Ram Gopal Jat
गुजरात में तीन दिन बाद विधानसभा के लिये मतदान होने वाला है। गुजरात को उत्तर—दक्षिण में बांटकर देखें तो दक्षिण गुजरात की 89 सीटों पर एक दिसंबर को मतदान किया जायेगा। इसके बाद उत्तरी गुजरात की बची हुई 93 सीटों पर 5 दिसंबर को वोटिंग होगी। दोनों ही जगह का परिणाम 8 दिसंबर को मतगणना के साथ घोषित किया जायेगा। गुजरात में चुनाव पर पूरे देश की नजरे हैं। हालांकि, कुछ सियासी लोगों का मानना है कि यहां पर भाजपा सत्ता में छठी बार रिपीट हो रही है और इसलिये दूसरे दलों के लिये यहां करने को कुछ अधिक बचा नहीं है। शायद यही वजह है कि कांग्रेस यहां पर फोकस ही नहीं कर रही है। गुजरात चुनाव से अधिक फोकस तो कांग्रेसजनों का राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर है, जो कन्याकुमारी से कश्मीर की पैदल यात्रा कर भारत जोड़ने का दावा कर रहे हैं।
दिल्ली जैसे अर्द राज्य से जन्मी आम आदमी पार्टी यहां पर दूसरी बार मैदान में है, लेकिन उसके पास कांग्रेस का वोट काटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। भाजपा के वोट में घुसना उसके लिये असंभव नजर आ रहा है। असदुद्दीन ओवैशी और दूसरे दल भी कुछ जगह पर चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन उनके पास पाने को अधिक कुछ नहीं है। आदिवासियों के नाम पर बनी बीटीपी और बीएपी का भी गुजरात की कुछ ही सीटों पर असर है।
बावजूद इसके भाजपा इतनी चिंतित है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बार बार गुजरात में यात्रा करनी पड़ रही है। गृहमंत्री अमित शाह को अपने तीखे भाषण देने पड़ रहे हैं। उनको यह बोलने पड़ रहा है कि 2002 में ऐसा उपचार किया गया था कि दंगा करने वाले गुजरात छोड़कर भाग गये हैं। 20 साल बाद भी अमित शाह को यह याद दिलाना पड़ रहा है कि मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुये यहां पर दंगे हुये थे और उन दंगों में उपद्रवियों का जमकर इलाज किया गया था। हालांकि, लोग इस बयान को एक वर्ग विशेष के खिलाफ ही मानते हैं, लेकिन उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया है।
दरअसल, उस दंगे के करीब दो साल बाद, 2004 में सत्ता में आई कांग्रेस की यूपीए सरकार ने मोदी को फंसाने के लिये कई हथकंड़े अपनाये थे, यह बात कई जांचों और फैसलों में साफ हो गई है। नये नये संगठन और एनजीओ बनाकर मोदी के खिलाफ षड्यंत्र रचे गये थे, जिससे उनको जेल भेज दिया जाये और कांग्रेस को सत्ता मिल जाये। जबकि मोदी ने उसी को हथियार बनाकर अपना राजनीतिक कॅरियर परवान चढ़ा लिया।
इस समय उन दंगों को याद करना इसलिये भी जरुरी हो जाता है, क्योंकि उनके ठीक बाद हुये चुनाव में भाजपा ने अब तक की सबसे अधिक, 127 सीटों पर जीत दर्ज की थी। साल 1995 से अब तक कांग्रेस को सत्ता नहीं मिली है। भाजपा 27 साल से शासन में है और पिछली बार की तुलना में इस बार अधिक सीटें जीतने की संभावना बताई जा रही है। जिन क्षेत्रों में भाजपा कमजोर पड़ रही है, वहां के लिये अलग तरह का प्लान बनाया गया है। पिछले दिनों मोरबी में पुल टूटने से करीब 141 लोगों की मौत का मुद्दा भी इस चुनाव में कहीं नजर नहीं आ रहा है। मानो लोगों ने मौत के उस तांड़व को हादसा मानकर भुला ही दिया है।
हालांकि, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में एक साथ चुनाव होने थे, लेकिन चुनाव आयोग ने दोनों की तारीखें अलग अलग रखीं, जिसको लेकर भी विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग वही करता है, जो भाजपा चाहती है। जब यह बताया गया कि 8 दिसंबर को ही हिमाचल प्रदेश और गुजरात के नतीजे आयेंगे, तो विपक्ष के आरोप काफी हद तक सही भी लगते हैं। विपक्ष ने कहा कि जब मतगणना एक साथ हो सकती है, तो चुनाव अलग अलग क्यों करवाये गये हैं।
इसी दौरान दिल्ली एमसीडी के चुनाव भी आयोजित करवाने का ऐलान कर दिया गया है। चुनाव आयोग के इस निर्णय को भी भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला बताया गया है।
यह बात इसलिये भी सही लगती है, क्योंकि चुनाव आयोग ने करीब छह महीनों पहले ही एमसीडी के चुनाव निरस्त कर दिये थे, जबकि अब गुजरात चुनाव के बीच में ही 4 दिसंबर को एमसीडी की 250 सीटों पर मतदान होगा। यहां पर 2017 के चुनाव में भाजपा ने 181 सीटों पर जीत दर्ज की थी, जबकि उससे पहले साल 2012 में 138 सीटें जीती थीं। इस बार परिसीमन के बाद सीटों की संख्या 22 कम हुई है। इससे पहले 272 सीटें थीं। आम आदमी पार्टी का आरोप है कि भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिये ऐसा किया गया है।
दरअसल, जब गुजरात में आम आदमी पार्टी यह कह रही थी कि वह सत्ता में आयेगी, उसी दौरान एमसीडी के चुनाव करवाया जाना सवाल तो उठाता है। भले ही आम आदमी पार्टी गुजरात में चार सीटों जीत नहीं पाये, लेकिन राजनीतिज्ञों का मानना है कि इस छोटी पार्टी को दिल्ली में व्यस्त करने के लिये ही इस दौरान एमसीडी चुनाव का ऐलान किया गया है।
मजेदार बात यह है कि गुजरात में कांग्रेस से ज्यादा आम आदमी पार्टी की चर्चा हो रही है, जो कांग्रेस पांच साल पहले 2017 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूरी भाजपा के पसीने छुड़ा चुकी है, उसने इस बार हथियार डाल दिये हैं। उसके पास केवल अशोक गहलोत ही सबसे बड़े नेता दिखाई दे रहे हैं, जो खुद राजस्थान में अपनी कुर्सी बचाने के लिये सचिन पायलट के साथ संघर्ष में उलझे हुये हैं।
प्रभारी के तौर पर रघु शर्मा केवल खानापूर्ति से अधिक कुछ भी नहीं हैं, कांग्रेस गुजरात के अध्यक्ष को लोग ठीक से जानते तक नहीं हैं। उपर से कांग्रेस की टॉप लीडरशिप में राहुल गांधी ने एक दिन में दो रैलियों को संबोधित किया है। सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा यहां आना ही नहीं चाहती हैं। हाल ही में अध्यक्ष बनाये गये 80 साल के मल्लिकार्जुन खड़गे का खड़ग यहां पर किसी काम का दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस केवल भाजपा से नाराजगी और अपने उम्मीदवारों के चमत्कार को ही जीत का सूत्रधार मान रही है।
इसका फायदा आम आदमी पार्टी को हो रहा था, लेकिन उसको भी एमसीडी चुनाव में उलझा दिया गया है। उसके नेताओं का लक्ष्य गुजरात विधानसभा चुनाव से कहीं अधिक एमसीडी चुनाव जीतना है, जहां पर विधायकों से महंगे टिकट बेचे जा रहे हैं। भाजपा को लगता है कि दिल्ली में वह जीत या हारे, लेकिन गुजरात में किसी सूरत में जीत बड़ी हासिल करनी है।
कहा जा रहा है कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा को लक्ष्य दिया है कि यहां पर अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करनी है। यानी पार्टी 127 से भी अधिक सीटों पर जीतना चाहती है। हालांकि, विपक्षी दलों की हालत देखकर यही लगता है कि भाजपा 125 से 135 तक सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है, जो पार्टी की अब तक की सबसे बड़ी जीत होगी।
मोटे तौर पर देखा जाये तो विपक्षी दल चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हैं कि वह भाजपा को फायदा पहुंचाता है, लेकिन जब आप हिमाचल प्रदेश, गुजरात और दिल्ली एमसीडी चुनाव की तारीखों का मूल्यांकन करोगे, तो साफतौर पर आरोप काफी हद तक सही नजर आते हैं। चुनाव आयोग की ऐसी क्या मजबूरी थी कि हिमाचल और गुजरात में चुनाव साथ साथ नहीं करवाये गये? किस वजह से अचानक दिल्ली में एमसीडी चुनाव गुजरात विधानसभा चुनाव के बीच में घोषित कर दिये गये?
जब इनकी तारीखों को लेकर विपक्ष आरोप लगाता है, और भाजपा की गुजरात में चुनाव प्रचार की ताकत को देखा जाता है तो यह प्रतीत होता है कि भाजपा के लिये हिमाचल और दिल्ली में एमसीडी चुनाव से कहीं अधिक गुजरात का विधानसभा चुनाव महत्व रखता है।
अब सवाल यह उठता है कि भाजपा हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में एमसीडी चुनाव से अधिक गुजरात वाले चुनाव को महत्व दे रही है? अगर चुनावी स्तर के हिसाब से बात करें तो हिमाचल और गुजरात, दोनों ही जगह विधानसभा के लिये चुनाव हो रहे हैं। यदि एमसीडी चुनाव की तारीखों की बात करें तो जब चुनाव पहले ही करीब 6 माह देरी से करवाये गये हैं, तो एक महीना और देरी से करवाये जा सकते थे, इसमें कौनसा पहाड टूट रहा था? असल बात यह है कि बीते 10 साल से भाजपा दिल्ली नगर निगम पर राज कर रही है। उससे पहले कांग्रेस का शासन था। इन 10 सालों में दिल्ली की सरकार आम आदमी पार्टी के पास है, जबकि इस बार एमसीडी में भी आम आदमी पार्टी को बहुमत मिलता दिखाई दे रहा है। इसलिये भाजपा के लिये एमसीडी का चुनाव कम महत्व का हो गया है।
दिल्ली में एमसीडी का चुनाव जितना आम आदमी पार्टी के लिये जरुरी है, उससे कहीं अधिक भाजपा के लिये गुजरात चुनाव है। यदि दोनों चुनाव अलग अलग समय पर होते, तो आम आदमी पार्टी को गुजरात में भी चुनाव प्रचार का अवसर मिल जाता, जो भाजपा कतई पसंद नहीं करती। इसी तरह से एमसीडी के लिये प्रचार का भी अधिक समय मिलता, जिससे भी आम आदमी पार्टी को लाभ हो सकता था।
हिमाचल प्रदेश में राजस्थान की तरह हर पांच साल में सत्ता बदलने का ट्रेंड चल रहा है। यहां पर यदि भाजपा कुछ सीटों के नुकसान के साथ भी सत्ता में लौट आती है, तो भी कोई दिक्कत नहीं है। यहां यदि भाजपा प्रचंड़ बहुमत से भी जीत जाती है, तो भी देश में कोई मैसेज नहीं जायेगा। इस वजह से हिमाचल प्रदेश का चुनाव भाजपा के लिये उतना खास नहीं है, जितना गुजरात का चुनावी रण जीतना है।
दरअसज, गुजरात वह जगह है, जहां से मोदी और अमित शाह का ना केवल जन्म हुआ है, बल्कि दोनों ने अपनी राजनीतिक पारी को शुरू करके परवान चढ़ाया है। दोनों का साथ भी उतना ही पुराना है, जितनी भाजपा की उम्र है। संघ में काम करते हुये दोनों इतने गहरे मित्र बने, कि फिर कभी अलग ही नहीं हुये। राजनीति में ऐसी वफादारी की उम्मीद इस जमाने में करना भी कोरी कल्पना ही है। आज तक कभी किसी ने यह नहीं सुना कि अमित शाह ने नरेंद्र मोदी से एक कदम भी आगे निकलने की कोशिश भी दिखाई हो।
ऐसा किस्सा किसी ने इनको लेकर नहीं सुना होगा, कि अमित शाह ने नरेंद्र मोदी की किसी भी बात को अनसुना किया हो। संभवत: इस युग में ऐसा गहरा रिश्ता कहीं सगे भाईयों के बीच भी नहीं होगा, जितनी वफादारी का रिश्ता मोदी और अमित शाह के बीच है। राम और लक्ष्मण की जोड़ी के समान, जब भी भारत की राजनीति की बात आयेगी, तो इस जोड़ी को भी उतनी ही शिद्दत से याद किया जायेगा।
नरेंद्र मोदी चार बार गुजरात के मुख्यंत्री रहे, इस दौरान अमित शाह भी गृहमंत्री रहे, और गुजरात भाजपा के अध्यक्ष रहे। एक मामले में जब अमित शाह पर संकट आया और उनको जेल जाना पड़ा, तब नरेंद्र मोदी भी चैन से नहीं बैठे। जब मोदी को दंगों की जांच का सामना करना पड़ा, तब अमित शाह कंधे से कंध मिलाकर साथ खड़े रहे और जब उनको सुप्रीम कोर्ट की एसआईटी से बरी किया गया, तब मोदी के अलावा सबसे अधिक खुश होने वाले अमित शाह ही थे।
जब नरेंद्र मोदी पहली बार भारत के प्रधानंत्री बने, तो अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया और जब मोदी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने, तो अमित शाह देश के गृहमंत्री बने हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि दोनों के बीच कितनी गहरी वफादारी का रिश्ता है।
असल में गुजरात का महत्व इसी से समझ आ जाता है कि यह राज्य मोदी और अमित शाह का गृह राज्य है। साल 2014 में मोदी और शाह गुजरात छोड़कर देश की सत्ता पर भले ही छा गये हों, लेकिन इन्होंने कभी गुजरात को भूलने या उसको पीछे छोड़ देने की नहीं सोची। दोनों नेताओं ने कभी भी अपनी जमीन को नहीं छोड़ा। चाहे 2017 का विधानसभा चुनाव हो, या 2022 का हो। यही वजह है कि गुजरात का चुनाव देश के आम चुनाव से पहले का सेमीफाइल कहा जाता है।
इसी राज्य की जीत और हार से देश में यह संदेश जायेगा कि मोदी अगला चुनाव कितनी सीटों से जीतने वाले हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने यहां पर खूब मेहनत की थी। साथ ही पाटीदार आंदोलन, ओबीसी आरक्षण आंदोलन और दलित आंदोलन के कारण भाजपा के पसीने छूट गये थे। हालांकि, मोदी का गुजरात का बेटा हूं वाला कार्ड चला और अंतत: सत्ता भाजपा के पास ही रही।
इस बार पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, ओबीसी आरक्षण वाले अल्पेश ठाकोर भाजपा के प्रत्याशी हैं, तो दलित आंदोलन के अगुवा जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस के उम्मीदर हैं। तीनों ही नेता पिछली बार निर्दलीय होने के कारण सत्ताधारी दल के लिये बेहद मुश्किलें पैदा कर रहे थे। इस बार तीनों ने अपना—अपना ठिकाना ढूंढ लिया है और इसके साथ ही उनके समर्थकों ने भी पार्टियां पकड़ ली हैं। यही वजह है कि कांग्रेस को इस बार किसी तीसरे पक्ष का परोक्ष फायदा भी नहीं मिलेगा, जबकि उसके वोट में सेंधमारी करने का काम करेगी आम आदमी पार्टी।
दरअसल, अमित शाह के लिये यह चुनाव प्रधानमंत्री बनने के रास्ते खोल सकता है, तो नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाने में इस चुनाव का सबसे बड़ा रोल रहने वाला है। भले ही सत्ता तक पहुंचने के लिये उत्तर प्रदेश जीतना जरुरी हो, लेकिन गुजरात से मोदी और अमित शाह की जीत का संदेश ही उत्तर प्रदेश में जीत के रास्ते खोलेगा। भाजपा अगर यह चुनाव जीत जाती है, तो यहां पर भाजपा को सत्ता में 32 साल पुख्ता हो जायेंगे, जो अपने आप में राज्यों के लिहाज से एक रिकॉर्ड भी होगा, जबकि इस जीत से नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को चार चांद लगने वाले हैं।
हमेशा की तरह अमित शाह मोदी के पीछे पीछे चल रहे हैं, लेकिन इस चुनाव के कारण ही वह अन्य सभी नेताओं से आगे रहेंगे। इस जीत को लेकर भाजपा पूरे देश में जायेगी, जैसे 2014 में जा चुकी है। संभवत: नरेंद्र मोदी के लिये 2024 का चुनाव आखिरी हो सकता है। ऐसे में उस आखिरी पारी से पहले वह अपनी सेमीफाइनल पारी का भी बेहतरीन ढंग से अंत करना चाहेंगे। साथ ही अपने वफादार साथी, अमित शाह की सियासत को आगे बढ़ाने के लिये भी वह इस आखिरी पारी को नई उंचाइयां देना चाहते हैं।
यह चुनाव भारत की तकदीर का भी सेमीफाइनल होगा। इसी चुनाव परिणाम के बाद आम चुनाव की तस्वीर साफ होगी, तो उस जीत के बाद विकास और राष्ट्रवाद के रथ पर सवार देश का आगे का मार्ग भी प्रशस्त होगा। यही वजह है कि पूरे देश की निगाहें गुजरात के चुनाव पर हैं। इस वक्त मानों गुजरात ही देश की राजधानी हो गया है, जहां पर राजनेताओं से लेकर अधिकारी और सटोरिये कारोबारियों से लेकर मीडियाकर्मी यहीं पर डेरा डाले हुये हैं।
मोदी को तीसरी और अमित शाह का पहली बार प्रधानमंत्री बनायेगा गुजरात
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