अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने क्वाड शिखर सम्मेलन से पहले चीन को चेतावनी देते हुए साफ कहा कि अगर चीन ताइवान पर आक्रमण करता है तो अमेरिका उसके खिलाफ सैन्य कार्रवाई करेगा। बाइडन के बयान से साफ हो जाता है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद अमेरिका ताइवान की सुरक्षा करने को तैयार है। अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा दिये गये बयान के बाद दुनिया की राजनीति में हलचल मच गई है, क्योंकि बीते कई दशकों में किसी देश के समर्थन में इस तरह का शक्तिशाली देखने को नहीं मिला था। बीते कई दशकों में अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर बाइडन का बयान सबसे मजबूत कहा जा रहा है। सोमवार को टोक्यो में एक संवाददाता सम्मेलन में एक सवाल पर उन्होंने कहा कि अमेरिका ने इसकी कसम खाई है कि यदि चीन ताइवान पर हमला करता है तो अमेरिका बीच में आयेगा और चीन के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करेगा।
हालांकि, अमेरिका के साथ ताइवान की रक्षा संधि नहीं है। इसके बाद भी इस तरह का बयान देना बेहद चौंकाने वाला है। असल में ताइवान 1979 से ही स्वतंत्र देश है, लेकिन चीन उसको अपना द्वीप मानता है और यही सबसे बड़ी वजह है, जो चीन को ताइवान पर हमला करने को उकसाती रहती है। बीते कई सालों से वह ताइवान को डराने के लिए समुद्र में उसके आसपास सैन्य अभ्यास करता रहता है। अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान पर चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है और कहा कि संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के मामले में चीन किसी भी कीमत पर समझौता नहीं करेगा। दुनिया के दो सबसे शक्तिशाली देशों के बीच इस तरह के बयान से दुनिया सकते में आ गई है, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो तीसरा विश्वयुद्ध होने से कोई नहीं रोक पाएगा।
अमेरिका ने साफ कहा है कि चीन यह नहीं समझे कि रूस के द्वारा यूक्रेन पर हमला किया गया है, उसकी कीमत उसको भुगतनी होगी, बल्कि रूस को इसकी लंबे समय तक कीमत चुकानी है। हालांकि, अमेरिका ने यूक्रेन की सहायता के लिए सैन्य मदद नहीं की है, लेकिन अरबों डॉलर के हथियार देकर परोक्ष रुप से उसका साथ दे रहा है। इसलिए चीन भी यह मान रहा था कि यदि ताइवान पर वह हमला करता है तो अमेरिका बीच में नहीं आएगा। यही कारण है कि अमरिका ने साफ कर दिया है कि चीन यह नहीं समझे कि उसके खिलाफ भी कोई सैन्य कार्रवाई नहीं की जाएगी।
असल में चीन पिछले कई वर्षों में लोकतांत्रिक ताइवान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई जैसे कृत्य करता रहा है, जिसका उद्देश्य उसे चीन का अधिपत्य स्वीकार करने की कोशिश है। चीन पहले से ही ताइवान के करीब से उड़ान भरकर और युद्धाभ्यास करके छेड़खानी करने के प्रयास करता रहा है। अमेरिका बीजिंग को चीन की सरकार के रूप में मान्यता देता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह ताइवान के कार्रवाही करेगा तो भी अमेरिका चुप बैठा रहेगा। ताइवान में अमेरिका राजदूत नहीं है, लेकिन उसके राजनीयिक संबंध हैं और इस खूबसूरत द्वीप की रक्षा के लिए सैन्य उपकरणों की आपूर्ति करता रहता है। चीन ताइवान को बलपूर्वक जब्त करने की कोशिश नहीं करेगा, लेकिन वह यह सोच रहा है कि रूस के खिलाफ ही अमेरिका ने कोई कार्रवाही नहीं की है, तो वह गहतफहमी नहीं रखे, क्योंकि यहां पर अमेरिका अपना रक्षा बेडा भेजकर सख्त कदम उठाएगा।
असल में रूस यूक्रेन युद्ध में परमाणु युद्ध के डर से अमेरिका ने रूस के खिलाफ कार्रवाही नहीं की है, किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि चीन के खिलाफ भी कार्रवाही नहीं होगी। अमेरिका ने रूस से मुकाबला करने के लिए यूक्रेन को अरबों डॉलर के अत्याधुनिक हथियार दिये हैं। अमेरिका के इस बयान पर ताइवान ने आभार जताया है कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता जोआन ओ ने इसका "ईमानदारी से स्वागत और आभार" व्यक्त किया। अमेरिका व जापान हमेशा चीन की विस्तारवादी नीति को जवाब देने के लिए ताइवान की सुरक्षा के लिए खड़े रहते हैं।
यह पहली बार नहीं है जब बाइडेन ने चीनी हमले के खिलाफ ताइवान की रक्षा करने का संकल्प लिया है, बल्कि पिछले साल अक्टूबर में सीएनएन टाउन हॉल में बाइडेन से ताइवान की रक्षा के लिए अमेरिकी सेना का उपयोग करने के बारे में पूछा गया था, तब भी उन्होंने यही कहा था कि ताइवान की सुरक्षा करना हमारी प्रतिबद्धता है। हालांकि, ऐसा पहली बार कहा है कि सैन्य कार्रवाही की जाएगी। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने रविवार को पुष्टि की थी कि ताइवान इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क के लिए साइन की गई सरकारों में से नहीं है, जिसका उद्देश्य अमेरिका को आपूर्ति श्रृंखला, डिजिटल व्यापार जैसे मुद्दों पर प्रमुख एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, स्वच्छ ऊर्जा और भ्रष्टाचार विरोधी के साथ मिलकर काम करने की अनुमति देना है। सुलिवन ने कहा कि अमेरिका ताइवान के साथ अपनी द्विपक्षीय आर्थिक साझेदारी को और गहरा करना चाहता है।
अमेरिका का यह बयान इसलिए भी काफी मायने रखता है, क्योंकि पिछले कुछ समय से चीन भी रूस की तरह ताइवान पर हमला कर उसको अपने में मिलाने की योजना बना रहा था। हालांकि, क्वाड शिखर सम्मेलन से ठीक पहले अमेरिका के इस बयान के बाद भारत के रुख को लेकर भी सवाल उठेंगे, ऐसे में यह जान लेना जरुरी है कि क्या भारत भी अमेरिका की तरह ताइवान की रक्षा के लिए सैन्य कार्रवाही का हिस्सा बनेगा? इसका जवाब फिलहाल नहीं हो सकता है, क्योंकि भारत व चीन के बीच बहुत बड़े पैमाने पर कारोबारी रिश्ते हैं, जो प्रभावित होते हैं तो भारत की मांग को पूरा करने के लिए विकल्प नहीं हैं। इसलिए आने वाले करीब एक दशक तक चीन के खिलाफ भारत की कार्रवाही नहीं देखने को मिलेगी।
क्वाड शिखर सम्मेलन में इंडो पैसेफिक आर्थिक संधि पर हस्ताक्षर करने जा रहे हैं। इस संधि में क्वाड देशों के अलावा 40 देश और हैं। जिनमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, भारत, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैंड, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम और खुद संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ विश्व सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी का 40% का प्रतिनिधित्व करने वाले देश शामिल हैं। अमेरिका का कहना है कि व्यापार सौदे को प्रतिस्पर्धी आर्थिक क्षेत्र के लिए अमेरिकी समर्पण का संकेत देने और महामारी और रूस के यूक्रेन पर आक्रमण के कारण होने वाले व्यवधानों के बाद वाणिज्य में स्थिरता की आवश्यकता के अनुसार डिज़ाइन किया गया है।
अमेरिका व भारत मिलकर इस क्षेत्र के जरिये चीन को नियंत्रित करना चाहते हैं, इसलिए छोटे देशों को जोड़ा गया है, जो इंडो पैसेफिक रीजन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस संधि के बाद ये सभी देश आपस में कारोबार के स्तर पर एक समान विचाधारा के साथ कम से कम टैक्स या फिर मुक्त व्यापार करने को तैयार हो सकते हैं। अमेरिका इस बहाने ना केवल अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है, बल्कि धीरे धीरे अमेरिका की बराबरी पर आ रहे चीन को भी रोकने के लिए इस तरह के काम कर रहा है।
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