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वसुंधरा, शिवराज और रमन सिंह का समय समाप्त हुआ

Ram Gopal Jat
देश तीन बड़े हिंदीभाषी राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का नाम आता है। इन तीनों राज्यों में साल 2018 तक भाजपा की सरकारें थीं। राजस्थान में वसुंधरा राजे दूसरी बार मुख्यमंत्री थीं, तो मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान लगातार तीसरी बार सीएम का कार्यकाल पूरा कर रहे थे। छत्तीसगढ़ में भी भाजपा के रमन सिंह ने 15 साल तक लंबे समय शासन किया है। वसुंधरा राजे को छोड़कर दोनों नेता अपने अपने राज्य में 2003 से 2018 तक लगातार शासन में रहे हैं। हालांकि, शिवराज सिंह चौहान करीब सवा साल बा​द कांग्रेस सरकार गिरने के कारण चौथी बार मुख्यमंत्री बन गये थे। तीनों ही नेताओं को 2018 में सत्ता से बाहर होने के बाद राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया था। हालांकि, शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बनने के बाद से उपाध्यक्ष पद पर सक्रिय नहीं हैं। रमनसिंह ने पिछले दिनों ही कहा था कि वह चौथी बार सीएम दावेदार नहीं है, यह फैसला पार्लियामेंट्री बोर्ड तय करेगा। वसुंधरा राजे अपने राणी वाले एटीट्यूट के कारण अपने ही दल के अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां के साथ तालमेल ​नहीं बिठाकर साइड लाइन हो चुकी हैं, उनको मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया जायेगा, इसको लेकर अमित शाह से लेकर पार्टी प्रभारी अरुण सिंह भी बयान दे चुके हैं। खुद सतीश पूनियां भी कह चुके हैं कि पार्टी मोदी और कमल के निशान पर चुनाव लड़ेगी। जबकि शिवराज सिंह के सामने यह सवाल इसलिये नहीं उठ रहा है, क्योंकि वह वर्तमान में मुख्यमंत्री पद पर हैं, जिसके चलते अगले सीएम के रुप में स्वत: ही दावेदार हैं। किंतु गुजरात मॉडल के आधार पर तीनों ही सीएम आगे मुख्यमंत्री की रेस से बाहर हो जाते हैं।
इसका सीधा सा मतलब यही निकलता है​ कि भाजपा अब नई लीडरशिप की ओर देख रही है। दरअसल, गुजरात में भाजपा ने पूर्व सीएम विजय रुपाणी और डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल को चुनाव से दूर कर दिया है। हालांकि, विजय रुपाणी ने को तो पहले ही सीएम पद से हटाकर भुपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया था, लेकिन विजय रुपाणी को टिकट नहीं देकर यह भी साबित कर दिया कि अब उनको राज्य की राजनीति में नहीं रखा जायेगा। विजय रुपाणी फिलहाल पंजाब के प्रभारी हैं। दूसरी ओर नीतिन पटेल को फिलहाल घर बिठा दिया गया है। माना जा रहा है कि नितिन पटेल भी सीएम बनने की तिकडम बिठा रहे थे, इस वजह से उनको आराम दिया गया है। मध्य प्रदेश की बात करें तो यहां पर शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद पर लंबा अनुभव हो चुका है, राज्य की जनता उनको चाहती भी है, लेकिन पार्टी उनके बारे में क्या सोचती है, यह तय करना बाकी है। आमतौर पर यह समझा जाता है कि साल 2018 में शिवराज सिंह चौहान सत्ता से बाहर हुये थे, लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यहां पर भाजपा को कांग्रेस के वादों ने हराया था, जो इतनी बड़ी हार भी नहीं थी कि कांग्रेस को जश्न मनाने का अवसर मिलता। उपर से कांग्रेस ने एमपी में भी वही किया, जो राजस्थान में किया गया। एमपी में लोगों को लग रहा था कि सत्ता प्राप्त हुई तो ज्योतिरादित्य सिंधिया मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने बूढ़े हो चुके कमलनाथ को सत्ता की चाबी सौंप दी, जिसका खामियाजा भी कांग्रेस को उठाना पड़ा। यही वजह रही कि कुछ ही महीनों में कांग्रेस के विधायकों ने पार्टी छोड़ दी और कमलनाथ की सरकार गिर गई।
बाद में सिंधिया भाजपा में चले गये और कांग्रेस के विधायकों को टिकट देकर भाजपा ने फिर से विधानसभा भेज दिया। अब शिवराज सिंह चौहान के बाद सिंधिया का सीएम बनने का नंबर आ सकता है। कुछ महीनों पहले ही राहुल गांधी ने दावा किया था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जब तक कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे, तब तक मुख्यमंत्री नहीं बन सकते। अब यह तो वक्त ही बतायेगा कि सिंधिया को भाजपा मुख्यमंत्री बनाती है ​या फिर कांग्रेस में शामिल होना पड़ेगा। फिलहाल चर्चा यही चल रही है कि मध्य प्रदेश में भी शिवराज सिंह की जगह नये चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। भाजपा ने फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन जैसे अन्य राज्यों में ली​डरशिप बदली जा रही है, उसी तरह से मध्य प्रदेश में भी चैंज की जा सकती है। छत्तीसगढ़ की बात की जाये तो यहां पर रमनसिंह तीन बार मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन 2018 में सत्ता विरोधी लहर के कारण उनको बाहर बैठना पड़ा। इस वक्त कांग्रेस की भुपेंद्र बघेल की सरकार है, जो अगले साल इन्हीं दिनों चुनाव में जा रही है। रमनसिंह खुद को सीएम की रेस से बाहर मानते हैं। वह खुद कहते हैं कि सीएम का चेहरा नहीं होगा, चुुनाव के बाद संसदीय बोर्ड तय करेगा कि किसे मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। इसका मतलब यह है कि रमनसिंह किसी का तरह का विवाद नहीं करना चाहते हैं, ना ही उन्होंने अपने प्रदेशाध्यक्ष से किसी तरह की कलह की है, जैसे राजस्थान में वसुंधरा राजे ने पार्टी अध्यक्ष डॉ. सतीश पूनियां के साथ कर रखी है।
राजस्थान में गुटबाजी का आलम यह है कि प्रदेश सरकार की विफलताओं को लेकर भाजपा की ओर से निकाली जा रही जन आक्रोश यात्रा से वसुंधरा राजे कैंप ने दूरी बना रखी है। इस यात्रा में धीरे धीरे लोगों का जुड़ना और सतीश पूनियां को अपना नेता स्वीकार कर लेना एक बड़े बदलाव की ओर इशारा करता है। पार्टी अध्यक्ष के तौर पर डॉ. सतीश पूनियां ने निर्विवाद रुप से पहला कार्यकाल पूरा कर लिया है, जबकि किसी अन्य को नियुक्ति नहीं मिलने के कारण उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हो चुका है, जो कम से कम विधानसभा चुनाव तक रहने की उम्मीद है। केंद्रीय नेतृत्व कई बार यह कह चुका है​ कि राजस्थान के 2023 वाले चुनाव में किसी नेता को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया जायेगा, बल्कि मोदी और कमल के निशान पर चुनाव लड़ा जायेगा। चुनाव परिणाम के बाद तय किया जायेगा कि किसे मुख्यमंत्री बनाना है। इसका मतलब यह होता है कि ना तो वसुंधरा राजे और ना ही डॉ. सतीश पूनियां के मुख्यमंत्री बनने की गारंटी है। चुनाव के बाद कौन सीएम बनेगा, यह तब तय होगा,​ किंतु जिस प्रकार अभी से वसुंधरा राजे खेमा तीसरी बार सीएम बनने का दावा करते हुये संगठन के कार्यकर्मों से दूरी बनाकर बैठा है, उससे यही लगता है कि इसके कारण वसुंधरा राजे को भविष्य में बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
भाजपा को इतिहास यह रहा है कि यह पार्टी किसी को बाहर नहीं करती है। इसके कई बड़े उदारहण हैं। उत्तर प्रदेश में दिवंगत कल्याण सिंह से लेकर मध्य प्रदेश में उमा भारती और पजांब के नवजोत सिंह सिद्दू से लेकर कीर्ति आजाद जैसे क्रिकेटर से नेता बने इसके उदाहरण हैं। इसी तरह से क्षत्रुघन सिन्हा से लेकर यशवंत सिन्हा इसके उदाहरण हैं। वापस लौटने वालों में कल्याण सिंह और उमा भारत की तरह से ही राजस्थान में डॉ. किरोडीलाल मीणा, घनश्याम तिवाड़ी जैसे नेता हैं, जो बाहर रहकर वापस लौटे हैं। इसलिये जो पार्टी पर छोड़ने का दबाव बनाता है या कोशिश करता है, उसका दबाव कभी काम नहीं आता है। कुछ लोगों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चुनाव नजदीक आने का ही इंतजार कर रही हैं। यदि तब तक उनको सीएम फेस नहीं बनाया जायेगा, तो वह नई पार्टी बनाकर भाजपा को सत्ता से बाहर ​बैठने को मजबूर कर सकती हैं। वसुंधरा राजे की मां विजयाराजे सिंधिया भाजपा की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं, और पार्टी के पास जब धन नहीं था, तब प्रचार के लिये विजयाराजे ने खूब पैसा दिया था। इसलिये भाजपा उनको बाहर निकालने जैसा कदम नहीं उठा पायेगी, लेकिन जिस तरह की कार्यशैली वसुंधरा राजे की होती जा रही है, उससे यही लगता है​ कि उनको राजस्थान में मुख्यधारा की राजनीति में नहीं रखा जायेगा।
भले ही वसुंधरा राजे के समर्थक उनके चमत्कार और तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने का दावा करते हों, लेकिन हकिकत यही है कि उनको अब समय के साथ खुद को ढालते हुये आगे बढ़ने पर विचार करना चाहिये। समर्थकों को भी यह दिलासा दिलाना चाहिये कि समय आगे बढ़ चुका है, इसलिये उनको भी आगे बढ़ने के लिये अब सीएम की रेस से बाहर होना होगा, अन्यथा जो कुछ मिलने की संभावना बचती है, वह भी समय गुजरने के बाद खत्म हो जायेगी। गुजरात मॉडल को लागू करने के लिये पार्टी प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है। यदि ऐसा किया गया तो वसुंधरा राजे के मंत्रीमंडल में रहे अधिकांश सदस्यों को टिकट कट ही जायेगा, जबकि सीएम की रेस में नहीं रखने के कारण वसुंधरा राजे को भी विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव लड़वाया जा सकता है। उनके बेटे दुष्यंत सिंह को विधानसभा में भेजकर मंत्री बनाने जैसा काम किया जा सकता है, जबकि वसुंधरा राजे को कहीं पर राज्यपाल या केंद्र में मंत्री बनाने का कदम उठाया जाना अधिक दिखाई दे रहा है।
राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत अपनी आखिरी पारी खेलते दिखाई दे रहे हैं, जबकि उनकी ही समकक्ष वसुंधरा राजे की पारी समाप्त मानी जा रही है। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अब गहलोत वसुंधरा का युग खत्म होने में केवल 11 महीनों को समय शेष बचा है। माना जा रहा है कि सतीश पूनियां से नाराज पूर्व सीएम वसुंधरा राजे अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ सकती हैं, जो अभी इंतजार कर रही हैं।

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