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भारत अमेरिका की मित्रता से किसको होगा सर्वाधिक नुकसान?

Ram Gopal Jat
अमेरिका और चीन जैसी दो सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्तियों में जारी शह और मात के खेल के बीच मंगलवार को क्वाड शिखर सम्मेलन के दौरान टोक्यो में नए आर्थिक मंच इंडो-पैसिफिक इकोनामिक फ्रेमवर्क (आइपीईएफ) के गठन का एलान कर दिया गया है। वहां चार देशों के गठबंधन ‘क्वाड’ की बैठक शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री किशिदा फुमियो की मौजूदगी में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस नए आर्थिक मंच का एलान किया, यह महात्वाकांक्षी मंच अमेरिका के लिए बेहद जरुरी था, लेकिन इसके कारण भारत समेत कई अन्य देशों को भी फायदा हेागा। इस मंच में क्वाड के चार देशों के अलावा 9 दूसरे देश भी हैं। इसमें अमेरिका, भारत, ओस्ट्रेलिया और जापान समेत कुल 13 देश हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में इस मंच के जरिए चीन के खिलाफ अमेरिका अपनी कारोबारी मौजूदगी को मजबूती देगा। इस मंच के गठन को लेकर तर्क दिया जा रहा है कि कोरोना काल में चीन से कारोबारी आपूर्ति बाधित हुई है और उस मजबूरी के समय चीन ने अपनी शर्तें थोपीं, जिसके कारण विश्व के कई देशों को समस्याओं का सामना करना पड़ा। यही वजह है कि पूरी दुनिया इसके लिए सभी पार्टनर देश मिलकर एक ठोस विकल्प तैयार करना चाहते हैं। भारत भी कई बार कह चुका है कि दुनिया को एक भरोसेमंद व्यापारिक आपूर्ति शृंखला की जरूरत है।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर इस मंच की जरुरत क्यों पड़ी? अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पहली बार अक्टूबर 2021 में आइपीईएफ, यानी इंडो पैसेफिक इकॉनोमिक फ्रेमवर्क की अवधारणा का जिक्र करते हुए कहा था कि अमेरिका अपने सहयोगी देशों के साथ इस भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक ढांचे को विकसित करने की कोशिश करेगा। इसके जरिए हम व्यापार की सहूलियतों, डिजिटल करेंसी और तकनीक में मानकीकरण, आपूर्ति शृंखला की मजबूती, कार्बन उत्सर्जन में कटौती और स्वच्छ ऊर्जा से जुड़े कारोबार के अपने साझा लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिश करेंगे। इसे हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की विश्वसनीयता दोबारा बहाल करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा रहा है। किंतु हकिकत यह है कि अमेरिका यहां पर भारत के साथ ही छोटे देशों के साथ मिलकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है।
इससे पहले साल 2017 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका को ‘ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप’ (टीपीपी) से अलग कर लिया था। इसके बाद से इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से असंतुलन की बात उठने लगी थी, अमेरिका इस सबसे बड़े समुद्री क्षेत्र में अपनी पकड़ छोड़ता जा रहा था, क्योंकि चीन टीपीपी का सदस्य है। इसके अलावा चीन, ‘रीजनल काम्प्रिहेन्सिव इकोनामिक पार्टनरशिप’ यानी आरसीईपी का भी सदस्य है। जबकि भारत और अमेरिका दोनों इसके सदस्य नहीं हैं। चीन की बदनियत के कारण भारत ने खुद को आरसीईपी से अलग कर लिया था। अमेरिका का आकलन है कि आरसीईपी के जरिए चीन ने इस क्षेत्र से प्रगाढ़ आर्थिक संबंध बनाकर एक तरह से इस क्षेत्र पर आर्थिक ही नहीं, अपितु समारिक तौर पर भी अपनी पकड़ बना ली है। उसके बाद भारत ने ‘कांम्प्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फार ट्रांसपैसिफिक’ (सीपीटीपीपी) में शामिल होने की इच्छा जाहिर कर दी थी। सीपीटीपीपी में 11 देश शामिल हैं। यह टीपीपी का ही नया संस्करण है।
अमेरिका की पहल पर भारत के अनुकूल नया आर्थिक मंच तो तैयार हो गया, लेकिन इसके नियम और सवाल अभी भी बाकी हैं। तो आइए आपको बतातें कि यह मंच किन नियमों से काम करेगा? आइपीईएफ में शामिल होने वाले देशों को व्यापार, श्रम मानदंडों और पर्यावरण कसौटियों के बारे में नए नियम स्वीकार करने होंगे। विकासशील देशों की नजर में यह आइपीईएफ का नकारात्मक पहलू बना रहेगा। आइईपीएफ में आपूर्ति शृंखला को मजबूत बनाने के नियम शामिल किए गए हैं। यह एक तरह से इस क्षेत्र में कारोबारी तैार आपूर्ति शृंखला से चीन को बाहर करने की योजना है। लेकिन ऐसा होने पर वह आपूर्ति शृंखला भंग हो जाएगी, जिसमें आसियान देश शामिल हैं। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बाइडेन के राष्ट्रपति न रहने के बाद भी अमेरिका इस पहल पर कायम रहेगा? इसी अपेक्षा के आधार पर चीन ने नए इस नये आर्थिक ढांचे की आलोचना की है।
प्रश्न यह उठता है कि सीपीटीपीपी, यानी ‘कांम्प्रिहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फार ट्रांसपैसिफिक’ और आरसीईपी, यानी ‘रीजनल काम्प्रिहेन्सिव इकोनामिक पार्टनरशिप’ से कितना अलग है? कहा जा रहा है कि एशिया के दो कारोबारी मंच सीपीटीपीपी और आरसीईपी के उलट आइपीईएफ में लागत की दरें कम होंगी। इस मंच के तहत अमेरिका आपूर्ति शृंखला की मजबूती और डिजिटल आर्थिकी पर रणनीतिक सहयोग चाहता है। दरअसल, यह एक ऐसा तंत्र है, जिसके तहत अमेरिका सदस्य देशों के साथ कारोबार तो चाहता है, लेकिन खुले व्यापार के नकारात्मक पहलुओं से खुद को बचाना भी चाहता है। खुले व्यापार के नकारात्मक पहलू का एक उदाहरण अमेरिका में नौकरियों की कटौतियों से जुड़ा है। साल 2001 में चीन के डब्ल्यूटीओ में शामिल होने के बाद से अमेरिका के निर्माण उद्योग की नौकरियों में भारी कटौती हुई। ज्यादातर अमेरिकी कंपनियों ने चीन में अपने संयंत्र लगाने शुरू कर दिए थे। इस सेक्टर में बढ़ी बेरोजगारी की वजह से अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप उभरे। ट्रंप ऐसे कारोबारी गठबंधन के खिलाफ थे, इसलिए 2017 में सत्ता में आते ही उन्होंने अमेरिका को टीपीपी से अलग कर लिया था। अब नए मंच को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन ने 21वीं सदी की आर्थिक व्यवस्था बताया है।
प्रश्न यह खड़ा होता है कि इससे भारत को कितना फायदा होगा?आइपीईएफ के जरिए अमेरिका पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया के साथ नए सिरे से कारोबारी समझौते करना चाहता है। टोक्यो में इस मंच की घोषणा के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समर्थन किया और कहा कि भारत सदस्य देशों के साथ मिलकर काम करेगा। कई अन्य सदस्य देशों ने इसे लेकर फिलहाल सकारात्मक रुख जताया है। जानकारों के मुताबिक हिंद-प्रशांत क्षेत्र के सभी देशों को इससे एक जैसा फायदा नहीं होगा। इसमें कारोबार को लेकर ऐसे नियम होंगे, जिन्हें मानना जरूरी होगा, लेकिन इसमें बाजार तक पहुंच को लेकर गारंटी नहीं होगी। जापान, थाईलैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड ने इसका स्वागत किया है, लेकिन दक्षिण कोरिया, फिलीपींस, सिंगापुर ने मिलीजुली प्रतिक्रिया दी है। जानकारों के अनुसार भारत को कारोबार के ऊंचे अमेरिका मानकों से दिक्कत हो सकती है, इसलिए भारत अमेरिका के इन जोखिमों से बचना चाहेगा।
इसको लेकर रिसर्च एंड इंफारमेशन सिस्टम फार डेवलपिंग कंट्रीज, जो विदेश मंत्रालय का थिंक टैंक है, के प्रोफेसर प्रबीर डे कहते हैं​ कि आइपीईएफ में कुछ ऐसे बिंदु हैं, जो भारत के अनुकूल नहीं लगते। जैसे डिजिटल गवर्नेंस की बात की गई है, लेकिन इसके फार्मूले में कई ऐसे मुद्दे हैं, जिनका भारत सरकार की नीतियों से सीधे टकराव है। डाटा लोकलाइजेशन और क्रास-बार्डर डाटा फ्लो पर सरकार का अमेरिकी कंपनियों से लगातार टकराव हो रहा है। डाटा प्रोटेक्शन को लेकर भारत सरकार बिल लेकर आ रही है, जो आने वाले मानसून सत्र में संसद में रखा जाएगा और इसपर बहस के बाद कानून पारित किया जाएगा। ऐसे में अभी यह तय नहीं हो पाया है कि इस डिजिटल गवर्नेंस का डाटा सेंटर कहां होगा? क्योंकि भारतीय कानून के अनुसार तो भारत में होना चाहिए, लेकिन अमेरिकी कंपनियां पहले से परेशान नजर आ रही हैं।
इसके साथ ही विशेषज्ञों का मानना है कि आइपीईएफ अमेरिका का एशिया प्रशांत क्षेत्र से आर्थिक संबंध बनाने का माध्यम होगा। इस पहल से वह खाई भर जाएगी, जो अमेरिका के ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से खुद को अलग करने से पैदा हुई थी। शामिल होने वाले देशों को व्यापार, श्रम मानदंडों और पर्यावरण कसौटियों के बारे में नए नियम स्वीकार करने होंगे। कुल मिलाकर बात यही है कि यह मंच जहां एक ओर अमेरिका का नया बाजार देगा, तो साथ ही इंडो पैसेफिक रीजन में चीन को आर्थिक तौर पर घेरने के लिए इस मंच का इस्तेमाल किया जाएगा। भारत के हिसाब से देखें तो इस मंच के जरिये वह अमेरिका के साथ संबंध घनिष्ठ बनाने में मददगार साबित होगा, तो साथ ही चीन जैसे दैत्य के खिलाफ समुद्री क्षेत्र में घेरेबंदी करने में मदद मिलेगी, जो ड्रेगन की बढ़ते दुस्साहस को नियंत्रित करने में सहायक होगा। क्योंकि भारत को कारोबार बढ़ाना है, ऐसे में आने वाले समय में भारत को इस मंच के जरिये अपनी जरुरतों व निर्यात के लिए चीन के विक्लप के तौर पर यह मंच काफी मददगार साबित हो सकता है।

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