नरेंद्र मोदी सरकार ने आईएएस अधिकारी शाह फैसल के इस्तीफा वापस लेने के आवेदन को स्वीकार कर उन्हें सेवा में बहाल कर दिया है। फैसल की सेवाएं केंद्र सरकार को सौंपी जाएंगी। जम्मू कश्मीर सरकार ने केंद्र में उनकी प्रतिनियुक्ति को हरी झंडी दे दी है। इस्तीफे के बाद राजनीति में शामिल होने और पीएसए के तहत बंदी बनाए गए किसी आईएएस अधिकारी का इस्तीफा रद्द कर उनकी सेवाएं बहाल करने का यह पहला मामला है। आप सोच रहे होंगे कि जो युवक देशद्रोह की बातें करें और उसको मोदी सरकार आसानी से वापस दे दे, जो हर किसी को मुमकिन नहीं होती। आखिर ऐसा क्या कारण हुआ कि शाह फेसल ने इस्तीफा दिया, पॉलिटिकल पार्टी बनाई और फिर तीन साल बाद अब वापस सरकारी सेवा में लौट आए? सबकुछ इस वीडियो में बताउंगा, लेकिन उससे पहले यह जान लीजिए कि आईएएस की नौकरी करने, उसके इस्तीफा देने और नौकरी से बर्खास्त करने के क्या नियम हैं?
कश्मीर के निवासी फैसल ने 2009 में यूपीएससी परीक्षा में टॉप किया था। लेकिन सूबे में हो रहीं लगातार हत्याओं को मुद्दा बनाकर उन्होंने 2019 में नौकरी से इस्तीफा देकर अपना राजनीतिक दल बना लिया था। इसके बाद राजनीति में बात बनी नहीं। अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के साथ-साथ अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया तो उन्हें धक्का लगा। शाह फैसल इस्तांबुल जाने की कोशिश में थे पर सरकार ने उन्हें हिरासत में ले लिया, वो जून 2020 तक हिरासत में ही थे। फिलहाल उनके खिलाफ कोई केस नहीं है, उनके खिलाफ लगा पीएसए एक्ट भी रद्द हो चुका है।
इस्तीफे के मामले में सरकार नौकरी छोड़ने की एक औपचारिक घोषणा मानती है। नियमों के मुताबिक इस्तीफा सीधा और सपाट होना चाहिए। इस्तीफा वीआरएस से पूरी तरह से अलग होता है। वीआरएस लेने वाले अफसर को सेवानिवृत्ति के लाभ मिलते हैं, जैसे की पेंशन। लेकिन इस्तीफा देने वाले अफसर को इन सभी लाभों से वंचित होना पड़ जाता है। नौकरी से बर्खास्त होने वाले अफसरों को भी पेंशन नहीं दी जाती।
राज्य में तैनात आईएएस अपने चीफ सेक्रेटरी को इस्तीफा देते हैं। जबकि केंद्र में प्रति नियुक्ति पर काम कर रहे अफसर इस्तीफा संबंधित मंत्रालय के सचिव को इस्तीफा देते हैं। मंत्रालय अपनी टिप्पणी के साथ संबंधित राज्य के काडर को इस्तीफा फॉरवर्ड कर देते हैं। इस्तीफा मिलने के बाद राज्य की ओर से जांच की जाती है कि अधिकारी का कुछ बकाया तो नहीं है। फिर उसके खिलाफ करप्शन के मामलों की जांच की जाती है। ऐसा कोई केस पेंडिंग होने की स्थिति में इस्तीफा खारिज कर दिया जाता है। आईएएस के मामले में डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग और आईपीएस के मामले में गृह मंत्रालय और फॉरेस्ट सेवा के मामले में पर्यावरण मंत्रालय इस्तीफे पर फैसला लेता है। डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग मंत्रालय के मसलों पर प्रधानमंत्री खुद फैसला लेते हैं, क्योंकि ये महकमा उनकी ही देखरेख में सारा काम करता है।
सर्विस रूल कहता है कि कोई आईएएस अधिकारी इस्तीफा देने के लगभग 90 दिन के भीतर ही अपनी सेवा बहाली का आग्रह कर सकता है। अगर वह इस दौरान किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है तो उसकी सेवाएं बहाल नहीं की जाती। शाह फैसल ने जनवरी 2019 में सरकारी सेवा छोड़ने का एलान करते हुए इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद उन्होंने एक राजनीतिक दल भी बनाया, लेकिन शाह फैसल का इस्तीफा कभी मंजूर नहीं हुआ। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि शाह फैसल ने कुछ समय पहले इस्तीफे को वापस लेने के लिए औपचारिक आवेदन किया था। करीब 17 दिन पूर्व उनका इस्तीफा नामंजूर हो गया, और वो अब फिर सर्विस में लौट आए।
सर्विस रूल देखे जाए तो साफ है कि फैसल के मामले में कई नियमों की अनदेखी की गई। उन्होंने तकरीबन तीन साल पहले इस्तीफा दिया था, फिर अपनी पार्टी भी बना ली। वो पीएसए एक्ट के तहत हिरासत में भी रहे। फिर भी सरकार ने उनकी सेवाएं बहाल करने का फैसला ले लिया। आखिर क्यों शाह फैसल का इस्तीफा कभी स्वीकृत ही नहीं किया गया? बताया गया है कि उन पर कुछ देश विरोधी पोस्ट करने का आरोप था, इसे आधार बनाकर सरकार ने उनका इस्तीफा मंजूर नहीं किया।
शाह फैसल ने जनवरी 2019 को इस्तीफा दिया, लेकिन उनके इस्तीफे पर कोई एक्शन नहीं हुआ। डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग मंत्रालय की वेबसाइट पर शाह फैसल का नाम कार्यरत अधिकारी के रूप में है। इसमें उनकी पोस्टिंग की कोई जानकारी नहीं दी गई है। शाह फैसल का इस्तीफा अगर स्वीकार कर लिया जाता तो उनके लिए वापसी के रास्ते बंद हो जाते। उनकी वापसी का सबसे बड़ा आधार ये ही है कि केंद्र ने फैसल का इस्तीफा कभी स्वीकार ही नहीं किया, इससे उनकी वापसी मुमकिन हो सकी।
लोगों को लगता है कि शाह फेसल जैसा टॉपर यूं ही जल्दबाजी में सबसे बड़ी नौकरी छोड़कर कश्मीर की आजादी की जंग में उतर गया था, तो यह बहुत बड़ी गलतफहमी है। असल मामला कुछ और ही है। किसी भी कम्यूनिटी और क्षेत्र में गंदगी साफ करनी होती है, तो उसी में से एक बड़ा उदाहरण चुनना पड़ता है, यही काम मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर में किया। मोदी सरकार ने शाह फैसल नामक उस आईएएस टॉपर को चुना, जो राज्य के युवाओं के लिए रॉल मॉडल था, उसको तैयार किया, उसे हर तरह की ट्रेनिंग दी और बेहद सफाई से वह सबकुछ किया गया, जो कश्मीर के लिए बेहद जरुरी था। शाह फैसल का इस्तीफा हुआ, नई पार्टी बनी, लेकिन पार्टी से किसी को जोड़ा नहीं गया। फैसल ने इस दौरान सरकार व देश के खिलाफ सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणियां कीं। इसके चलते उनपर पीएसए का मामला दर्ज हुआ।
इसके बाद 5 अगस्त 2019 को कश्मीर से धारा 370 हटाई गई तो शाह फैसल भी वहीं रहे, जहां कश्मीर के अन्य विद्रोही नेता थे। मतलब सबसे पहले कश्मीर के उन सभी नेताओं को एक किया गया, जो कश्मीर से धारा 370 हटाने के खिलाफ थे। फिर वहां पर एक ऐसा व्यक्ति प्लांड किया गया, जो बेहद बुद्विमान और देश का टॉपर था, उसको इंटरनेट से संबंधित सभी तरह की ट्रेनिंग मिली हुई थी, कॉल करने और कॉल रिकॉर्डिंग में माहिर थे, जो कम्यूनिकेशन में एक्पर्ट थे। ऐसा व्यक्ति, जिसके उपर महबूबा से लेकर फारुख और उमर अब्दुलाह आंख मूंदकर भरोसा कर सकते थे।
मजेदार बात देखिए, जो शाह फैसल आराम से आईएएस की नौकरी कर रहे थे, पैसा था, शोहरत थी और सबसे बड़ी बात ये कि पूरे मुस्लिम समाज के लिए एक रॉल मॉडल थे, उन्होंने 5 अगस्त 2019 से पहले अचानक नौकरी छोड़कर अपनी सियासी पार्टी बनाई और राजनीति में कूद पड़े। फिर शाह फैसल नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ जमकर जहर उगला, बात यहीं तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने मोदी सरकार को मुस्लिम विरोधी बताया और कश्मीर के उन नेताओं की भाषा बोली, जो बरसों से बोलकर राजनीति करते रहे हैं। ताकि सबको यह भरोसा हो जाए कि वह भी मोदी सरकार से दुखी हैं, और उनके साथ हैं, उनका भरोसा शाह फेसल ने अपने बयानों से जीता।
फिर उनको भी नजरबंद रखा गया, जहां बाकी नेता थे। लेकिन आखिरी क्यों उनके खिलाफ आज किसी तरह का कोई मुकदमा नहीं है? बल्कि महबूबा और अब्लाहों के खिलाफ मुकदमें बाकी हैं। सरकार ने शाह फैसल को आईएएस की नौकरी तो दे दी है, लेकिन लगता है इस नई मोदी—शाह की जोड़ी का सफर यहीं थमने वाला नहीं है। अगले कुछ माह में जम्मू कश्मीर राज्य में विधानसभा सीटों को लेकर परिसीमन होगा, और उसके बाद विधानसभा चुनाव। ऐसे में यदि आने वाले समय में शाह फैसल कश्मीर में भाजपा की ओर से सीएम फेस या बड़ा राजनीतिक चेहरा नहीं बन जाएं तो यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
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