Ram Gopal Jat
राजस्थान की दो बार मुख्यमंत्री रहीं वसुंधरा राजे के तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के सपने पर लगभग फुल स्टॉप लग गया है। वैसे तो इसकी शुरुआत साल 2019 में जब सतीश पूनियां का पार्टी अध्यक्ष बनाया गया था, तभी साफ हो गया था कि शायद राजस्थान से अब वसुंधरा राजे का समय समाप्त हो चुका है, किंतु जब साल 2020 के अंत में उनके धुर विरोधी पूर्व कैबिनेट मंत्री घनश्याम तिवाड़ी की पार्टी में वापसी हुई थी, तभी राजे को लेकर भाजपा आलाकमान ने संदेश दे दिया था। अब रविवार को भाजपा आलाकमान ने तिवाड़ी को राज्यसभा भेजने का टिकट देकर बिलकुल साफ कर दिया है कि वसुंधरा राजे को यह मान लेना चाहिये कि संगठन से बढ़कर कोई नहीं है।
घनश्याम तिवाड़ी के राज्यसभा भेजे जाने की पूरी कहानी बताउंगा, लेकिन उससे पहले उनके राजनीतिक जीवन और करीब एक दशक तक वसुंधरा राजे के साथ उनकी अदावत के खेल को समझ लीजिये। घनश्याम तिवाड़ी इस वक्त 74 साल के हो चुके हैं। तिवाड़ी ने आपातकाल से लेकर वसुंधरा राजे के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लड़ी और आखिरकार साल 2018 के अंत में भाजपा छोड़कर खुद की दीन दयाल वाहिनी नामक पार्टी बना ली। बाद में मई 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में शामिल हो गये, लेकिन कांग्रेस सभी 25 सीटों पर बुरी तरह से हार गई और घनश्याम तिवाड़ी भी फ्री हो गये। उनका कांग्रेस में मन नहीं लगा, तो वह घर बैठ गये। इसके बाद जब अक्टुबर 2019 में सतीश पूनिया को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया, तब उन्होंने पार्टी में वापसी के लिए हाथ पैर मारने शुरू किये और आखिर उनकी सतीश पूनिया की अगुवाई में 2020 के अंत में घर वापसी हो गई।
उससे पहले वह सीकर से सांसद का चुनाव लड़े। चौमू से विधायक रहे, सांगानेर से लगातार तीन बार विधायक रहे और हर बार पहले के मुकाबले अधिक मतों से जीते। साल 2013 के आखिर जीत के वक्त उन्होंने 65000 मतों के साथ राजस्थान में सबसे बड़ी जीत हासिल की। हालांकि, अपने दल से साल 2018 में वह केवल 17000 वोट ही हासिल कर पाये। अब भाजपा के पास संख्याबल होने के कारण उनका राज्यसभा चुनाव जीतना पक्का है।
चर्चा है कि तिवाड़ी की 2020 के समय पार्टी में वापसी की कोई शर्त नहीं थी, उन्होंने पार्टी नेतृत्व को यही कहा था कि उनका अंतिम समय पार्टी के झंडे तले बीतना चाहिये। इससे पहले कल्याण सिंह से लेकर उमा भारती और राजस्थान में भी वर्तमान राज्यसभा सांसद किरोडीलाल मीणा तक ने कभी पार्टी छोड़ी और 9 साल बाद वापसी कर सम्मान पाने में कामयाब रहे। अब तिवाड़ी की वापसी यही कहती है कि भाजपा अपने जन्मजात लोगों की गलती को माफ भी करती है और उनका सम्मान करना भी जानती है।
एक दिन पहले जैसे ही तिवाड़ी के नाम की चर्चा शुरू हुई तो पार्टी में उनका धुर विरोधी खेमा माने जाने वाला वसुंधरा राजे गुट छटपटाने लगा। सोशल मीडिया पर जमकर वार चले, लेकिन संगठन के खेमे ने जवाब दिया कि जब कल्याण सिंह, उमा भारती और खुद वसुंधरा राजे की अगुवाई में ही किरोडीलाल मीणा की वापसी और सम्मान हो सकता है, तो घनश्याम तिवाड़ी से परहेज क्यों? इसका जवाब वसुंधरा खेमे के पास नहीं है। वसुंधरा से सियासी लड़ाई की बात करें तो यह अदावत तब शुरू हुई, जब साल 2008—09 के दौरान उनको नेता प्रतिपक्ष पद से हटाया गया और उन्होंने अपनी ताकत दिखाते हुये दिल्ली में समर्थक विधायकों के साथ डेरा डाल दिया। बाद में उनको वापस नेता प्रतिपक्ष तो बना दिया गया, लेकिन घनश्याम तिवाड़ी, गुलाबचंद कटारिया, कैलाश चंद मेघवाल, राव राजेंद्र सिंह और नरपत सिंह राजवी जैसे नेताओं ने उनके खिलाफ मोर्चा खोले रखा। बाद में 2013 के चुनाव के समय बाकी सभी नेताओं से वसुंधरा राजे की लड़ाई खत्म हो गई, लेकिन तिवाड़ी अपनी बात पर अड़े रहे।
इसका नतीजा यह हुआ कि 2013 में भाजपा सरकार में उनको मंत्री नहीं बनाया गया। कहा जाता है कि तिवाड़ी मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, जबकि 163 सीटों के प्रचंड बहुमत पर सवार वसुंधरा राजे ने उनकी एक नहीं सुनी। इसके बाद तिवाड़ी वसुंधरा के बीच पांच साल तक अदावत चलती रही। वसुंधरा से दूसरा बंगला खाली करवाने से लेकर अनैक मुद्दों पर तिवाड़ी की सदन के भीतर और बाहर खूब राजनीतिक लड़ाई हुई। इसी का नतीजा था कि तिवाड़ी ने दिसंबर 2018 के चुनाव से ठीक पहले पार्टी को अलविदा कह दिया। और यहीं से तिवाड़ी के वनवास का दौर शुरू हुआ, जो वास्तव में अब जाकर खत्म हुआ है।
तिवाड़ी को राज्यसभा भेजे जाने का मतलब कई तरह से निकाला जा सकता है, लेकिन सबसे बड़ा मतलब यही है कि वसुंधरा राजे का राजस्थान से सियासी सफर थम गया है। पहले जब उनको पार्टी में लिया गया, तब भी वसुंधरा राजे ने जमकर विरोध किया था, हालांकि उनकी एक नहीं चली और पार्टी में वापसी हो गई। चर्चा है कि अब भी राजे इस बात पर अड़ी हुई थीं कि तिवाड़ी को राज्यसभा नहीं भेजा जाये, लेकिन संगठन ने उन्हीं के धुर विरोधी को संसद भेजकर साफ कर दिया है कि उनकी बिलकुल भी नहीं चलेगी, चाहे वह पार्टी के साथ चलें या बाहर जाएं। तिवाड़ी के राज्यसभा जाने का दूसरा मतलब यह है कि पार्टी ने ब्राह्मण मतदाताओं को साफ कर दिया है कि आपके सबसे बड़े चेहरे द्वारा गलती करने के बाद भी पार्टी ने सम्मान किया है।
तिवाड़ी को दिल्ली भेजने का तीसरा कारण यह है कि पार्टी उनकी जीवनभर की सेवाओं को सम्मान देकर कर्ज चुकाने जा रही है। अब वह अपनी पूरी ताकत राजस्थान में संगठन के लिए लगायेंगे और भविष्य में किसी तरह से भी संगठन के खिलाफ कोई बात नहीं कहेंगे। यह भी तय हो गया है कि तिवाड़ी को वह सबकुछ मंजूर होगा, जो संगठन कहेगा, चाहे विरोध करने वाले कितनी भी ताकत लगायें, लेकिन उनको समझ लेना चाहिये कि संगठन से उपर कुछ नहीं है। पार्टी पिछले कई दिनों से साफ कह रही थी कि संगठन ही सर्वोपरी है, वसुंधरा समर्थक विधायकों को भी खूब मैसेज दिया गया, लेकिन करीब एक दर्जन विधायकों ने संगठन मुखिया के खिलाफ बयानबाजी कर उकसाने का खूब प्रयास किया। आखिर संगठन ने तिवाड़ी को राज्यसभा का टिकट देकर स्पष्ट कर दिया कि वसुंधरा खेमा इस बात को जान ले कि करीब डेढ साल बाद होने वाले चुनाव में कोई विरोध पार्टी स्वीकार नहीं करेगी, और विरोध करने वालों को कोई तवज्जो नहीं दी जायेगी, जो अधिक विरोध करेगा, उसका टिकट कटना भी तय है।
तिवाड़ी को टिकट मतलब यह भी है कि संगठन के साथ कदमताल करके जो चलेगा, वही आगे बढ़ेगा, नेतृत्व को आंख दिखाने वालों की नहीं सुनी जायेगी, संगठन से बढ़कर कोई नेता नहीं है। अब वसुंधरा राजे के पास दो ही विकल्प हैं, पहला यह कि वह या तो पूरी तरह से संगठन के साथ तालमेल बिठा लें, या वो पार्टी छोड़कर चली जायें, अथवा उनके विरोध से भी पार्टी किसी तरह के दबाव में नहीं आयेगी, जैसे 2009 के समय किया गया था। इस टिकट से वसुंधरा खेमे के उन विधायकों के लिए भी संदेश है कि जो राजे के दम पर संगठन से विरोध कर रहे हैं, उन्होंने अधिक हाथ पैर मारने की कोशिश की तो चुनाव में टिकट भी कटना तय है।
सतीश पूनियां ने तिवाड़ी को भेजा राज्यसभा तो वसुंधरा कैंप विदा हुआ!
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