Ram Gopal Jat
काशी विश्वनाथ मंदिर के पास ही स्थित ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में गौरी श्रंगार मंदिर और गणेश मंदिर के अलावा हनुमान मंदिर पर पूजा अर्चना के लिये चल रहे केस में वाराणसी कोर्ट ने मामला सुनने योग्य बताकर देश को एक नया मुद्दा दे दिया है। हालांकि, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक के द्वार इसके खिलाफ सुनवाई के लिये खुले हैं, लेकिन जिस 1991 के पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को लेकर मुस्लिम पक्ष कोर्ट को दलीलें दे रहा है, उनको नहीं मानना कहीं ना कहीं इस बात का संकेत है कि इस एक्ट को अभी तक भी गलत ढंग से परिभाषित किया जाता रहा है। कोर्ट के इस निर्णय से ना केवल काशी विश्वनाथ में बनी ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर सुनवाई के बाद एतिहासिक फैसले की संभावना पैदा हो गई है, बल्कि साथ ही मथुर की ज्ञानवापी मस्जिद पर भी सुनवाई होने और उसकी पुरात्व विभाग द्वारा जांच किये जाने का रास्ता साफ हो गया है, जहां पर मंदिर तोड़कर औरंजेब ने मस्जिद बना दी थी। वैसे तो देश में जहां पर भी मंदिर और मस्जिद का विवाद हुआ है, वह अधिकांश औरंगजेब के ही कारनामे हैं, लेकिन राम मंदिर को छोड़कर साल 1991 के वक्त संसद द्वारा बनाये गये वर्शिप एक्ट की भी समीक्षा करने का समय आ गया है।
मामला भले ही धार्मिक हो, लेकिन जिस तरह से समीकरण बन रहे हैं, उससे ऐसा लग रहा है कि साल 2024 के आम चुनाव में एक बार फिर से मंदिर—मस्जिद का मामला चुनावी हो सकता है। बीते करीब 30 साल से भाजपा और आरएसएस राम मंदिर को लेकर आंदोलन कर रहे थे, उनका हमेशा चुनावी मुद्दा भी रहता था, लेकिन जब साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या पर निर्णय सुनाया, तब लगा था कि अब शायद देश में मंदिर—मस्जिद की लड़ाई नहीं होगी और इस बात पर मुहर तब लगी, तब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि संघ अब मंदिर आंदोलन नहीं करेगा। किंतु इसी साल काशी में गौरी श्रंगार, गणेश मंदिर और हनुमान मंदिर पर पूजा करने की आज्ञा के लिये महिलाओं के एक समूह के कोर्ट जाने के बाद मंदिर मामला फिर से जिंदा हो गया है। इस बार भले अयोध्या का नहीं हो, लेकिन काशी विश्वनाथ में मंदिर आंदोलन एक जन आंदोलन बनता नजर आ रहा है, फिर भी हिंदू समुदाय पूरी तरह से कोर्ट के आदेशों पर चलने का मन बना रहा है। इस बार हिंदुओं ने कोर्ट के माध्यम से आंदोलन करने रास्ता अपनाया है, जो ना केवल देशहित में है, बल्कि शांतिपूर्ण भी है।
फिलहाल इस लड़ाई का अंत तो कोर्ट के माध्यम से ही होगा, लेकिन चुनावी साल के ठीक दो साल पहले शुरू हुआ यह विवाद 2024 में राजनीतिक दलों के लिये प्रमुख मुद्दा होगा। इधर, राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा कर रहे हैं, तो विवाद उनका साथ नहीं छोड़ रहे हैं। राहुल गांधी का कम्यूनिस्टों ने केरल में विरोध किया है, तो संघ की पुरानी वेशभूषा में शामिल नेकर को जलता हुआ सोशल मीडिया पर शेयर कर विवाद पैदा कर दिया है। सोशल मीडिया पर भाजपा और संघ के लोगों ने राहुल गांधी और कांग्रेस को आडे हाथों ले लिया है। राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर की यात्रा कर रहे हैं। इस बीच यह भी सामने आया है कि वह अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ने वाले हैं। शायद अशोक गहलोत को भी सोनिया गांधी ने साफ कह दिया है कि उनको ही अध्यक्ष बनना है, इसलिये अशोक गहलोत ने भी कांग्रेस के अपने समर्थकों को कहा है कि चाहे कोई भी भूमिका हो, लेकिन वह राजस्थान को नहीं भूलेंगे। इसका मतलब यही होता है कि उनका मन अध्यक्ष और मुख्मयंत्री दोनों पर बने रहने का है।
दूसरी ओर जब 2024 के चुनाव से ठीक पहले भाजपा राम मंदिर का उद्घाटन कर इस मुद्दे को भुनाना चाहती है, तो साथ ही संघ से जुड़े लोगों ने काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुर की ज्ञानवापी मस्जिद का मामला भी कोर्ट में ले जाकर नया मुद्दा छेड़ दिया है। अब आप इन मुद्दों से समझिये कि कैसे भाजपा को फायदा हो सकता है? असल में भाजपा का जन्म ही मंदिर आंदोलन से हुआ था, ऐसे में देश में एक धारणा बन चुकी है कि भाजपा हिंदुओं की पार्टी है और मंदिर निर्माण का काम केवल भाजपा ही करवा सकती है। जब अयोध्या का मामला सुलझा तो देश को एक नई उर्जा मिल गई। अब काशी विश्वनाथ और मथुर मंदिर के मामले में भी लोगों को यही लगता है कि भाजपा यदि सत्ता में रही तो इनको भी सुलझा लेगी। उपर से उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मोर्य के द्वारा यह कहना कि अब काशी—मथुरा की बारी है, यह इस बात का संकेत है कि भाजपा के अंदर क्या चल रहा है।
जिस बात का सहारा लेकर मुस्लिम पक्ष दलीलें देता रहा है, वह है 1991 का वर्शिप एक्ट, जो कहता है कि 15 अगस्त 1947 के वक्त जो धार्मिक समूह जहां पर काबिज था, वहीं पर रहेगा। इसका मतलब यह है कि उसके बाद किसी में कोई बदलाव नहीं किया जायेगा। इस हिसाब से काशी और मथुरा की ज्ञानवापी मस्जिदों पर हिंदू पक्ष कभी दावा नहीं कर सकता, लेकिन वाराणसी कोर्ट ने कहा है कि हिंदू ज्ञानवापी में हक नहीं जता रहे हैं, बल्कि गौरी श्रंगार मंदिर में पूजा अर्चना करने की अनुमति मांग रहे हैं, जो 1993 तक करते आये हैं। इसी बात को कोर्ट ने स्वीकार करते हुये सबूतों के साथ 22 सितंबर को फिर से सुनवाई करने का समय तय किया है।
इन दोनों मंदिरों का मामला जितना असान दिखाई देता है, उतना है नहीं। पहले आप इस बात को समझ लीजिये कि 1991 का वर्शिप एक्ट क्या है? प्लेसेस ऑफ वर्शिप अधिनियम सन् 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार के दौरान लागू किया गया था। इस एक्ट के अनुसार 15 अगस्त 1947 यानी आजादी से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। इस एक्ट में कहा गया है कि अगर कोई इस एक्ट के नियमों का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो तीन साल तक की जेल हो सकती है, साथ ही जुर्माना भी लगाया जा सकता है।
वर्ष 1991 में बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था। उस समय देश में रथयात्रा निकाली जा रही थी। इससे पहले 1984 में एक धर्म संसद के दौरान अयोध्या, मथुरा, काशी पर दावा करने की मांग की गई थी। साल 1991 में अयोध्या के साथ ही कई अन्य मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगे। दबाव में आने के बाद सरकार ये कानून लेकर आयी।
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 सभी धर्मों के लिए समान रूप से काम करता है। इस कानून में बताया गया है कि कोई भी व्यक्ति धार्मिक स्थलों में किसी भी तरह का ढांचागत बदलाव नहीं कर सकता। अगर ये सिद्ध भी हो जाए कि वर्तमान में मौजूद धार्मिक स्थल पूर्व में किसी दूसरे धार्मिक स्थल को तोड़कर बनाया गया था, तो भी उसे न तो तोड़ा जाएगा और न ही नया निर्माण किया जाएगा, यानी उसके वर्तमान स्वरूप को चेंज नहीं किया जा सकता। हालांकि, इस कानून से अयोध्या विवाद को दूर रखा गया था। इसको लेकर ये तर्क दिया गया था कि अयोध्या का मामला अंग्रेजों के समय से कोर्ट में था।
असल बात यह है कि यह कानून उस वक्त एक समुदाय विशेष के दबाव में वोटबैंक की राजनीति करने और कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिये बनाया गया था, लेकिन हिंदू पक्ष का हमेशा दावा रहा है कि जो अधिकार उनको गुलामी के समय नहीं मिले थे, वो देश के स्वतंत्र होने पर मिलने की उम्मीद थी और तमाम जो मंदिर मुगलों के द्वारा ढहाये गये थे, उनको वापस खड़ा करने की आशा थी, वह इस एक्ट के कारण सपना बनकर रह गई। अब वक्त आ गया है, जब इस एक्ट को खत्म कर पुन: हिंदूओं को उनके मंदिरों की लड़ाई लड़ने का हक मिले। हालांकि, भाजपा की सरकार ने ऐसा कोई वादा नहीं किया है कि इस अधिनियम को खत्म कर दिया जायेगा, लेकिन यदि सबसे बड़ा जनमानस इस बात के पक्ष में खडा हो जाये तो सरकारों को भी सोचने को मजबूर किया जा सकता है।
भारत इंदिरा गांधी के जमाने से पंथ निरपेक्ष देश है, तो दुनियाभर में भारत की साख भी वैसी ही बनी हुई है, लेकिन जब चुनावी मुद्दे कम हो जाते हैं, या उनको भटकाना होता है, तो फिर धार्मिक मुद्दों को हवा देनी पड़ती है। वैसे भी भारत में चुनाव के समय ऐसे ही मामले निकलकर सामने आते हैं, तो विकास को पीछे छोड़ देते हैं। देश की करीब 75 फीसदी हिंदू जनता के मन की बात सुनते हुये यदि भाजपा ने काशी और मथुरा में मस्जिदों की जगह मंदिर बनाने का वादा किया तो एक बार फिर से भाजपा को प्रचंड़ बहुमत मिल सकता है। देश की सरकार धार्मिक मामलों को इस तरह से एक तरफा निस्तारित नहीं कर सकती है, क्योंकि भारत के ना केवल हिंदू धर्म वाले देशों से संबंध हैं, बल्कि मुस्लिम देशों के साथ भी रिश्ते हैं, जो खराब होने का खतरा रहता है।
किसी मुद्दे को उठाने के लिये कई मंच होते हैं, लेकिन जब मामला कोर्ट में चला जाये तो इससे अच्छा मंच हो भी नहीं सकता। इसलिये हिंदू पक्ष का मत यही है कि चाहे काशी हो या मथुर, हर धार्मिक मुद्दे को अदालत के द्वारा ही अमलीजामा पहनाना ठीक रहेगा। संविधान के दायरे में ही देश चले तो कानून और व्यवस्था भी बनी रहती है। वैसे भी काशी में विश्वनाथ कोरिडोर बनाकर मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाने का काम तो कर ही दिया है। मथुर को लेकर जिस तरह से योगी आदित्यनाथ ही यात्राएं होती हैं, उससे ऐसा लगता है कि ये दोनों मंदिर योगी आदित्यनाथ के प्रधानमंत्री बनने पर ही सुलझेंगे। लेकिन इनकी शुरुआत हो चुकी है, जो 2024 के आम चुनाव में चरम पर होंगे।
विपक्ष का जोरदार बिखराव और भाजपा के पास मुद्दों की भरमार यही कहती है कि आने वाले कई बरसों तक अभी भी भाजपा सत्ता से बाहर नहीं होने वाली है। इस दौरान देश के उन सभी विवादित धर्म स्थलों का पुनर्निमाण होगा, जो बरसों से लंबित चल रहे हैं। भाजपा की मोदी सरकार को लेकर कहा जा रहा है कि यह सरकार अब हिंदुत्व के मुद्दे से भटक चुकी है, लेकिन असल बात यह है कि सरकार विकास और धर्म, दोनों को साथ लेकर चल रही है।
2024 से पहले काशी विश्वनाथ और मथुरा में मंदिर निर्माण का रास्ता साफ होगा?
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