Ram Gopal Jat
राजस्थान विधानसभा का बजट सत्र 23 तारीख से शुरू हो रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा है कि 8 दिसंबर को राज्य का अगला बजट पेश किया जायेगा। इस बार प्रदेश सरकार केंद्रीय बजट से पहले अपना बजट पेश कर रही है। इसका एक बड़ा कारण सचिन पायलट के प्रदेश स्तरीय दौरे बताये जा रहे हैं, जिसमें उन्होंने एक बार फिर से किसानों की समस्याओं का सहारा लिया है।
पायलट की सभाओं में भीड़ ने कांग्रेस पार्टी के भी होश उड़ा दिये हैं। खुद कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को यह कहना पड़ा है कि पायलट की सभाएं संगठन की अधिकृत सभाएं नहीं हैं, ये किसान सभाएं नेताओं की अपने स्तर पर हो रही हैं। डोटासरा ने यह भी कहा है कि 20 तारीख से संगठन के जिला स्तर पर कार्यक्रम तय किये गये हैं।
पीसीसी के ये कार्यक्रम भी पायलट की सभाओं में भीड़ के बाद ही तय हुये हैं, तो अशोक गहलोत ने बजट जल्दी पेश करने की घोषणा भी इन सभाओं में भारी भीड़ को देखते हुये ही की है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सचिन पायलट ने पिछले दिनों राहुल गांधी से मुलाकात के बाद ये दौरे तय किये थे, जिसको इस बात से जोड़कर देखा जा रहा है कि राहु गांधी ने ही पायलट को किसाना सभाएं करने की अनुमति दी है। यही वजह है कि पायलट इन सभाओं में राज्य सरकार की विफताओं पर भी निशाना साध रहे हैं, तो केंद्र सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून बनाने के प्रस्ताव भी किसानों से ले रहे हैं।
सचिन पायलट की सभाओं में भीड़ की चर्चा अब विरोधी दलों के लिये चिंता का विषय हो गई है, तो सबसे अधिक चिंता शुरू हो गई है खुद कांग्रेस के उन विधायकों के लिये, जो अशोक गहलोत के खास माने जाते हैं और अगले चुनाव में फिर से जीतने के प्रयास में जुटे हुये हैं। असल बात यह है कि सचिन पायलट बिलकुल साफ संकेत दे दिया है कि जहां पर उनके करीबी विधायक हैं, वहां पर और जिन सीटों पर उनके विधायक प्रत्याशी हारे थे, वहां पर किसान सभाएं करके अपने समर्थकों के लिये चुनाव प्रचार शुरू कर चुके हैं।
बहाने भले ही एमएसपी कानून बनाने की मांग का प्रस्ताव लिया जा रहा हो, लेकिन जिस तरह से पायलट ने पेपर लीक, किसानों को बिजली, खाद की समस्या का जिक्र किया है, उससे एक बात बिलकुल स्पष्ट है कि वह अशोक गहलोत की सरकार को सवालों में लेने से कतई छोड़ने वाले नहीं हैं।
ऐसा लग रहा है कि पायलट की सभाओं में शामिल हो रहे कांग्रेसियों को रोकने के लिये ही डोटासरा ने संगठन के कार्यक्रम तय किये हैं, तो साथ ही लोगों का ध्यान डायवर्ट करने के लिये ही बजट भी जल्दी पेश किया जा रहा है। इरादे चाहे जो हों, लेकिन इतना तो तय है कि सचिन पायलट की किसान सभाओं की भीड़ यह सोचने पर मजबूर जरुर कर रही है कि विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है।
इस बीच हनुमान बेनीवाल ने यह कहकर सबके कान खड़े कर दिये हैं कि यदि सचिन पायलट और किरोडीलाल मीणा उनके साथ आ जायें तो राज्य की 140 सीटों पर जीत सकते हैं। आज हम बेनीवाल के इसी दावे पर बात करेंगे कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है? क्या ये तीनों साथ आ सकते हैं और इनके एक साथ आने के बाद 140 सीटों पर जीतने सकने के पीछे क्या समीकरण हैं?
तीनों का अलग—अलग मूल्यांकन किया जाये तो उससे काफी कुछ स्पष्ट हो जायेगा कि इनमें दावे में कितनी सच्चाई है। सबसे पहले सीनियर नेता किरोडीलाल मीणा की बात करें तो इनकी राजनीतिक शुरुआत भाजपा से हुई। वसुंधरा राजे की 2003 वाली पहली सरकार में किरोडीलाल कैबिनेट मंत्री थे, लेकिन गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान वसुंधरा राजे से अनबन के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। बाद में 2008 के चुनाव में उनकी पत्नी और वह खुद निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे, जिसके बाद उनकी पत्नी गोलमादेवी अशोक गहलोत की दूसरी सरकार में मंत्री बनीं।
साल 2013 के चुनाव में जब मोदी लहर चल पड़ी थी, तब किरोडीलाल मीणा ने राजपा नामक पार्टी से अपने प्रत्याशी उतारे और खुद समेत चार विधायक जीते। इस चुनाव में भाजपा प्रचंड़ बहुत से जीती थी, लेकिन तब भी उनके चार विधायक जीते, जो बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने 21 सीटों पर सिमटकर इतिहास बना दिया था। करीब 9 साल तक पार्टी दूरे रहने के बाद किरोडीलाल मीणा भाजपा में शामिल हो गये और उनको राज्यसभा में भेज दिया गया।
लेकिन उनका मन राज्यसभा से अधिक राज्य में रहता है। इस सरकार में एकमात्र सबसे बड़े आंदोलनकारी नेता किरोडीलाल ही रहे हैं। वास्तव में देखा जाये तो भाजपा में होकर भी किरोडीलाल अकेले आंदोलन करते पाये गये हैं। इनका पूर्वी और दक्षिणी राजस्थान में अच्छा खास प्रभाव रहता है।
इसी तरह से राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव से निकले हनुमान बेनीवाल 2008 में पहली बार विधायक बने, लेकिन वसुंधरा राजे से पटरी नहीं बैठी और उनको बाहर निकाल दिया गया। 2013 में वह निर्दलीय दूसरी बार विधायक बने और वसुंधरा सरकार से लोहा लिया। इस समय में उन्होंने नागौर, बाड़मेर, जोधपुर, सीकर और जयपुर में पांच बड़ी और ऐतिहासिक रैलियां कीं।
चार साल पूर्व चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक नाम से खुद की पार्टी बनाई, जिसमें बेनीवाल समेत तीन विधायक जीते। बाद में वह भाजपा के साथ गठबंधन कर लोकसभा चुनाव लड़कर सांसद बन गये तो अपने भाई नारायण बेनीवाल को उपचुनाव में लड़ाकर विधायक बना दिया। तीन कृषि कानूनों के मामले में उनकी भाजपा से बिगड़ गई, जिससे गठबंधन टूट गया और वह फिर से अलग हो गये।
सचिन पायलट की बात की जाये तो साल 2000 में उनके पिता राजेश पायलट के निधन के 4 साल बाद वह पहली बार 2004 के लोकसभा चुनाव में सांसद बने थे। इसके उपरांत 2009 का चुनाव अजमेर से जीते और मनमोहन सिंह की सरकार में राज्यमंत्री बने। लेकिन मोदी लहर के चलते 2014 का लोकसभा चुनाव अजमेर सीट से हार गये। इसके बाद उन्होंने पीसीसी चीफ रहते हुये अपना पूरा फोकस राजस्थान पर कर दिया।
जो कांग्रेस अशोक गहलोत के कारण 21 सीटों पर सिमट गई थी, उसको 2018 में बहुमत दिलाने का काम सचिन पायलट ने ही किया। दुर्भाग्य से उनको मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया और डिप्टी सीएम पद पर बिठा दिया। जहां से 11 जुलाई 2020 को वह बगावत करने को मजबूर हो गये। बाद में उनको पीसीसी चीफ और डिप्टी सीएम के पद से भी हटा दिया। अभी वह टोंक से केवल विधायक मात्र हैं, लेकिन उनकी रैलियों में भीड़ कम नहीं हुई है।
कहने का मतलब यह है कि इन तीनों नेताओं के पास राजनीति का लंबा अनुभव है और जीतने का भी खूब एक्सपीरियंस है। अब सवाल यह उठता है कि भाजपा कांग्रेस को छोड़कर आजतक कोई पार्टी राजस्थान में सत्ता तक नहीं पहुंच पाई, तो ये तीनों नेता कैसे पहुंच सकते हैं?
दरअसल, देखा जो बीते 25 साल में राज्य की जनता से वसुंधरा—गहलोत को पांच बार सत्ता से बाहर फैंका है, लेकिन कांग्रेस में गांधी परिवार की मेहरबानी से अशोक गहलोत तीन बार सीएम बन गये।
दूसरी ओर 2003 में बदलाव की लहर में वसुंधरा राजे पहली बार सीएम बनने में सफल हो गईं तो दूसरी बार भाजपा के पास उनकी काट के रुप में कोई बड़ा चेहरा नहीं होने के कारण 2013 में दूसरी बार सीएम बन गईं। यही वजह है कि राज्य की जनता बार बार इन दोनों को नकार देती है, लेकिन फिर भी ये ही सीएम बना दिये जाते हैं, जिससे राज्य की जनता त्रस्त है।
एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा की सत्ता में राज्य बरसों से चल रहा है। हनुमान बेनीवाल कह चुके हैं कि इन दोनों दलों के गठबंधन से जनता उूब चुकी है, जनता को बदलाव चाहिये और ये बदलाव राष्ट्रीय लोकतांत्रित पार्टी दे सकती है। इन तीनों नेताओं के दम के आधार पर बात की जाये तो आधे पश्चिमी राजस्थान में हनुमान बेनीवाल का बड़ा प्रभाव है।
पूर्वी राजस्थान में किरोडीलाल मीणा अपने दम पर कई सीटों का गणित बिगाड़ने की हिम्मत रखते हैं। सचिन पायलट की बात की जाये तो उनका पूरे राजस्थान में जनाधार है। वह दक्षिणी राजस्थान में भी लोकप्रिय हैं तो उत्तरी हिस्से में भी उनके नाम से भीड़ जुटाना मुश्किल नहीं है।
जातिगत समीकरण की बात की जाये तो राज्य में सबसे बड़ी आबादी जाट समाज की है, जिसके कारण हमेशा लगभग 20 फीसदी सीटों पर इस समाज के आने वाले प्रत्याशी जीतते हैं। विधानसभा में दोनों दलों और निर्दलीय मिलाकर करीब 40 विधायक जाट समाज के होते हैं।
इस समाज के वोट पर हनुमान बेनीवाल का प्रभाव माना जाता है, जबकि किरोडीलाल मीणा निर्विवाद रुप से मीणा मतदाताओं को मोड़ने वाले सबसे बड़े नेता हैं। एसटी—एससी समाज के करीब 40—45 विधायक होते हैं।
इसी तरह से गुर्जर समाज के लगभग 7 फीसदी मतदाता माने जाते हैं, जो करीब 40 सीटों पर बहुत बड़े स्तर पर प्रभाव रखते हैं। कुल मिलाकर देखा जाये तो इन तीनों समाजों के पास 125 से अधिक सीटों का गणित होता है। यदि ये तीनों नेता मिल जायें, तो मुस्लिम समाज भी जुड सकता है, जो भाजपा कांग्रेस के इतर विकल्प ढूंढ रहा है।
सबसे बड़ा कारण है खुद वसुंधरा—गहलोत हैं, जिनसे राज्य की जनता उूब चुकी है। नया विकल्प मिले तो दूसरे समाजों का वोट भी कमोबेश मिलेंगे ही। सामाजिक समीकरण, क्षेत्रीय समीकरण, वसुंधरा—गहलोत का विकल्प, युवा वर्ग का सचिन पायलट, हनुमान बेनीवाल, किरोडीलाल मीणा पर बहुत अधिक विश्वास, राज्य में बदलाव की उम्मीद जैसी चीजों का निष्कर्ष यही निकलता है कि यदि ये तीनों नेता साथ आकर भाजपा—कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ें तो निश्चित रुप से सरकार बनाने में कामयाब हो सकते हैं।
पायलट, बेनीवाल, किरोड़ीलाल करेंगे 140 सीटों पर कमाल?
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