारत के कोने—कोने में कैसे ले जाया जा सकेगा। अब समय आ गया है, जब भारत का बाजरा, मक्का, रागी, ज्वार जैसे अनाज को विदेशों में निर्यात किया जाये। भारत सरकार को चाहिये कि इसके साथ ही दुनिया में यह नैरेटिव भी सिद्ध करने का प्रयास करे कि विश्व को भारत की यह एक और शानदार सौगात है। जिन देशों में अनाज की कमी रहती है, वहां पर इसका प्रसार अधिक किया जा सकता है, क्योंकि जल की कमी अनाज पैदा करने में बाधक बनती है, जिससे ऐसे गरीब देश मोटा अनाज पैदा कर छुटकारा पा सकते हैं।
एक समय ऐसा था, जब भारत विश्व को मार्ग दिखाता था। आज भी स्थितियां धीरे धीरे उसी ओर जा रही हैं, विश्व जहां अनैक तरह की हिंसा से जूझ रहा है, तो धार्मिक अंधता ने कई देश बर्बाद कर दिये हैं। विश्व से आतंकवाद को जड़ से तभी खत्म किया जा सकता है, जब मानव का विचार शुद्ध होगा। कहते हैं कि विचार की शुद्धी का रास्ता अच्छे खान—पान से निकलता है। यह सबकुछ इतना आसान नहीं है, फिर भी पहल करके विश्व को एक मार्ग दिखाया जा सकता है। भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया है, लेकिन अब यह समय भी है कि बहुत कुछ दिया जाना चाहिये।
भारतीय सभ्यता का अभिन्न अंग 'योग' पूरा विश्व स्वीकार कर चुका है और मोटा अनाज वर्ष शुरू हो चुका है। अब भारत सरकार को चाहिये कि अपनी ताकत का इस्तेमाल करे और 'श्रीमद्भागवत गीता' को कर्मयोगी पुस्तक के साथ विश्व की श्रेष्ठ पुस्तक का दर्जा दिलाने का प्रयास शुरू करे, ताकि आतंक से जूझ रही दुनिया को कर्मयोगी बनकर एक सन्मार्ग मिल सके। युद्ध से जीतना आसान है, लेकिन विचार को बदलना ही तो सबसे बड़ी जीत है। भारत यदि ऐसा करने में सफल होता है, तो मानव जाति के लिये इससे बड़ा पुण्यकर्म क्या हो सकता है?
एक साल के तमाम विदेश नीति के निर्णयों के आधार पर बात की जाये तो इस वक्त नरेंद्र मोदी की सरकार में विदेश मंत्री एस जयशंकर नंबर एक मंत्री हैं, जो अपनी छाप छोड़ने में कामयाब हो रहे हैं। मोदी सरकार के मंत्रालयों का वार्षिक विशलेषण किया जाये तो कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि इस बीते साल में भारत का विदेश मंत्रालय सभी मंत्रालयों पर भारी पड़ा है। अमित शाह और नीतिन गड़करी भी इस मामले में इस बीती साल में काफी पीछे रह गये हैं।
जयशंकर बने भारत के नंबर एक मंत्री
Siyasi Bharat
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