यूरोप महाद्वीप के रूस—यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को दो महीनों से ज्यादा गुजर चुके हैं, इस युद्ध को जितना आसान माना जा रहा था, उससे कहीं अधिक टफ हो गया है। एक तरफ यूक्रेन जैसा छोटा सा देश सरेंडर नहीं कर रहा है, तो रूस जैसा शक्तिशाली देश उसको हरा नहीं पा रहा है। रूस अपने दम पर लड़ रहा है तो अमेरिका व यूरोप मिलकर यूक्रेन को साथ दे रहे हैं। आर्थिक से लेकर भोगौलिक प्रतिबंधों के बाद भी जब अमेरिका व यूरोप की पार नहीं पड़ रही है, तब ये दुनिया के उन देशों को चुन रहे हैं, जो रूस का प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से साथ दे रहे हैं। चीन जहां रूस को प्रत्यक्ष मदद कर रहा है, तो भारत भी यूएन में उसके खिलाफ वोटिंग नहीं करके परोक्ष मदद कर रहा है।
यह बात अमेरिका व यूरोप को तब समझ आई, जब रूस यूक्रेन मामले में 13 बार वोटिंग हुई और उसमें से भारत 12 मर्तबा गैर हाजिर रहा। यह बात सही है कि भारत व रूस के तब से संबंध हैं, जब अमेरिका भारत को त्वज्जो नहीं देता था, अलबत्ता ब्रिटेन व अमेरिका ने मिलकर पाकिस्तानी हमलों को सहयोग दिया था। आज भारत व रूस के बीच द्विपक्षीय संबंध ऐसे हैं, जो कोई तोड़ नहीं सकता। भारत अपनी जरुरतों का 50 फीसदी रक्षा उपकरण रूस से खरीदतता है। बड़े पैमाने पर कोयला, तेल, पाम ओयल खरीद करता है, तो रूस भी भारत को अपना सबसे घनिष्ठ मित्र मानता है। भारत की हमेशा ही गुट निरपेक्ष नीति रही है, लेकिन इस वक्त युद्ध के दौरान अमेरिका व यूरोप चाहते हैं कि भारत उनके पक्ष में खड़ा होकर रूस पर प्रतिबंध लगाएं, क्योंकि रूस् की अर्थव्यवस्था में यूरोप को निर्यात होने वाले कच्चे तेल व गैस के बाद भारत ही सबसे बड़ा सहयोगी है।
अमेरिका के दबाव में यूरोप ने भले ही रूस के खिलाफ सभी तरह के प्रतिबंध लगा दिए हों, लेकिन वह भारत को ऐसा करने को मजबूर नहीं कर पा रहा है। अब भारत के प्रधानमंत्री तीन दिन की यूरोप यात्रा पर गये हैं, उससे पहले जर्मनी के चांसलर ओलाफ स्कोल्ज ने कहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ मिलकर रूस यूक्रेन युद्ध के विषय पर यूएन चार्टर के अनुसार युद्ध अपराधी तय करने की कोशिश की जाएगी। मोदी भारत से रविवार रात को रवाना हुए, उससे पहले जर्मनी के नये चांसलर ओलाफ ने कहा कि द्विपक्षीय संबंधों पर चर्चा होगी, साथ ही यूरोप के युद्ध को लेकर भी जिम्मेदारी तय की जाएगी। इधर, भारत ने इस मामले में एक शब्द भी नहीं बोला है, इसका मतलब यह है कि भारत का रुख नहीं बदला है, यूरोप व अमेरिका मिलकर बदलने का प्रयास कर रहे हैं।
मोदी की इस तीन दिन और तीन रात की यात्रा में कहीं भी रूस यूक्रेन युद्ध का जिक्र नहीं है, फिर भी जर्मनी के चांसलर का यह कहना कि भारत के साथ युद्ध को लेकर भी बात की जाएगी, मतलब यह है कि जो एजेंडा दिया गया है, यूरोपीन देश उससे भटक रहे हैं। ऐसे में यदि कोई बात होती है तो निश्चित रुप से दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों पर विपरीत असर पड़ सकता है। आप समझने की कोशिश कीजिए कि आखिरी जर्मन चांसलर लाइन से हटकर बात क्यों कर रहे हैं? असल बात यह है कि पिछले एक महीने में भारत ने बार बार साफ किया है कि वह किसी मित्र देश के कहने पर रूस से संबंध खराब नहीं करेगा। कारोबार के मामले में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर साफ कर चुके हैं, तो वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण भी कह चुकी हैं कि भारत व अमेरिका—यूरोप के बीच संबंध मजबूत हो रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम रूस के साथ रिश्ते खत्म कर देंगे।
माना जा रहा है कि जब अमेरिका की पार नहीं पड़ी है, तब उसने यूरोप के देशों को भारत के साथ कारोबार बढ़ाने व इन्हीं व्यापारिक संबंधों दुहाई देते हुए रूस के साथ संबंध तोड़ने को कहा है। यही कारण है कि यूरोपीन देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय व बहुपक्षीय संबंधों में गर्मी आई है। पहले ब्रिटेन और अब जर्मनी के साथ ही डेनमार्क, आईसलेंड, फिनलेंड, स्वीडन और नार्वे जैसे यूरोपीयन देशों को भारत से संबंध बनाने को अमेरिका ने कहा है, तकि दबाव बनाकर रूस से रिश्ते तोड़ने को मजबूर किया जा सके। लेकिन भारत कई बार साफ कह चुका है कि वह किसी दबाव में आकर कोई रिश्ते खराब नहीं करेगा। बावजूद इसके अमेरिका व यूरोप कोशिशों में लगे हुए हैं। वे चाहते हैं कि रूस का विकल्प बनें, ताकि भारत रूस के बीच कारोबार कम हो जाए।
इसके अलावा अमेरिका व यूरोप ने चीन का भी भारत को डर दिखाया है, लेकिन भारत ने उसे भी सिरे से खारिज कर दिया, तब अमेरिका के लिए सबसे ज्यादा जरुरी इंडो—पेसेफिक रीजन में चीनी कब्जे का डर भी भारत को दिखाया जा रहा है, जिसको भी भारत ने नकार दिया है। हालांकि, चीन के प्रति भारत के रुख में कोई अंतर नहीं आया है, लेकिन फिर भी आने वाले समय में अमेरिका भारत को अपने पक्ष में लेने के लिए चीन के कार्यों को गलत करार देने कदम उठा सकता है। पिछले दिनों ही भारत ने अमेरिका व यूरोप के उन एक दशक के कार्यों का उल्लेख किया है, जो उन्होंने अफगानिस्तान में प्रत्यक्ष और भारत की सीमा पर होने वाली घटनाओं को परोक्ष रुप से समर्थन दिया है। पांच साल पहले तक पाकिस्तान व चीन भारत की सीमाओं पर घुसपेठ करने का प्रयास करते थे और अमेरिका उनको पर्दे के पीछे से समर्थन करता था। अब भारत ने पाकिस्तान को घर में घुसकर मारा है, तो चीन को भी साफ संदेश दे दिया है कि यदि उसने बॉर्डर पर हरकत की तो उसी की भाषा में जवाब मिलेगा।
यानी भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा भी कर रहा है और दुनिया को यह भी दिखा रहा है कि उसको धमकी देकर काम कराने का समय जा चुका है। एस जयशंकर साफ कहते भी हैं कि दुनिया भारत के बारे में क्या सोचती है, यह हमें सोचने की जरुरत नहीं है। भारत के बार में जिसको जो सोचना है, सोचें, इससे हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। मोदी की इस वर्ष यह पहली विदेश यात्रा है, जिसमें यूरोप के देशों के साथ संबंध बनाना और कारोबार को बढ़ाना प्रमुख लक्ष्य है, लेकिन अमेरिका व यूरोप को लगता है कि इनसे भारत को रूस से दूर किया जा सकेगा। इसको सीधे शब्दों में समझें तो यह है कि भारत अब दुनिया की केवल रक्षा के मामले में तीसरी सबसे बड़ी ताकत नहीं है, बल्कि कारोबार और वैश्विकरण में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है।
मंत्रियों के बाद मोदी भी यूरोप—अमेरिका को आइना दिखाएंगे
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