Ram Gopal Jat
हाल ही में सम्पन्न हुये गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव में भाजपा—कांग्रेस को एक एक राज्य मिल गया है। इसके साथ ही यह भी तय हो गया है कि अगले पांच साल तक भारत कांग्रेस मुक्त नहीं होगा, यदि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के विधायक नहीं बिकेंगे तो। यदि मध्य प्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों की तरह कांग्रेस के विधायक बिक गये तो अगले साल दिसंबर में कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार हो सकता है। लेकिन उसके लिये शर्त यह है कि भाजपा को राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को हराना होगा।
ऐसा नहीं हुआ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा साल 2014 में दिया गया 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा साकार नहीं हो पायेगा। हिमाचल प्रदेश में 68 में से कांग्रेस ने 40 और भाजपा ने 25 सीटें जीती हैं, साथ ही 3 सीटों पर निर्दलीयों ने बाजी मारी। भाजपा को इस बार करीब 42 प्रतिशत वोट मिले, जबकि कांग्रेस को लगभग 43 प्रतिशत।
भाजपा ने पिछली बार के मुकाबले 6 फीसदी वोट गंवाया है, जिसमें से 2 फीसदी कांग्रेस को और 4 प्रतिशत अन्य के खाते में चले गये। यानी संख्याबल के हिसाब से कांग्रेस की सरकार को कोई डर नहीं है, लेकिन यह सबकुछ तभी संभव है, जब कांग्रेस के विधायक हमेशा कांग्रेस के ही रहेंगे।
गुजरात में जहां 27 साल बाद भी जनता ने भाजपा पर पूरा भरोसा जताया है और एतिहासिक विजयरथ पर सवार कर 156 सीटों का प्रचंड़ बहुमत दिया है, तो हिमाचल प्रदेश ने 35 साल से हर बार पार्टी बदलने का रिवाज जारी रखते हुये सत्ता कांग्रेस को सौंप दी है। यह बात और है कि हिमाचल प्रदेश भाजपा में प्रेम कुमार धूमल और जेपी नड्डा के बीच अंदरखाने गुटबाजी चल रही है, जिसका नुकसान भाजपा को उठना पड़ा है।
राजनीति के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि प्रेम कुमार धूमल और उनके बेटे केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ही नहीं चाहते थे कि हिमाचल प्रदेश में भाजपा जीते और हुआ भी वही। भाजपा ने मोदी—शाह का गुजरात तो फिर से जीत लिया, लेकिन अध्यक्ष नड्डा का गृहराज्य गंवा दिया। नतीजा यह हुआ कि हिमाचल में कांग्रेस की सरकार बन गई। कांग्रेस ने भी दांव खेला एक ड्राइवर के बेटे सुखविंदर सिंह सिक्कु पर और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्रदेव सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को घर बिठा दिया।
अब इस बात के चर्चे खूब है कि जो कांग्रेस राजस्थान में तीन मंत्रियों पर कार्यवाही नहीं करके कमजेार दिखाई दे रही थी, वह हिमाचल में मजबूती से आगे बढ़ी है। प्रतिभा सिंह की दावेदारी को दरकिनार कर नये नेतृत्व के तौर पर सुखविंद सिंह को मुख्यमंत्री बनाया जाना खासा चर्चा में और उससे भी ज्यादा चर्चा यह है कि अब राजस्थान में भी कोई मजबूत फैसला लिया जा सकता है, ताकि 2023 के चुनाव में सत्ता रिपीट का सपना देखा जा सके।
यही वजह है कि तीन बार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को चुनाव से ठीक एक साल पहले घर बिठाया जा सकता है। उनकी जगह दुधिया से सांसद और फिर केंद्र कैबिनेट मंत्री रहे राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी जा सकती है, जिनके दम पर कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड़ बहुमत वाली वसुंधरा सरकार को सत्ता से उखाड़कर बाहर कर दिया था।
सचिन पायलट का दावा कितनी बार खारिज किया गया, जो तो पूरा राजस्थान जानता है, लेकिन ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि प्रतिभा सिंह जैसी दिग्गज राजपरिवार की बहु को सीएम पद से दूर कर एक बस ड्राइवर के बेटे को राज्य की समान सौंपी गई है। पिछले कुछ बरसों में ऐसा मजबूत निर्णय लेते हुये कांग्रेस को पहली बार देखा गया है। और यही कारण है कि अशोक गहलोत के सामने चार साल से लाचार दिखाई दे रहा कांग्रेस आलाकमान अब पायलट समर्थकों की उम्मीद की एक किरण बन गया है।
चर्चा यह भी चल रही है, कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा 22—23 तारीख को राज्य से निकलकर हरियाणा में प्रवेश करेगी, उसके बाद कभी भी अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने का कठोर फैसला सुनाया जा सकता है। सचिन पायलट को कमान सौंपकर राजस्थान में भी दूधिये किसान के बेटे को कमान सौंपकर यह संदेश दिया जा सकता है कि कांग्रेस अब जमे जमाये इन आधुनिक राजपरिवारों के बजाये प्रतिभाशाली लोगों को आगे लाने का काम करेगी।
यह बात सही है कि राहुल गांधी की यात्रा से कांग्रेस को कोई बड़ा फायदा मिलने की संभावना नहीं के बराबर है, लेकिन फिर भी जिस तरह से सत्ता को बचाये रखने के लिये जनता को अपने हाल पर छोड़कर अशोक गहलोत की पूरी की पूरी सरकार राहुल गांधी की यात्रा में नौछावर हो गई है, उससे यही लगता है कि खुद गहलोत भी इसी डर में जी रहे हैं कि कहीं गांधी परिवार उनको कुर्सी छोड़ने का आदेश नहीं सुना दे।
सचिन पायलट यात्रा में हमेशा साथ रह रहे हैं, वह खुद भी पूरे समय यात्रा का हिस्सा बन रहे हैं। इसके साथ ही राहुल गांधी के द्वारा दिये जाने वाले नारों की टी शर्ट पहनकर अपने समर्थकों सहित यात्रा में राहुल गांधी को मजबूती देने का काम कर रहे हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि उनके अपने साथ न्याय होने का पूरा भरेासा है।
हालांकि, राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि यदि इसके बाद भी सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो यह बात तो पक्की है ही कि कांग्रेस की सत्ता रिपीट किसी सूरत में नहीं होगी, बल्कि यह भी तय है कि अशोक गहलोत पूरे पांच साल सरकार भी नहीं चला पायेंगे।
जिद दोनों तरफ एक ही है। एक को पांच साल मुख्यमंत्री रहना है, दूसरे को किसी भी हाल में मुख्यमंत्री बनना है। यही वजह है कि दोनों को केवल आलाकमान के आदेश का इंतजार है। अशोक गहलोत को यह इंतजार है कि कांग्रेस आलाकमान बोल दे कि वही पूरे पांच साल मुख्यमंत्री रहेंगे, यानी सत्ता परिवर्तन नहीं होगा, तो सचिन पायलट को उस आदेश का इंतजार है, जिसमें कहा जायेगा कि अशोक गहलोत की जगह सचिन पालयट को सीएम बनाया जाता है।
दोनों की कांग्रेस आलाकमान के प्रति वफादारी का सबसे बड़ा कारण भी यही है। अन्यथा 25 सिंतंबर का वह राजनीतिक ड्रामा कोई नहीं भूल पाया है, जब हमेशा गांधी परिवार के रुप में आलाकमान की आजीवन वफादारी का राग अलापने वाले अशोक गहलोत ने कैसे सोनिया गांधी के दूत बनकर जयपुर पहुंचे मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को बैरंग लौटा दिया था।
उससे पहले 11 जुलाई 2020 को सचिन पायलट भी आलाकमान को आंख दिखा चुके हैं, जब उन्होंने अपनी ही पार्टी की सरकार से बगावत करके अपने मन की भावनाओं का इजहार किया था। हालांकि, बाद में गांधी परिवार की लाड़ली प्रियंका गांधी के कहने पर सचिन पायलट के कैंप ने अशोक गहलोत सरकार को अपना समर्थन देकर सरकार गिराने से बचाने का काम भी किया था। कहा जाता है कि तब उनसे जल्द ही सीएम बनाने का वादा किया गया था, जिसको आज दिन तक पूरा नहीं किया जा सका है। बीच बीच में अशोक गहलोत के द्वारा बार बार सचिन पायलट को पार्टी का गद्दार करना भी इस बात का पक्का सबूत है कि वह पायलट को पार्टी देखना ही नहीं चाहते हैं।
इस बीच एक दिन पहले जब अशोक गहलोत ने कहा कि समय सबकुछ ठीक कर देता है, उससे ऐसा लग रहा है कि अशोक गहलोत ने अब आलाकमान के कहे अनुसार सचिन पायलट के साथ सुलह कर जल्द सत्ता छोड़ने और अगले साल होने वाले चुनाव की मिलकर तैयारी करने के संकेत भी दे दिये हैं। यह भी माना जा रहा है कि इस यात्रा के बीच में भी राज्य में सत्ता परिवर्तन किया जा सकता है, ताकि यह दिखाया जा सके कि राहुल गांधी काफी पावरफुल नेता हैं, जो जब चाहे, तब कांग्रेस की सरकारों को बदल सकते हैं। समय काफी कम बचा है और राज्य में हाल ही प्रभारी बनाये गये सुखविंदर सिंह रंधावा ने कहा है कि पार्टी कोई भी कड़ा फैसला ले सकती है, वह सभी को मानना होगा, चाहे वह कितना भी बड़ा नेता क्यों ना हो। यह इस बात के ही संकेत हैं कि अशोक गहलोत को इशारा मिल चुका है कि आपको कभी इस्तीफा देने का आदेश दिया जा सकता है।
मजेदार बात यह है कि राजस्थान के इतिहास में आज तक इतनी बड़ी लड़ाई कभी नहीं चली, और ना ही इतनी असमंजश की स्थिति रही। साल 2018 में सरकार गठन के दिन से ही यह चर्चा शुरू हो गई थी कि कितनी दिन तक अशोक गहलोत मुख्यमंत्री पद पर रहेंगे। जानाकारों का कहना है कि तभी अशोक गहलोत को टारगेट दे दिया गया था। उनको लोकसभा में कम से कम 13 सीट जीतने का लक्ष्य दिया गया था, लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी बुरी तरह से हारी और दूसरी बार पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। इसी लोकसभा चुनाव परिणाम के साथ ही सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना दावा जता दिया था, जिसका परिणाम 11 जुलाई 2020 को उनकी बगावत के साथ सामने आई।
अब सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस आलाकमान हिमाचल की तरह राजस्थान में भी कोई बड़ा निर्णय लेने की क्षमता रखता है? क्योंकि हिमाचल में कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत है, तो राजस्थान में भी अशोक गहलोत सरकार बहुमत में है। किंतु प्रश्न यह है कि यदि अब सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो क्या बहुमत रह पायेगा। क्योंकि इस बात की खूब चर्चा है कि सचिन पायलट को सीएम नहीं बनाया तो एक बार फिर से बगावत के सुर फूट पड़ेंगे। और संभावना यह भी है कि अशोक गहलोत को हटाया गया तो वह भी सचिन पायलट की सरकार नहीं चलने देंगे। ऐसे में कांग्रेस आलाकमान की अग्निपरीक्षा का समय अब शुरू हो रहा है। अब देखना यह होगा कि गांधी परिवार और खड़गे इस परीक्षा में पास होते हैं, या फैल?
दूधिया के बेटे पायलट के साथ भी कांग्रेस करेगी न्याय?
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